नागार्जुन, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोध- यह सूची उन लेखकों की है जिनकी ओर से मैनेजर पांडे ने आज के समय में आलोचना की भूमिका तलाशी है । इस सूची के अधूरा होने पर बहस की जा सकती है लेकिन एक बात सिद्ध है । ये सभी लेखक आधुनिक हिंदी साहित्य के स्तंभ हैं । जो लेखक प्रामाणिक रूप से हिंदी में जनपक्षधर लेखन की परंपरा का निर्माण करते हैं, आखिर उनकी रक्षा की जरूरत क्या है ? असल में हरेक दौर में वैचारिक लड़ाई चलती रहती है और उस लड़ाई में फिर फिर जनता से जुड़े रचनाकारों को गलत व्याख्या से बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है । इससे ही वह समकालीन संदर्भ बनता है जिसमें आलोचना की एक खास तस्वीर मैनेजर पांडेय बनाते हैं । सबसे पहले इस समय की जो पहचान मैनेजर पांडे ने की है उसे देखना जरूरी है ।
‘आलोचना की सामाजिकता’ की भूमिका में वे लिखते हैं- ‘आजकल भारत पूँजीवादी सभ्यता के आतंककारी प्रभावों का सामना कर रहा है ।’ यह महत्वपूर्ण वाक्य उन्होंने 2005 में लिखा जब प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक रणधीर सिंह ने चिंता जाहिर की थी कि उत्तर आधुनिक चिंतकों के मुताबिक पूँजीवाद लुप्त और गुप्त हो गया है, न सिर्फ़ इतना बल्कि मार्क्सवादी बौद्धिक विमर्श से भी यह अभिधान गायब होता जा रहा है। कुछ दिनों पहले ही नक्सलबाड़ी से संबंधित एक संपादित पुस्तक की भूमिका में वीर भारत तलवार ने अपने लेनिनवादी अतीत को श्रद्धांजलि अर्पित की थी । मार्क्सवादी शब्दावली से पीछा छुड़ाने की इस भगदड़ के माहौल में ही उस जिद के महत्व को समझा जा सकता है जिसके साथ मैनेजर पांडे वर्तमान दौर को समझने और इसमें आलोचना का कार्यभार तय करने के लिए निरंतर इस शब्दावली का उपयोग करते हैं। इस बात पर एक और कोण से विचार करना जरूरी है। मार्क्सवाद के अनेक विरोधियों का कहना है कि मार्क्सवाद न सिर्फ़ विदेशी है बल्कि उसका संबंध तो लोहा लक्कड़ और रुपये पैसे जैसी ठोस चीजों से है, साहित्य संस्कृति जैसे अमूर्त व्यवहार से उसका क्या लेना देना। मैनेजर पांडे ने इस धारणा से लड़ने के लिए सांस्कृतिक व्यवहार की सामाजिकता को पहचाना और उसे व्याख्यायित करने में विश्लेषणात्मक बुद्धि और अध्यवसाय के बल पर मार्क्सवाद की भूमिका को स्थापित किया ।
पूँजीवाद के वर्तमान दौर ने आलोचनात्मक विवेक को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया है । इस स्थिति की शिनाख्त करते हुए वे ‘आलोचना : सार्थक और निरर्थक’ शीर्षक निबंध में लिखते हैं- ‘यह ठीक है कि हिंदी में आलोचना की स्थिति अच्छी नहीं है । लेकिन आलोचना की यह स्थिति केवल हिंदी में हो, ऐसा नहीं है । आजकल सारी दुनिया में आलोचना संकट में है, बल्कि आलोचना का संकट व्यापक सांस्कृतिक संकट का हिस्सा है। आज के उत्तर आधुनिक दौर में एक वैचारिक अनुशासन और साहित्य विधा के रूप में आलोचना कई तरह के संकटों का सामना कर रही है । पूँजीवाद के विजय, उपभोक्तावाद के सर्वग्रासी प्रसार, विवेक के साथ अर्थ के अंत और सामाजिक की मृत्यु की घोषणा के कारण जब आलोचनात्मक चेतना ही संकट में है तब उसकी क्रियाशीलता का एक रूप साहित्य की आलोचना उस संकट से कैसे बच सकती है?’
