2020 में पालग्रेव मैकमिलन से मार्क सिल्वर के संपादन में ‘कनफ़्रंटिंग कैपिटलिज्म इन द 21स्ट सेन्चुरी: लेसन्स फ़्राम मार्क्स’ कैपिटल’ का प्रकाशन हुआ । संपादक की प्रस्तावना के अतिरिक्त किताब के पांच भागों में कुल पंद्रह लेख संकलित हैं । पहले भाग में ‘पूंजी’ के आरम्भिक अध्यायों से संबंधित लेख, दूसरे भाग में मूल्य की धारणा से संबंधित लेख, तीसरे भाग में वित्तीकरण, कर्ज और संकट से जुड़े लेख, चौथे भाग में वर्तमान सदी के संकट के बारे में तो आखिरी पांचवें भाग में अतीत और वर्तमान की रोशनी में भविष्य से जुड़े लेख शामिल हैं ।
संपादक ने एक सवाल से बात शुरू की हैं । उनका कहना है कि वर्तमान सदी के आरम्भिक दशकों में हमें जिन राजनीतिक और समाजार्थिक स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है उनमें मर्क्सवादी सिद्धांत मददगार हो सकता है या नहीं क्योंकि मार्क्स जब लिख रहे थे तो औद्योगिक पूंजीवाद उभर रहा था और समूचे यूरोप में कुलीनता और सामंतवाद के मजबूत निशान मौजूद थे, अमेरिका भी खेतिहर समाज ही था । उसके बाद के डेढ़ सौ सालों में परिवहन, संचार और निर्माण संबंधी वैज्ञानिक तकनीकी क्रांतियों ने सामाजिक और भौतिक दुनिया का चेहरा बहुत बदल दिया है। वर्तमान सदी को उत्तर-औद्योगिकता, वैश्वीकरण, डिजिटल सूचना युग और इतिहास के अंत के जरिए व्याख्यायित किया जाता है । सहज बोध तो यही कहता है कि इन बदलावों के चलते उन्नीसवीं सदी का मार्क्स जैसे सिद्धांतकार का चिंतन भी पुराना पड़ जाना चाहिए । अपने समय के लिए उनकी बौद्धिक उपलब्धियां आश्चर्यजनक थीं लेकिन अब उनकी प्रासंगिकता नहीं रह गई है । हाल के वैश्विक अर्थतंत्र में एकाधिकारी प्रवृत्तियों के प्रसंग में भी मार्क्स का नाम सुनना पसंद नहीं किया जाता । उन्नीसवीं सदी के यथार्थ से जूझने वाला व्यक्ति उससे नितांत भिन्न इस सदी को समझने में आखिर क्या मदद कर सकता है ।
अपने इस सवाल के उत्तर में वे कहते हैं कि उनसे इस मामले में बहुत कुछ सीखा समझा जा सकता है । जो लोग यथार्थ का सामना नहीं करना चाहते उनके लिए ही मार्क्सवादी सिद्धांत अप्रासंगिक हुआ है । चूंकि बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र उनके विश्लेषण का जवाब नहीं दे सकता इसलिए उनको खारिज करता है और उनकी परम्परा में काम करने वाले समाज विज्ञानियों की उपेक्षा करता है । मार्क्सवाद आज के हालात से निपटने के लिहाज से न केवल प्रासंगिक बल्कि केंद्रीय महत्व की चीज है, इसे समझने के लिए समाज व्यवस्था की सतह के नीचे उतरकर देखने की जरूरत है । हालात को जस का तस मंजूर कर लेने की जगह गहरे डूबकर उसको समझने से ही समस्त विज्ञान का विकास हुआ है ।
मार्क्स ने खुद कहा है कि मौजूदा की खुद की व्याख्या या किसी समाज की खुद के बारे में उसकी धारणा को स्वीकार कर लेने से सवालों के जवाब नहीं मिलते। सामाजिक स्थितियों की तह में मौजूद यथार्थ की साफ समझ के लिए उनसे अलग जगह देखना पड़ता है । यथार्थ की संरचना के बुनियादी संबंधों को भी उजागर करने वाली पद्धति को अपनाना होगा । पूंजीवादी व्यवस्था की छानबीन के लिए मार्क्स ने इसी पद्धति का इस्तेमाल किया था । इस पद्धति के तीन पहलुओं का उल्लेख संपादक को जरूरी लगता है । सबसे पहली चीज है- इसका अमूर्तन, इसके बाद स्थिति के विश्लेषण में द्वंद्वात्मकता और साथ ही इसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य ।
