29 जनवरी लगने ही वाली थी। प्रयागराज के महाकुम्भ मेले में संगम नोज़ पर अचानक भीड़ उमड़ पड़ी, भगदड़ मच गयी। घटना के लगभग 10 घंटे बाद जारी सरकारी आंकड़ों की अगर मानें तो 30 श्रद्धालु अपनी जानें गँवा बैठे हैं और 60 घायल अस्पतालों में इलाज़ करा रहे हैं। बदहवास लोग बेतहाशा भाग रहे हैं, यहाँ से वहाँ, इस आस में कि अपने अजीज़ों का कुछ तो हाल मालूम कर सकें, यदि नहीं रहे इस दुनिया में, तो कम से कम उनका मातम तो कर सकें, उनका अन्तिम संस्कार तो कर सकें। घाट फिर से भर गये हैं, श्रद्धालुओं से।
एक शहर हुआ करता था, इलाहाबाद। इसी इलाहाबाद में प्रयाग भी फल-फूल रहा था और उसकी गंगा-जमुनी तहज़ीब भी। इलाहाबाद उत्सवधर्मी शहर था। मेले-ठेले इस शहर की आदत थे, पहचान थे। गुड़िया तालाब पर गुड़िया का मेला, शहर के अलग-अलग हिस्सों में लगनेवाले दधिकान्दो के मेले, दशहरे के विमानों के जुलूस, जगह-जगह होनेवाले भरत-मिलाप, लोकनाथ की होली, ठठेरी बाजार की होली, ईद के बाद लगनेवाला टर्र का मेला, कई जगह होनेवाले उर्स, मुहर्रम के दसों दिन निकलनेवाले जुलूस, विभिन्न चर्चों में क्रिसमस के मौके की सजावट, कहीं भी फट पड़नेवाली भीड़ में मज़हबी नज़रिये से लोगों को अलग-अलग पहचानना लगभग असम्भव होता था। हाँलाकि बीच-बीच में छिटपुट घटनायें होती रहती थीं जिससे शहर का माहौल कुछ दिनों के लिये बिगड़ता भी था पर यह ज्यादा दिन चलता नहीं था। सबकी राह फिर से हमवार हो जाती थी।
नफ़रत की लहरों पर चढ़कर सियासत आयी। इलाहाबाद विलुप्त होकर बन गया प्रयागराज। शहर कराह रहा है। घिसट-घिसटकर अपनी इलाहाबादियत बचाने की कोशिश कर रहा है। मेले-ठेले अब भी लगते हैं, जुलूस-जलसे अभी भी होते रहते हैं, ताम-झाम बढ़ते जा रहे हैं जैसे कोई एक समूह दूसरे पर बरतरी हासिल करने के लिये आमादा हो। सब कुछ हो रहा है पर कोई कमी खटकती ही रहती है। मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि पिछले कुछ सालों से ऐसा हो रहा है कि यदि किसी तारीख को हिन्दू और मुसलमान दोनों के त्योहार एक साथ पड़ जाते हैं तो साम्प्रदायिक सौहार्द्र के नाम पर मुसलमान अपना जुलूस-जलसा स्थगित कर देते हैं, गोया अगर एक ही दिन में दोंनों त्योहार पड़ गये तो अमन-अमान का मसला बनने से बचाने या कोई भी सम्भावित टकराव टालने की जिम्मेदारी सिर्फ मुसलमानों की है और इसलिये वही अपना कार्यक्रम टालते हंै। सरकार अपने संघी एजेन्डे पर चल रही है, मुसलमानों को दूसरे दर्जे़ का शहरी बना दिया गया है। ग़नीमत है कि दिखावे के लिये ही सही, उनका मताधिकार किसी तरह अभी भी सलामत है।
इस समय 2025 का महाकुम्भ चल रहा है, इसी नवनामधारी प्रयागराज में। मेरी सबसे पहली आपत्ति इस ‘महाकुम्भ’ नाम से है। कुम्भ का यह मेला तो, जहाँ तक हम लोगों ने पढ़ा है, अनादि काल से लग रहा है। ज्ञात इतिहास तो कम से कम हर्षवर्धन के काल से है ही। हमलोगों ने तो यही जाना है कि हर साल पौष पूर्णिमा से शिवरात्रि तक माघमेला लगता है, यही हर छठे साल अर्द्धकुम्भ में और हर बारहवें साल पूर्णकुम्भ या केवल कुम्भ में तब्दील हो जाता है। पर देश एवं प्रदेश में सत्तासीन सरकार प्रत्येक घटना एवं पर्व को ‘इतिहास में पहली बार’ और एक ‘ईवेंट’ बना देने में यकीन रखती है। यह मजबूरी थी कि वे कुम्भ को इतिहास में पहली बार घटी घटना तो बता नहीं सकते थे इसलिये 144 साल वाला जुमला उछाल दिया गया। दिलचस्प यह है कि इससे पहले के लगातार तीन कुम्भ के बारे में भी ऐसा ही कहा गया था कि वह 144 साल बाद लग रहा है। और इसी के चलते सम्भवतः इसे ‘महाकुम्भ का विशेषण दे दिया गया। इसके पहले भी 2019 के अर्द्धकुम्भ को ‘दिव्यकुम्भ’ कहकर प्रचारित किया गया था।