आलोचनात्मक विवेक के इस विनाश का एक प्रमुख कारण मार्क्सवादी बौद्धिक विमर्श में आई गिरावट है। आजाद भारत में एक तो शिक्षा संस्थानों के जरिए ही आलोचनात्मक प्रभुत्व पाने की रणनीति ने इसे सभी तरह के दक्षिणपंथी प्रभावों के समक्ष अरक्षणीय स्थिति में पहुँचा दिया और इसीलिए सोवियत संघ के बिखरते ही लाभान्वितों ने दूसरे चरागाहों की ओर मुँह फेरा। इसके विपरीत खासकर नक्सलवादी आंदोलन के उभार ने इसके सकारात्मक मूल्यों- मान्यताओं के विकास का दबाव बनाया। मैनेजर पांडे को इसी क्रांतिकारी वाम दबाव के प्रतिनिधि के रूप में समझा जा सकता है। जब साहित्य और उसकी आलोचना के क्षेत्र में दक्षिणपंथी दबाव बनता है तो सबसे पहले साहित्य को जनसमुदाय, जनांदोलन और जनराजनीति से अलग करने का प्रयास होता है। न सिर्फ़ उसके सृजन, ग्रहण और मूल्यांकन के क्षेत्र से जनता को गायब कर दिया जाता है बल्कि आलोचना के ऐसे मानदंड भी विकसित किए जाते हैं जो कृति की संरचना में ही उसके सौंदर्य को अपघटित कर दें। मैनेजर पांडे ने इन सभी मोर्चों पर न सिर्फ़ रक्षात्मक बल्कि अनेकश: आक्रामक युद्ध भी लड़ा है।
आलोचना के क्षेत्र में जनांदोलनों के योगदान को मुक्त कंठ से स्वीकार करने वाले संभवत: अकेले आलोचक मैनेजर पांडे हैं । ‘आलोचना की राजनीति’ शीर्षक लेख में वे लिखते हैं- ‘आज के समय में आलोचनात्मक चेतना के निर्माण और विकास का एक स्रोत जनांदोलन है । ज्ञान का विकास केवल एकांत साधना से नहीं होता, सामाजिक आंदोलनों से भी होता है। सामाजिक आंदोलनों से उपजा ज्ञान एकांत साधना से अर्जित ज्ञान की तुलना में अधिक ऊर्जावान और दीर्घगामी होता है।’ इसी पारगामी दृष्टि के कारण वे अकादमिक संस्थाओं की दुनिया में रहते हुए भी उनकी सीमाओं में न बँधकर हिंदी समाज में चलने वाली उथल पुथल से अपनी आलोचना को जोड़ सके ।
चूँकि उन्होंने आलोचना के प्रसंग में और अन्य प्रसंगों में भी राजनीति की चर्चा की है इसलिए राजनीति के जरिए कुछ बातें करना अनधिकार चेष्टा न होगी । प्रगतिशील आलोचना के उत्थान पतन को भारत की परंपरागत वामपंथी राजनीति के संदर्भ से समझना आवश्यक है। नामवर सिंह प्रगतिशील हिंदी आलोचना की सर्वाधिक सक्रिय उपस्थिति रहे हैं। उनके वैचारिक निर्माण में तेलंगाना आंदोलन के पतन के बाद व्यवस्था में समायोजन की वामपंथी कार्यनीति ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके आलोचनात्मक लेखन ने हिंदी साहित्य की जनपक्षधर परंपरा के साथ बहुधा न्याय नहीं किया। मुक्तिबोध को उन्होंने नेहरू के समर्थन में खड़ा कर दिया और उनके लेखन के क्रांतिकारी सार को ‘अस्मिता की खोज’ के रहस्यमय मुहावरे के नीचे दबा दिया। नागार्जुन जैसे जनसंघर्षों के पक्षधर कवि का मूल्यांकन ‘दूसरे काव्यशास्त्र’ के निर्माण तक के लिए स्थगित कर दिया गया। प्रेमचंद प्रयोगों की नवीनता के प्रति उपजे आकर्षण के कारण पुराने पड़ गए। रामचंद्र शुक्ल को ‘ब्राह्मणवादी’ और ‘वर्णाश्रम का समर्थक’ बनाया गया ताकि नए सामाजिक आंदोलनों से उनके एजेंडे पर ही तालमेल बिठाया जा सके। इस तरह प्रगतिशील आलोचना ने अपनी ही विरासत को नकारकर अपनी जगह बनानी चाही ।