पूंजीवादी व्यवस्था के मूलभूत संबंधों के विश्लेषण में ‘पूंजी’ के पहले खंड में अमूर्तन का उनका इस्तेमाल सर्वाधिक प्रत्यक्ष है । इसका मकसद इन संबंधों की अंतर्वस्तु को उद्घाटित करना था । किसी भी परिघटना में मौजूद सभी जटिल कारकों को ध्यान में रखने से उसके सबसे महत्व के तत्वों का विश्लेषण करने में सहूलियत होती है । इस नजरिए से किसी व्यवस्था की खास प्रवृत्तियों और कार्यपद्धति का खुलासा तो होता है लेकिन मात्र इतने से ही वास्तविक जीवन में उस व्यवस्था के काम करने की पूरी तस्वीर स्पष्ट नहीं होती । इससे केवल बुनियादी संबंधों का खुलासा होता है ।
खुद मार्क्स ने अपने ग्रंथ का चरम उद्देश्य ‘आधुनिक समाज की गति के आर्थिक नियमों का उद्घाटन’ बताया था । इस काम के लिए उन्होंने उदीयमान पूंजीवादी व्यवस्था की सतह के नीचे की कार्यपद्धति को उजागर करना चाहा और द्वंद्वात्मक पद्धति का विनियोग किया । तत्कालीन आर्थिक सिद्धांतों की आलोचना करते हुए प्रतियोगी पूंजीवाद के मूल में अवस्थित सामाजिक संबंधों पर जोर दिया । इन सामाजिक संबंधों के आधार पर ऐसी संरचना स्थापित होती है जो व्यवस्था की आर्थिक गतिकी को बहुत हद तक नियंत्रित करती है । माल-मुनाफ़ा, कीमत-मूल्य, श्रम, बाजार और पूंजी के बारे में प्रचलित राजनीतिक अर्थशास्त्रीय समझ को मंजूर करने की जगह मार्क्स ने इन सबको परिभाषित करने वाले सामाजिक संबंधों को खोल दिया । उनका कहना था कि पूंजी कोई वस्तु नहीं होती, बल्कि मनुष्यों के बीच का ऐसा सामाजिक संबंध है जो वस्तुओं की मध्यस्थता के जरिए बनता है । इन संबंधों को स्पष्ट करने की प्रक्रिया में उन्होंने व्याख्यायित किया कि इन बुनियादी संबंधों के आपसी अंतर्जाल से एक स्वनिर्भर संरचना का जन्म होता है जो उसके भागीदारों की गतिविधियों की सीमा तय करती है । लेकिन इसके साथ ही कुछ ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं जिनसे इस व्यवस्था की स्थिरता खतरे में आ जाती है ।
दूसरे शब्दों में कहें तो मार्क्स की द्वंद्वात्मक पद्धति ने पूंजीवादी व्यवस्था के आंतरिक तनावों पर नजर डाली । इसी को उसका अंतर्विरोध भी कहा जा सकता है ।
इन अंतर्विरोधों या तनावों के चलते एक तो संरचना में लगातार बदलाव जरूरी हो जाता है । दूसरे इस बदलाव की समूची प्रक्रिया में मनुष्य और उसके समाजार्थिक और राजनीतिक संदर्भों की अंतर्निहित पारस्परिकता का खुलासा भी होता है । इस प्रकार अमूर्तन के सहारे अगर मार्क्स पूंजीवादी संबंधों की बुनियादी संरचना और उसके केंद्रीय तत्वों को स्पष्ट कर पाए तो द्वंद्वात्मक विश्लेषण पद्धति को उसके साथ जोड़ देने से पूंजीवाद की गति उजागर हुई । उन्होंने पूंजीवादी संबंधों की गति को विशिष्ट माना लेकिन इसे उसके विगत और आगामी समाजार्थिक निर्मितियों से जोड़ा । सामंती समाज के अंतर्विरोधों से पूंजीवाद का उदय हुआ । इसके