तो इसी ‘144 साल बाद लगने वाले महाकुम्भ’ को शासक दल ने दिल्ली चुनाव के लिये और आगामी उ0प्र0 विधानसभा चुनावों के लिये मौका-ए-ग़नीमत जाना। एक बात और, अगले प्रधानमंत्री के तौर पर अमित शाह और योगी आदित्यनाथ के बीच मीडिया में चल रही रस्साकशी के बीच योगी ने इसे अपने लिये सुअवसर भी जाना। तो वोटों की फसल काटने के ख्याल से सरकार ने जनता के गाढ़े पसीने से टैक्स के रूप में चूसे गये 7,300 करोड़ रुपये इस आयोजन पर पानी की तरह बहा दिये। एक वाज़िब सवाल यह भी बनता है कि क्या सरकार दूसरे धर्मों के उत्सवों में इस प्रकार जनता का धन बहाती है, कम से कम मुझे तो नहीं मालूम है कि किसी उर्स, किसी सिख संगत या इसाइयों, जैनों, बौद्धों या दलितों आदि के किसी उत्सव में भी सरकार यूँ ही खुले हाथों खर्च करती है। इस बड़ी धनराशि का पर्याप्त हिस्सा बड़े-बड़े विज्ञापनों में खर्च किया गया, 144 साल के जुमले के साथ इस कुम्भ को अप्रतिम बना दिया गया, देश-विदेश से लोगों का आह्वान किया गया, 40 करोड़ लोगों को कुम्भ का अमृत-स्नान कराने का वादा किया गया। नये-नये शब्दजाल फेंकने के माहिरों ने ‘शाही स्नान’ को ‘अमृत स्नान’ बना दिया। शायद उन्हें ‘शाही’ शब्द के मुसलमानी होने से चिढ़ थी। मुसलमान होने या मुसलमानियत से नफ़रत का पैमाना लबरेज़ हो गया था। मुसलमानों को कुम्भ के इतिहास में पहली बार महाकुम्भ क्षेत्र में प्रवेश से रोका गया, उन्हें कोई भी दुकान नहीं लगाने दिया गया। हद तो यह कि ऐसे एलान किये गये कि यदि किसी की गाड़ी का ड्राइवर मुसलमान हो तो वह अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद ले। पर लगे हाथ अपने काॅरपोरेटी दोस्तों को चाँदी काटने की दावत देने से मोदी/योगी नहीं चूके।
बहरहाल, जिन्हें बिना किसी प्रचार या बुलावे के आना था वे तो ‘अठन्नी के पत्रा’ पर आये ही (ज्ञातव्य है कि किसी कुम्भ की भीड़ को देखकर चकित किसी यूरोपीय पत्रकार ने मदन मोहन मालवीय जी से पूछा था कि इस मेले के विज्ञापन में कितना खर्च आया था। इस पर मालवीय जी का उत्तर था ‘अठन्नी का पत्रा’), स्नानार्थियोें का भारी हुजूम मेले की विज्ञापित भव्यता निहारने के लिये भी आया। हाँ, सजावट तो भव्य थी ही, धनप्रदर्शन की पर्याप्त सम्भावनायें भी विकसित की गयी थीं। मकर-संक्रान्ति का पहला स्नान सकुशल सम्पन्न हो गया। मेले की शरुआत तो साधुओं और कल्पवासियों से होती है, तो उनकी संख्या वैसी ही थी जैसे हर कुम्भ में होती है। उसके बाद शुरू हुआ वीआईपी/वीवीआईपी स्नानों का सिलसिला। नेता-परेता, सिने-कलाकार, अफसर-नौकर, मंत्री-संत्री सभी वीआईपी/ वीवीआईपी हो गये। हूटर बजाती गाड़ियों का काफ़िला स्नानार्थियोें को बच जाने के लिये चेताते हुये निकला जा रहा था। कहा तो यह गया था कि ये सुन्दर-सुन्दर घाट श्रद्धालुओं के लिये बनाये गये हैं पर उनपर कब्ज़ा था वीआईपी/वीवीआईपी लोगों का। वही नहा रहे थे, वही एक दूसरे को नहलाते हुये ‘माँ गंगा की गोद में किल्लोल’ कर रहे थे। होना तो यह था कि लोग सन्तों की सेवा करेंगे, उन्हें नहलायेंगे पर हो यह रहा था कि सन्त लोग एक दरबदर मंत्री को नहलाने में लगे थे। और उसी में उ0प्र0 मंत्रिमंडल की एक बैठक भी हो गयी और कुछ महत्वपूर्ण निर्णय भी ले लिये गये, गोया जनभावना को भुनाने का इससे बेहतर मौका हाल-फिलहाल तो नहीं मिलनेवाला था।
