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सिनेमा

‘लापता लेडीज़’ स्त्री विमर्श पर बनी हुई एक सशक्त फ़िल्म है।

प्रतिमा राज


‘लापता लेडीज़’ ये फ़िल्म देखिए और दिखाइए।
यह स्त्री विमर्श पर बनी हुई एक सशक्त फ़िल्म है।

ये फ़िल्म लेखक बिप्ल्व गोस्वामी की अवार्ड विनिंग कहानी पर आधारित है। आमिर खान प्रोडक्शन और किंडलिंग प्रोडक्शन के बैनर तले बनी इस फ़िल्म की निर्देशक किरण राव हैं। इस फिल्म में 2001 के भारत का गाँव दिखाया गया है।

भारतीय समाज में एक लड़की के चेहरे पर घूंघट डालकर उसकी पहचान को ढक दिया जाता और ससुराल भेज दिया जाता है। शादी करके उसे जिंदगी भर के लिए किस गाँव जाना है, किस पते पर जाना है ये तक मालूम नहीं होता, न ही वो अपने पति का नाम अपनी ज़बान पर ला सकती है। एक व्यक्ति, जिसका चेहरा और आवाज़ तक वो ठीक से पहचान नहीं पाती है, उसके साथ उसे सदा के लिए भेज दिया जाता है। घूंघट के पार क्या है उसे कुछ भी नहीं बताया जाता। पूरे समाज में उसकी उपस्थिति गायब है। इसी अनुपस्थिति से बाहर निकलने की कोशिश इस सिनेमा का विषय है।

“एक बार शादी हो गई तो अब आगे नहीं, नीचे देखकर चलो….”
इस संवाद के साथ शुरू होती है फ़िल्म ‘लापता लेडीज’। इसके बाद समाज में सदियों से गायब स्त्री की पड़ताल के साथ कहानी आगे बढ़ती चली जाती है। ये फ़िल्म वैसे तो दो गुम हुई दुल्हनों की कहानी है, लेकिन इस कहानी का दायरा बहुत ही बड़ा है। ये सिनेमा पूरे उत्तर भारत की महिलाओं के हजारों सालों से चली आ रही स्थिति को रेखांकित करती है।

शादी, जिस समाज में इतनी धूम धाम से मनाई जाती है, उसी समाज के एक बड़े हिस्से के लिए, उसका केवल दो ही अर्थ होता है: ‘दहेज और सुहाग रात’। इसी को घूंघट में लपेटकर एक लड़की को ससुराल नाम के किसी भी अंजान जगह पर भेज दिया जाता रहा है। ये फ़िल्म इस बात की ओर दर्शकों का ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करती है, कि शादी और उस पर बुने गयी सामाजिक संरचना में स्त्री की अपनी कोई पहचान नहीं होती है। जैसे किसी मंदिर के बाहर पड़ी हुए चप्पल पर किसी का नाम नहीं लिखा हुआ होता, जिसके पैर में जो चप्पल आ जाए वही उसकी हो जातीहै; यही स्थिति शादी में स्त्री की है। यह इस फ़िल्म में परिवार के एक बच्चे के माध्यम से दिखाया गया है।

इस फ़िल्म की कहानी बहुत ही सरल है, जिसे कई छोटी घटनाएं मनमोहक बना देती है। जैसे नायक दीपक के दादाजी का, चौकीदारी की नौकरी करने की वजह से आदतन ‘जागते रहो’ की पुकार लगाते रहना और भैंस का डम्भारना; पहली दुल्हन को, ससुराल का नाम जो किसी फूल के नाम पर था, याद दिलवाने के लिए, छोटू का तरह तरह के फूल का नाम बताकर पूछते रहना। फ़िल्म में कई बार दादाजी द्वारा जागते रहो की आवाज़ लगाना यूं तो कॉमेडी और सस्पेंस क्रिएट करने के लिए रखा गया है, लेकिन बार बार ये स्वर सुनकर ऐसा महसूस होने लगता है, जैसे सदियों से सोई हुई स्त्री को जगाने के लिए आवाज़ लगाई जा रही है। इस वाक्य का इस्तेमाल राज कपूर की फ़िल्म ‘जागते रहो’ की याद दिलाता है।