अंतर्विरोध इसे ऐसी दिशा में ले जा रहे हैं जहां इस सामाजिक व्यवस्था के अतिक्रमण में ही समाधान निहित है । यह अंतर्विरोध वर्गों के टकराव में अभिव्यक्त होता है । सामंती समाज में उदीयमान पूंजीपति वर्ग का टकराव जब सामंती कुलीनों से हुआ तो उसने नई सामाजिक व्यवस्था के समर्थन में अन्य वर्गों का साथ लेना चाहा। लेकिन नई सामाजिक व्यवस्था में नये प्रभुत्वशाली वर्ग का उद्भव हुआ जो पुरानी सामंती व्यवस्था में भी आजादी के लिए लड़ते रहने वालों के विरोध में खड़ा हो गया । वर्गीय टकराव के समाधान की जगह पूंजीवाद की स्थापना से बस यह टकराव और साफ हो गया । व्यक्ति की स्वतंत्रता और अवसर की समानता का नारा जल्दी ही मजदूरों की मेहनत से अतिरिक्त मूल्य चूसने वाली उत्पादन पद्धति के सहारे मुनाफ़ा कमाने की स्वतंत्रता में बदल गया । बीच के वगों को ऊपर या नीचे के वर्ग में शामिल होने की होड़ में धकेल दिया गया ।
इससे पहले के सामाजिक ढांचों में सामाजिक वर्गों की अंतर्निहित विषमता को मान लिया गया था इसलिए बुनियादी आर्थिक संबंध छिपे रहते थे । प्राकृतिक विषमता की विचारधारा व्यवस्थागत विषमता को वैध ठहराने के काम आती थी । सबकी सामाजिक हैसियत से उनकी भौतिक स्थिति और व्यवस्था में उनकी जगह तय होती थी । ऐसा माना जाता था कि भौतिक विषमता एक वर्ग को दूसरे वर्ग के सदस्यों से अलगाने वाली किसी दैवी या प्राकृतिक विषमता से व्युत्पन्न है । इसके विपरीत पूंजीवादी व्यवस्था ने इस विचारधारा को तो खारिज किया लेकिन भौतिक विषमता बनी रही । अगर सभी सदस्य स्वतंत्र और समान हैं तो पूंजीवादजन्य यह विषमता कहां से पैदा हो रही है? आराम, ऐश और संतुष्टि तो पूंजीपतियों को सुलभ है जबकि कामगार के हिस्से में कमरतोड़ परिश्रम, न्यूनतम जीवन-स्तर और अलगाव आता है । मार्क्स के मुताबिक वर्ग के आधार पर भौतिक स्थितियों में इस भारी फ़र्क का मतलब कि सभी भागीदारों को इसकी असलियत का पता चल सकता है । उनके ग्रंथ का मुख्य काम यही था- पूंजीवादी संबंधों के गुप्त यथार्थ की व्याख्या और उस नियम की खोज जिससे पूंजीवाद अपने से पहले और बाद की समाज व्यवस्था से जुड़ा हुआ है ।
पहले ही खंड के आरम्भ में पूंजीवाद को उसके अतीत और भविष्य से जोड़ने वाली चीज के रूप में वे मानव श्रम की पहचान करते हैं । वस्तुओं के मूल्य के साथ यह मानव श्रम अभिन्न रूप से जुड़ा रहता है । पूंजीवादी संबंधों के तहत मूल्य का रूप खास तरह का हो जाता है । उसमें उपयोग मूल्य के मुकाबले विनिमय मूल्य को प्रमुखता प्राप्त हो जाती है । इसीलिए पूंजीवादी आर्थिक संबंधों में सामाजिक प्राथमिकता उलट जाती है । मनुष्य की जरूरतों को पूरा करना दोयम दर्जे की प्राथमिकता बन जाता है । उसकी जगह मुनाफ़ा बुनियादी जरूरत के बतौर सामने आता है । उत्पादन की प्रक्रिया और बाजार का सबसे प्रधान कार्यभार इस जरूरत को पूरा करना हो जाता है । नतीजा कि वस्तुओं की स्वतंत्र सत्ता कायम हो जाती है । उनका आपसी रिश्ता बनता है और मनुष्य की जरूरत को पूरा करने का उनका बुनियादी दायित्व गायब हो जाता है । पहले खंड में इसी को वस्तुओं की जड़ पूजा कहा गया है । जिनमें