दिन बीतते गये, भीड़ का दबाव भी बढ़ता गया। लाख भ्रष्टाचार के बावजूद आईएएस/आईपीएस अफसरों की योग्यता में मुझे रत्ती भर भी सन्देह नहीं है। उन्हें संगम नोज़ का कुल क्षेत्रफल और उस जगह समाने वाले स्नानार्थियों की कुल संख्या का अन्दाजा जरूर रहा होगा। उन्हें सरकारी स्तर पर किये गये प्रचार के सम्भावित असर का भी अन्दाजा रहा होगा। उन्हें इस बात का भी अन्देशा रहा होगा कि लोगों में यह धारणा प्रबल रहेगी कि ‘अमृत तो संगम में ही बरसेगा’ इसलिये ज्यादा से ज्यादा भीड़ संगम नोज़ पर ही रहेगी। पर उनके भी हाथ बँधे रहे होंगे। भीड़ बढ़ती गयी और एक बिंदु पर जाकर सब कुछ भरभरा कर ढह गया।
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29 जनवरी आने के पहले कुम्भ क्षेत्र में तीन बार आग लग चुकी थी और इसी बहाने सुरक्षा को लेकर छोटी-छोटी कवायदें हो चुकी थीं। बताया जा रहा था कि एक पीपा का पुल खाली छोड़ देने का ही फायदा मिला कि कई दमकल गाड़ियाँ तेजी से घटनास्थल पर पहुँच सकीं और कोई बड़ा हादसा नहीं हो सका। लेकिन मौनी अमावस्या का ‘अमृत स्नान’ का मुहूर्त आने से पहले ही संगम नोज़ पर जो भगदड़ मची वह किसी के सँभाले न सँभली। भीड़ का आचरण व्यक्ति के आचरण से सर्वथा भिन्न होता है। करुणा, दया, विवेक आदि गुण व्यक्ति के होते हैं पर वही जब भीड़ में होता है तो उसका व्यवहार एकदम बदल जाता है।
इशिता मिश्रा के सहयोग से ‘द हिन्दू’ के मयंक कुमार ने अपने लेख में (1 फारवरी 2025) कुछ दृष्टान्तों को उद्धृत किया हैः-29 जनवरी को दोपहर के 11 बजे हैं, कुहरे में लिपटा अफरा-तफरी का माहौल है। 38 वर्षीय विशाल गौतम लखनऊ से निकले और पिछले 7 घंटे से रायबरेली में ट्रैफिक जाम में फँसे हैं। वह दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मेले- प्रयागराज के महाकुम्भ में जाने को बेचैन हैं। मेलास्थल से 135 किमी से अधिक दूर इस जगह पर खबरें हवा में तैर रही हैं कि सुबह-सुबह मेले में भगदड़ मच गयी। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 30 लोग अपनी जान गँवा बैठे हैं और 60 घायल हैं।
पेशे से बढ़ई, गौतम अपनी जेब से फोन निकालते हैं और अपनी सिसकती माँ से बात करते हैं, ‘‘भगदड़ मचने के बाद से हमारी पिताजी से कोई बात नहीं हो पायी है।’’ वह हताशा में बताते हैं ‘‘उनके गले में उनका पहचान-पत्र लटका है। मेरी कोशिश है कि मैं जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँच कर उन्हें ढूँढूँ।’’ वह अपनी गाड़ी से बाहर निकलते हैं और किसी दुपहिया वाले से लिफ्ट देने की गुजारिश करते हैं।
गौतम के माता-पिता, चाचा-चाची अपने दर्जनों पड़ोसियो के साथ कुम्भ के लिये निकले थे। गौतम बताते हैं कि मुझे पता था कि 45 दिनों के इस मेले में सबसे अधिक भीड़ मौनी अमावस्या के दिन ही होती है, इसलिये मैंने इस दिन जाने को मना भी किया था ‘पर वे लोग मेरी एक न सुने’।
वह बताते हैं कि, ‘‘भगदड़ मचते ही हमारे परिजन और पड़ोसी सब तितर-बितर हो गये। मेरी माँ ने बताया कि तीन घंटे तक एक-दूसरे को ढूँढने के बाद बाकी लोग तो मिल गये पर पिताजी नहीं मिल पाये।’’