इसी वातावरण में मैनेजर पांडे के वैचारिक संघर्ष का ऐतिहासिक महत्व पहचाना जा सकता है । उन्होंने वर्तमान जनांदोलनों का सवाल तो उठाया ही, प्रगतिशील आलोचना की अवसरवादी धारा द्वारा किनारे कर दी गई विरासत को भी नए सिरे से प्रासंगिक बनाया। वर्तमान की चिंताओं ने कैसे परंपरा के पुनराविष्कार की उनकी दृष्टि को रूपायित किया है, इसके लिए रामचंद्र शुक्ल और नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ संबंधी उनकी आलोचना को देखा जा सकता है। इन लेखों के भीतर भारत के पुन:उपनिवेशीकरण की चिंता से प्रभावित होकर स्वतंत्रता आंदोलन के साथ साहित्य के संबंध के रेखांकित करने के प्रयास को देखा- पढ़ा जा सकता है। इसी तरह अंधाधुंध उद्योगीकरण से हाशिए पर पड़ते जा रहे ग्रामीण जनसमुदाय के साथ लगाव को प्रेमचंद के लिए होने वाली लड़ाई के मूल में देखा जा सकता है। नागार्जुन की कविता ‘हरिजन गाथा’ पर अतिरिक्त बल को भी बिहार के किसान आंदोलन और दलित उभार से पैदा आवेग के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है।
समकालीन भारत का यथार्थ मात्र पूँजीवाद का उभार ही नहीं है। तस्वीर का दूसरा पहलू नए सामाजिक आंदोलन भी हैं। इन आंदोलनों के कारण आलोचना में पैदा हुई नई सामाजिकता को रेखांकित करते हुए पांडेय जी ने ‘आलोचना की सामाजिकता’ की भूमिका में लिखा है- ‘—पिछले कुछ दशकों से हिंदी स्त्री लेखन, दलित लेखन और आदिवासी लेखन का जो विकास हुआ है उससे साहित्य और साहित्यिकता की पुरानी धारणाएँ और मान्यताएँ लगभग ध्वस्त हुई हैं और साहित्य की नई सामाजिकता सामने आई है। यह साहित्य विनोद का साधन नहीं है, वह स्वतंत्रता के लिए बेचैन आत्मा की पुकार है। इस साहित्य की व्याख्या में वही आलोचना सक्षम होगी जो स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों की स्वतंत्रता की आकांक्षा की पहचान करेगी और उनके रचने की सामाजिकता का मूल्यांकन करेगी ।’ इन आंदोलनों के प्रसंग में थोड़ा विस्तार से विचार करने की जरूरत है ।
नए सामाजिक आंदोलनों से उत्पन्न ऊर्जा ने वामपंथी हिंदी बौद्धिक समुदाय के लिए नई चुनौती पेश की । कुछ लोगों ने इसके समक्ष पूरी तरह आत्मसमर्पण कर दिया तो कुछ लोग कभी खारिज करने और कभी इनके उत्तर आधुनिक एजेंडे के साथ तालमेल बिठाने की अतियों के बीच झूलते रहे। इसके बरक्स मैनेजर पांडे ने इनकी सकारात्मकता को रेखांकित किया लेकिन इनकी सीमाओं की ओर भी संकेत करते रहे। मसलन ‘आलोचना की सामाजिकता’ में उन्होंने लिखा- ‘स्त्रीवादी दृष्टि और दलितवादी दृष्टि में एक प्रकार का धुँधलापन है। लेकिन यह धुँधलापन अंधेपन से तो बेहतर ही है।’ इन दोनों धाराओं विशेषकर स्त्री लेखन के प्रसंग में उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मजबूत की गई सत्ता संरचना की निशानदेही की है । आज जबकि दलित आंदोलन की एक धारा (बसपा) सत्ता संरचना का अंग हो चली है हमें दलित लेखन की धारा के साथ गंभीर बहस चलानी होगी क्योंकि वैसे भी हिंदी दलित लेखन ने कभी उन खेतिहर मजदूरों की पीड़ा को महत्व देते हुए अपनी जगह नहीं बनाई जो दलितों में बहुसंख्यक हैं । इस प्रश्न पर मैनेजर पांडे का लेखन वामपंथी चिंतन का आकाश विस्तारित करने की संभावना प्रस्तुत करता है ।
मार्क्सवादी साहित्य- समाज चिंतन उनके आलोचनात्मक लेखन की आधार भित्ति है। इससे विचलन के विरुद्ध संघर्ष के लिए उन्होंने अपने अग्रज और दीर्घकालीन वरिष्ठ सहयोगी नामवर सिंह को भी नहीं बख्शा। ‘नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि’ शीर्षक लेख किसी भी वरिष्ठ सहकर्मी के योगदान और उसके विचलन के संयत संतुलित आकलन का नमूना है। नामवर सिंह का उनका विरोध किसी चिढ़ का परिणाम नहीं बल्कि प्रगतिशील आलोचना की सच्चाई को सामने ले आने और प्रासंगिक बनाए रखने के कर्तव्य से प्रेरित है ।
भाषा संबंधी संवेदनशीलता का क्षरण उनकी चिंताओं का एक और महत्वपूर्ण आयाम है। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि उनकी पहली ही पुस्तक ‘शब्द और कर्म’ थी । भाषा के मूल में सामाजिक क्रिया होती है, इसे चिन्हित करते हुए वे ‘राजनीति की भाषा’ में लिखते हैं- ‘समाज भाषा की जन्मभूमि है और कर्मभूमि भी । यहीं से नए शब्द पैदा होते हैं, पुराने शब्दों में नया अर्थ भरता है और उन्हें नया जीवन मिलता है। समाज ही भाषा की शक्ति का मुख्य स्रोत है और समाज के कर्ममय जीवन में भाषा की क्रियाशीलता सार्थकता पाती है।’ शासक वर्ग के सामाजिक कर्म ने निरंतर भाषा को क्षरित किया है । ऐसी स्थिति में मनुष्य की सृजनात्मकता में आस्था रखनेवालों को इस शासकवर्गीय दुरभिसंधि के विरुद्ध निरंतर अपने कर्म से भाषा के अर्थ की रक्षा करनी पड़ती है ।
उनके लेखन में ‘सार्थकता’ को महत्वपूर्ण धारणा की तरह बार बार दोहराया गया है। इसके जरिए वे अतीत की रचनाओं को पुन: पुन: प्रासंगिक बनाते हैं। अश्वघोष की वज्रसूची, दारा शिकोह के मजमुल बहरैन, देउस्कर की देश की बात, महावीर प्रसाद द्विवेदी की संपत्ति शास्त्र, महादेवी वर्मा की शृंखला की कड़ियाँ- इस सूची पर ध्यान दें तो प्रतिरोध की एक भारतीय परंपरा का नक्शा खड़ा हो जाता है ।
सार्थकता की धारणा के सहारे वे रचना की संरचना में ही उसके अर्थ को खोजनेवाली कलावादी दृष्टि का मुकाबला कर रचना को सामाजिक गतिशीलता के बीच ला खड़ा करते हैं । अपनी चिंताओं, सरोकारों और वर्तमान की क्रियाशीलता से संबद्धता तथा मार्क्सवाद में आस्था से अर्जित भ्रमभेदक दृष्टि के कारण वे साहित्य को सामाजिक हलचलों के भीतर रखकर देखनेवालों के लिए जीवंत आश्वासन की तरह लगे रहे।