मंजूमाय और पहली दुल्हन फूल के बीच संवाद बहुत ही सरल और गहरा है। ये फिल्म प्रेम और संस्कार के नाम पर बेटियों को उसके अपने ही माता पिता के द्वारा, हजारों सालों से छले जा रही बात को उजागर करती है। इस दुर्गम काम को बड़ी ही सरलता से समाज के सामने रखने में लेखिका स्नेहा देसाई पूरी तरह कामयाब हुई हैं। माता पिता किसी भी व्यक्ति के लिए सबसे भावनात्मक संबंध होता है। वहाँ प्रश्न चिन्ह लगाने की न तो धर्म इजाज़त देता है न समाज, और न परिवार। ऐसे में इस सत्य को उजागर करते हुए कहानी में क्रांति और संवाद के नारा में बदल जाने की संभावना रहती है। जिससे इसकी पहुंच केवल बुद्धिजीवियों तक सीमित रह जाने का खतरा होता है। लेकिन ये फिल्म इस नारेबाजी से बचती हुई, जीवन के भीतर की कहानी का ताना बाना बुनते हुए इस दुरूह प्रश्र से अपने दर्शकों को रु बरु करवाती है, और आम जनमानस तक इस विषय को पहुँचाने में कामयाब होती है।

इस फ़िल्म की कहानी के केंद्र में दो नव विवाहित लड़कियाँ हैं, फूल और जया। दोनो ही शादी करके अपने अपने दूल्हे के साथ ट्रेन के एक ही डिब्बे में बैठी ससुराल जा रही होती हैं। दोनो के चेहरे पर घूंघट होने की वजह से अंधेरे में कुछ कन्फ्यूजन होता है, और फूल का दूल्हा दीपक, गलती से जया को लेकर ट्रेन से उतर जाता है। ससुराल पहुँचकर जब दुल्हन का घूंघट उठता है, तो बवाल मच जाता है।

समाज में दुल्हन खो देने की बदनामी के डर से दीपक के पिता सोचते हैं, कि सुबह इस दुल्हन को इसके पता पर पहुँचाकर अपनी वाली बहू को चुपचाप घर ले आयेंगे। इससे गाँववालों को कुछ भी पता नहीं चलेगा, लेकिन जया, जो माता पिता के दबाव में आकर शादी के लिए राजी हुई थी, इस गड़बड़ झाला का फायदा उठाकर, आगे की पढ़ाई करने के लिए देहरादून जाने का मन बना लेती है। इसलिए सबको अपना नाम और पता गलत बताती है। जिसकी वजह से परिवारवालों और पुलिस का खोजबीन गलत दिशा में भटक जाता है।

ऊधर फूल, जिसके साथ उतरती है वो उसका दूल्हा नहीं होता है। वो डरकर वहाँ से भाग जाती है। फूल को ससुराल का गांव पता ठीक से मालूम नहीं होने के कारण, वहाँ पहुँचना मुश्किल हो जाता है। लेकिन रात भर वो किसके साथ थी, समाज में इस बदनामी के डर से मायके वो लौटना नहीं चाहती। वो इस बात से भी घबराती है कि उसके ससुराल वाले भी उसे, रात भर कहीं बाहर रहने के कारण बदचलन समझकर अपनाने से इंकार न कर दें। एक डर समाज में बदनामी का और दूसरा डर, इस अंजान जगह जीने का।
इधर उधर भटकती हुई फूल, जिसके पास सहारा पाती है, वो मंजूमाय वहीं स्टेशन के पास टी स्टॉल चलाती है।
फूल हर दिन अपने पति दीपक का स्टेशन पर आ आकर इंतजार करती है, कि वो उसे ढूंढते हुए ज़रूर आएगा। उधर अपने गांव के स्टेशन पर दीपक हर दिन जा जाकर इंतजार करता है, कि फूल यहीं आयेगी और इस तरह कहानी आगे बढ़ती है।

इस सिनेमा में मंजूमाय एक बहुत ही सशक्त पात्र हैं, जो समय समय पर पहली दुल्हन फूल से पूरे समाज द्वारा लड़कियों के छले जाने पर और उसी छल पर स्त्रियों के गर्व करने की बात को उजागर करती हैं।
“बुड़बक होना शरम का बात नाही है, बुड़बक होने पर गर्व करना शरम का बात है”
“ई देश में लड़की लोग के साथ हजारों साल से एक फिरौड (फ्रॉड) चल रहा है, ऊका नाम है : भले घर की बहू बेटी “

ऐसे सशक्त संवाद इतनी सरलता से सिनेमा में आए हैं कि बहुत ही औसत दर्जे के दर्शकों को भी पसंद आते हैं। एक सीन में जब फूल, मंंजूमाय से ये जानने की कोशिश करती है, कि वो अकेले कैसे जीती है, तो मंजूमाय कहती है-
“खुद का साथ अकेले खुशी से रहना बहुत मुश्किल होता है फूल, हां पर ऊ सीख लिए तो फिर कोई तुमको तकलीफ नहीं पहुंचा सकता “