उपयोग मूल्य होता है उन्हें भी बाद में ऊंची कीमत पर बेचने के लिए खरीदा जाता है । आज के सट्टा बाजार में अधिकतर इसी प्रक्रिया का पालन होता है जिसके चलते कभी कभी कुछ कंपनियों के शेयरों की कीमतों में नकली उछाल आ जाता है । इससे भी अधिक अस्थिर वित्तीय तंत्र है जो क्रेडिट कार्ड के सहारे टिका रहता है । इसने ही 2007 के वित्तीय संकट को जन्म दिया था । पिछली महामंदी जैसी घटना को रोकने के लिए जो नियम कानून बनाए गए थे उनको खत्म करने का सिलसिला जारी है तथा बाजार में और अधिक अस्थिर तत्वों का प्रवेश हो रहा है । विनिमय मूल्य पर जोर देने से जो विकृति पैदा हुई उसके साथ ही मानव जनित जलवायु परिवर्तन का तूफानी असर भी झेलने का समय आ गया है ।
अगर उपयोग मूल्य आधारित उत्पादन पर जोर होता तो पर्यावरण को उतना नुकसान न होता और ऐसी नीतियां बनतीं जिनमें जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता न होती, ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों को प्रोत्साहित किया जाता । इसकी जगह हम सब अल्पकालिक विनिमय मूल्य के फंदे में फंसे हुए हैं । यही हाल मनुष्य की एक बुनियादी जरूरत घर का भी है । घरों का अभाव पैदा होता है टिकाऊ और सस्ते आवास की आम जरूरत और पूंजीवादी बाजार द्वारा इस जरूरत को पूरा करने की अक्षमता से । यह समस्या विकसित पूंजीवादी देशों में भी मौजूद है । इसी परिस्थिति का लाभ उठाने के लिए वित्त बाजार ने जो खेल खेला उससे हालिया संकट पैदा हुआ ।
पूंजीवाद के तहत मूल्य व्यवस्था में जो विकृति आती है उसके चलते उपयोग मूल्य को विनिमय मूल्य की सेवा में लगा दिया जाता है । मनुष्य की जरूरतों के लिहाज से इसका उलटा होना चाहिए । कहने का मतलब कि पूंजीवाद जिन वस्तुओं का उत्पादन करता है उनकी खपत के लिए सामाजिक जरूरत पैदा करता है, न कि मौजूदा सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन करता है । इसे हम महज एक बार इस्तेमाल होने वाली चीजों के उत्पादन में देख सकते हैं । अधिकाधिक ऐसी वस्तुओं का उत्पादन किया जा रहा है जिनकी बार बार मरम्मत करानी पड़े । फोन, कम्प्यूटर, टी वी जैसी उपभोक्ता वस्तुओं में सबसे नया संस्करण खरीदने की जरूरत पैदा की जाती है ।
सबसे आगे बढ़कर मूल्य से श्रम के जुड़ाव से ऐतिहासिक घटनाओं के घटने में मानव कर्ता की केंद्रीय भूमिका उभरकर सामने आती है । आम तौर पर ‘पूंजी’ पर विचार करने वाले लोग मार्क्स के विश्लेषण के इस पहलू की उपेक्षा करते हैं । इस ग्रंथ में पूंजीवादी सामाजिक संबंधों की कार्यपद्धति का विश्लेषण किया गया है । इसमें इस व्यवस्था की संरचनागत प्रवृत्तियों और गतिविज्ञान पर ध्यान दिया गया है । इस संदर्भ में व्यवस्था के भीतर मौजूद वर्ग संबंधों को प्रस्तुत किया गया है । वर्ग हितों के टकराव को उस तरह प्रस्तुत किया गया है जिस तरह वे व्यवस्था के भीतर नजर आते हैं । इसमें संघर्ष और टकराव का आवाहन नहीं है । यह ग्रंथ ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ से अलग है । फिर भी मूल्य के साथ श्रम को जोड़कर मार्क्स ने इस सवाल को उठा दिया कि मानव श्रम के उपयोग और दिशा को कौन निर्धारित और नियंत्रित करेगा । जब उन्होंने कहा कि अब तक का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है तो वे समाज के बने रहने के साधनों का उत्पादन करने वाले मानव श्रम पर नियंत्रण की लड़ाई का ही जिक्र कर रहे थे । जब उत्पादकों का अपने ही श्रम पर नियंत्रण नहीं होगा तो वे उत्पीड़क वर्ग की इच्छा के अधीन होंगे । तब उनके श्रम के उत्पाद पर उनको नियंत्रित करने वालों का अधिकार होगा ।