इस फिल्म में छाया कदम मंजूमाय के रोल में दर्शकों पर गहरा छाप छोड़ती हैं।

फूल, मंजूमाय के काम में हाथ बटाकर कुछ पैसा कमाने लगती है। गुजरते हुए दिन के साथ साथ उसके दिमाग में, लड़कियों की परवरिश को लेकर कई सवाल आने लगते हैं और धीरे-धीरे उसे समझ में आने लगता है, कि लड़कियों के लिए समृद्धि, आज़ादी और पहचान कितनी ज़रूरी है।

सिनेमा में एक तरफ स्त्री की गुलामी पर गहरा चोट करता हुआ संवाद और दूसरी ओर एकदम निश्छल प्रेम, बहुत ही सुंदरता से दिखाया गया है। फिल्म के बैकग्राउंड म्यूजिक में बार-बार हरमोनियम का इस्तेमाल, सीन में देसी एहसास को मनोरम बनाता रहता है।

सिनेमा के मुख्य नायक नायिका दीपक और फूल की भूमिका में, स्पर्श श्रीवास्तव और नितंशी गोयल ने बहुत ही सराहनीय काम किया है। वे दोनो ही पात्र कम उम्र के, कम पढ़े लिखे वो लोग हैं, जिनके मन में कोई छल प्रपंच नही है। दोनो ही बहुत मासूम और सच्चे इंसान हैं। दूसरी दुल्हन जया के रूप में प्रतिभा रंता ने भी अपना काम काफी अच्छा किया है।

पूरी फिल्म में थाना का सीन बड़े ही मनोरंजक तरीके से फिल्माया गया है। थाना के पहले ही सीन में इंस्पेक्टर मनोहर के रूप में रवि किशन की एंट्री बहुत ही शानदार तरीके से की गई है। स्क्रीन पर सौ के नोटों की गड्डी गिनते हुए, उसमे से एक फटी हुई नोट को निकालकर, मुंह में पान चबाते हुए रवि किशन नजर आते हैं, और बैकग्राउंड में बहुत ही सुंदर आवाज़ में लोक गायिका मीनू काले के गाने की आवाज आती है: रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे, मोहे मारे नजरिया सांवरिया रे….” और फिर सीन में गायिका भी दिखती हैं। गायिका के गाना बंद करते ही इंस्पेक्टर और भी गाते रहने का इशारा करके कहते हैं – “दस हजार कम किए हैं मैडम”। इस संवाद से शुरू में ही एक ऐसे भ्रष्ट इंस्पेक्टर का कैरेक्टर स्टैबलिश हो जाता है, जिसमे कला और स्त्री के लिए, थोड़े सम्मान की समझ है और उसके व्यक्तित्व का यही पहलू सिनेमा के अंत में निकलकर सामने आता है, जब वो दूसरी दुल्हन जया के पति प्रदीप सिंह को, पत्नी के साथ मनमानी करने से रोकने के लिए, और जया को आजाद करने के लिए, कानून की याद दिलाता है। वो कहता है- मैडम बालिग हैं, मनमर्जी की मालिक है। जबरदस्ती तो नहीं कर सकते ”
यही इस पूरे सिनेमा का निचोड़ है।

जया बहुत ही महत्वाकांक्षी और स्वाभिमानी लड़की है। वो थाना से निकलते समय, ससुराल से मिले हुए सोने का कंगन और मंगलसूत्र निकालकर इंस्पेक्टर के सामने टेबल पर रख देती है, और कहती है- ये मेरा नही है।

सिनेमा के अंत में थाना के सीन में तीन पक्ष साफ तौर पर दिखाया गया है। जया के रूप में एक महत्वाकांक्षी लड़की है, जो कुछ बनने के जद्दोजहद में है, प्रदीप सिंह के रूप में ये समाज है, जो लड़कियों को गुमराह करके गायब कर देता है और एक कानून है।

सिनेमा देखते हुए कई बार ऐसा महसूस होता है कि इसके संवाद भले ही बहुत सरल हों, लेकिन सदियों से खड़े किए गए स्त्री दमन के भुजंग पहाड़ की जड़ पर एक ज़ोर की कुल्हाड़ी चलाई गई  है। किरण राव ने इस सिनेमा का निर्देशन जितनी कुशलता से किया है वो क़ाबिल-ए -तारीफ़ है। ऐसी बेहतरीन फिल्मों को प्रोड्यूस करना आमिर ख़ान प्रोडक्शन के लिए कोई नई बात नहीं है। संगीतकार राम संपत ने बहुत ही कर्णप्रिय संगीत दिए हैं। ख़ासकर “ओ सजनी रे…..”

दर्शकों को बहुत खींचता है। वैसे सिनेमा में गाना जी ज़रूरत कभी महसूस नहीं होती है। सिनेमा का ग्राफ तब नीचे गिरने लगता है जब कृषि से संबंधित स्टीकी ट्रैप का मामला आता है और दीपक का दोस्त जया की ओर खिंचने लगता है। लेकिन उसी समय गाना “इस कन्या पे डाउट बा…” इस ग्राफ को संभाल लेता है। यहीं एक कुशल निर्देशक की तरह किरण राव नज़र आने लगती हैं।

जया, जो कि फूल से ज्यादा सुंदर और होशियार है और जो पंद्रह लाख का गहना के साथ यहाँ आई है, उसे छोड़कर परिवारवालों का फूल को तलाशना, समाज में मौजूद मनुष्यता को दर्शाता है। वहीं दूसरी ओर दीपक को फूल के साथ गुजारे गए दो दिन के प्रेम के प्रति समर्पण भी दर्शाता है। फिल्म ‘लापता लेडीज’ ये भी बताती है, कि स्त्रियों को अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए परिवार की महिला रिश्तेदारों को अपनी सहेली बनाने की कोशिश करनी चाहिए।

इस कहानी के दूसरे हिस्से में ये दिखाया गया है कि माता पिता, बेटी की शादी भर कर देने की जिम्मेदार पूरी करने के लिए, किस तरह लड़के के अहंकारी व्यवहार, या उसके परिवार पर बहू के मारे जाने का आरोप तक को, नज़रंदाज कर देते हैं। इसका ख़ामियाज़ा स्त्रियों को ताउम्र भुगतना पड़ता है।

शादी का पहला जोड़ा, जिन्हें सिनेमा के मुख्य हीरो हीरोइन कहा जा सकता है, बहुत ही कम उम्र के मासूम नवविवाहित जोड़े हैं। जिन्हें दुनिया से कोई मतलब नहीं। उनका अपना छोटा सा जीवन और निश्छल प्रेम है। जो कहीं न कहीं आज भी समाज में मौजूद है।

फ़िल्म की पूरी कास्टिंग बहुत ही मज़बूत है। सभी कलाकारों ने अपना काम ईमानदारी से किया है। मंजूमाय का फूल के साथ का अधिकतर संवाद स्त्रियों के लिए आँख खोलनेवाला है। इसके बावजूद अभी भी मंजूमाय का अपना कोई नाम नहीं है। ये बात इस ओर इशारा करती है कि मंजूमाय जैसी महिलाएँ भी इस समाज में अभी लापता ही हैं।

इस सिनेमा के गाने, “ओ सजनी रे…, और “मन करता है शाउट बा, ई कन्या पे डाउट बा…सुंदर और मनोरंजक हैं। अंतिम गाना, मराठी गीतकार स्वानंद किरकिरे द्वारा रचित “नया सफर है एक नया हौसला, बांधा चिड़ियों ने नया घोसला….” बहुत ही अर्थपूर्ण और स्त्रियों के लिए नया आयाम खोलती है। अरिजित सिंह की आवाज़ में जब “ओ सजनी रे…. गूंजती है तो मनुष्य के भीतर दबे कुचले प्रेम को जैसे जोर की आवाज लगाती है। ये जादू बिखेरने में अरिजित सिंह माहिर हैं।

ये फ़िल्म इस मान्यता को भी तोड़ती है कि बढ़िया फिल्म बनाने के लिए बड़ा बजट चाहिए। इस सिनेमा की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है, कि इसमें सदियों पुरानी बनाई गई सामाजिक व्यवस्था के नीचे, धंसी हुई स्त्री विमर्श की जड़ तक पहुँचकर, उसे रेखांकित करने की कोशिश की गई है। ये बात भी सिनेमा स्पष्ट रूप से सामने रखने में सफल रहा है कि ये स्त्री विमर्श दलित और सवर्ण दोनो में ही समान रूप से मौजूद है।

इस सिनेमा की प्रस्तुति जिस तरह से की गई है ये एक हरक्यूलिस टास्क है। जिसे किरण राव ने बखूबी पूरा किया है। इसके लिए वो और उनकी पूरी टीम निश्चय ही बधाई के पात्र हैं! सभी लड़कियों और महिलाओं को एक बार ये फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए।
इस सिनेमा के लिए निर्देशक किरण राव को लंबे समय तक याद किया जाएगा।


समीक्षक प्रतिमा राज, शैक्षणिक योग्यता : पत्रकारिता में डिप्लोमा
कार्य अनुभव : एफ. एम. ऑल इंडिया रेडियो पर RJ. IPTA के साथ कई सालों से संबंध.
कई कविताएँ और कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित. वर्तमान में वैवाहिक बलात्कार पर आधारित उपन्यास “ये चांद आधा है” पर कार्य. कई आलेख पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित.
मूल निवासी : दरभंगा, बिहार.
वर्तमान निवास : मीरा रोड, मुंबई.
संपर्क : 9892335459.

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