मार्क्स ने मानव श्रम के सार को सचेतनता, क्षमता, सामाजिकता और सृजनात्मकता जैसे तत्वों के साथ जोड़कर देखा था, उन्होंने श्रम को मानवीय रूप में समझने की कोशिश की थी । जब उस पर श्रमिक का नियंत्रण नहीं होगा तो वह इस सार से अलगाव का शिकार हो जाएगा । किसी भी शोषक उत्पादन प्रणाली के लिए श्रमिकों की स्वतंत्रता पर और काम के दौरान उसकी मानवता पर रोक जरूरी होती है । सिद्ध है कि वर्ग संघर्ष के केंद्र में मानव अभिकर्ता का सवाल होता है । मनुष्य की गतिविधि के सहारे ही उत्पादक मानव श्रम जिंदा रहता है । समूचे इतिहास में वर्ग आधारित शासन के जरिए इसी कर्ता को शोषक लक्ष्य के लिए नियंत्रित और निर्देशित करने की कोशिश होती रही है । मार्क्स ने ‘पूंजी’ में इन व्यवस्थाओं में सबसे विकसित तंत्र की कार्यपद्धति को उजागर किया । दूसरी ओर शोषण और उत्पीड़न के बंधन से आजाद होने का उत्पीड़ितों का संघर्ष इतिहास को आकार देता रहा है । ये उत्पीड़ित लोग वर्ग-सचेत सृजनात्मक सक्रियता के सहारे अपनी सम्भावना को साकार करते हैं और समाजार्थिक उत्पीड़न के हालात से मुक्ति हासिल करते हैं । ‘पूंजी’ में इसका प्रत्यक्ष विश्लेषण तो नहीं है लेकिन उसके आगे पीछे के लेखन से मिलाकर देखने से बात साफ हो जाती है । उनकी ‘पूंजी’ को उनके समग्र लेखन से अलगाकर नहीं देखना चाहिए ।
संपादक का कहना है कि इस ग्रंथ के प्रकाशन के बाद के डेढ़ सौ सालों में पूंजीवादी संबंधों में बहुत बदलाव आए हैं । उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, इजारेदारी और दो विश्वयुद्धों के चलते समूची दुनिया में पूंजीवादी संबंधों का प्रसार हुआ । स्वचालन, रोबोटीकरण और तीव्र संचार प्रणाली के जो असर पड़े हैं उनका अनुमान 1867 में असम्भव था । फिर भी पूंजीवादी व्यवस्था की बुनियादी कार्यप्रणाली के बारे में मार्क्स ने जो कहा वह डेढ़ सौ सालों के बाद भी प्रासंगिक बना हुआ है । श्रम से अतिरिक्त मूल्य को हड़पकर मुनाफ़ा कमाने की अनंत खोज, अधिकाधिक मनुष्यता को अपनी गिरफ़्त में जकड़ने वाली लगातार फैलती हुई आर्थिक प्रणाली, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की असमाप्य बुभुक्षा से उत्पन्न आस्तित्विक संकट आदि की जड़ें उसी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में हैं जिसकी चीरफाड़ मार्क्स ने की थी । उनकी आलोचना का सब कुछ आज भी सही होना जरूरी नहीं । पहले संस्करण की भूमिका में ही मार्क्स ने लिखा था कि वर्तमान समाज कोई स्थिर परिघटना नहीं है । बदलते हुए प्रत्यक्ष यथार्थ के अनुरूप उनके विश्लेषण का भी नवीकरण करना होगा ।
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