सरकारी बयान यह है कि अखाड़ा मार्ग स्थित संगम नोज़ या अमृत-स्नान के लिये विशेष रूप से निर्मित घाट पर रात में एक से दो बजे के बीच गंगा, जमुना और मिथकीय सरस्वती के संगम में डुबकी लगाने के लिये विशाल जन-समुद्र उमड़ पड़ा। भीड़ बढ़ते ही लोगों ने बैरिकेडों पर चढ़ना शुरू कर दिया। जब वे बैरिकेड ढह गये तो लोग औरों को कुचलते हुये दूसरी ओर दौड़े। मृतकों एवं घायलों को मेला के और प्रयागराज के दूसरे अस्पतालों में पहुँचाया गया। हादसे के आँकड़े प्रशासन ने भगदड़ के 15 घंटे बाद जारी किये।
लोगों का कहना है कि वीआईपी और जिन लोगों ने अधिक पैसे दिये थे उन्हें किनारे तक बड़े आराम से पहुँचाया गया। पर आम लोगों को मौके पर पहुँचने के लिये कई-कई किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ा क्योंकि मेले के लिये 40,000 हेक्टेयर में बनाये गये इस तम्बुओं के नगर में जन-परिवहन की अनुमति एकदम नहीं थी।
आनन-फानन में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रशासन के उच्चाधिकारियों से मुलाकात की, आनेवाले ट्रैफिक को मेला-क्षेत्र के बाहर ही रोक दिया गया। अधिकारियों ने श्रद्धालुओं से कहा कि वे संगम नोज़ तक जाने की ज़िद न करें और गंगा के किसी भी घाट पर नहा लें। उनसे ‘अफवाहों’ पर ध्यान न देने की भी अपील की गयी। इस घटना के बाद ‘स्नान’ कुछ देर के लिये रुक ज़रूर गया था, पर उसी दिन दोपहर के बाद फिर चालू हो गया। स्नान कर रहे साधु-सन्तों और मठाधीशों के ऊपर हेलीकाॅप्टर से पुष्पवर्षा की गयी और घाटों पर जनसैलाब एक बार फिर उमड़ आया, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
पूरी अफरा-तफरी
भगदड़ के एक दिन बाद भी कुम्भ मेला में भ्रम और अव्यवस्था का माहौल बरकरार रहा। धनुसा, नेपाल के राजकुमार रौनियार अपनी बेबस पत्नी को पानी पिला रहे हैं, उनके हाथ भगदड़ में कुचल गये हैं। वह बताते हैं कि, ‘‘मेरी माँ (कैलाश देवी रौनियार) उस हादसे के बाद से ही लापता हैं। हमलोग उन्हें हर जगह तलाश कर रहे हैं, प्रशासन के लोगों से उनको खोजने का अनुरोध कर रहे हैं पर अभी तक उनकी कोई खबर नहीं मिली है।’’ रौनियार 80 श्रद्धालुओं के उस जत्थे का हिस्सा हैं जो 29 जनवरी के ब्रह्म-मुहूर्त में अमृत-स्नान के लिये नेपाल से आया था। वह बताते हैं कि उस समय संगम नोज़ श्रद्धालुओं के विशाल समूह से पटा हुआ था। वह अपनी याददाश्त से बताते हैं कि, ‘‘पूरा क्षेत्र तीर्थयात्रियों से भरा हुआ था। जो लोग डुबकी लगा चुके थे उनके बाहर निकलने के लिये कोई रास्ता नहीं बचा था। अचानक पीछे से दबाव बढ़ा। लोग गिरते-पड़ते, दूसरों को रौंदते हुये आगे बढ़ने लगे। हमारे साथ के सभी लोग इधर-उधर छिटक गये। जहाँ भी थोड़ी सी जगह दिखायी दी हम उसी ओर भागने लगे। एक घंटे से अधिक तक माहौल में सिर्फ चीखें ही गूँज रही थीं। ‘हर हर गंगे’ का उद्घोष ‘बचाओ बचाओ’ की चीखों में तब्दील हो चुका था।
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2वहाँ तैनात एक सिपाही अपनी याददाशत से उस भगदड़ का बयान करता है, ‘‘मैं किसी को डुबकी लगाने के लिये कह रहा था, तभी अचानक मुझे चीख-पुकार का शोर सुनायी दिया। मैंने पलट कर देखा कि लोग एक दूसरे के ऊपर गिरे जा रहे हैं। मैं अपनी जान बचाने के लिये भाग कर एक वाच टावर पर चढ़ गया और कम से कम 20 मिनट तक वहीं खड़ा रहा। मैंने मदद के लिये और और अधिक सिपाहियों को वहाँ लगाने की गुहार भी की।’’
प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि संगम नोज़ की ओर खुलनेवाले कम से कम दो अस्थायी फाटक बन्द रखे गये थे इसलिये मजबूरन भीड़ उन्हीं फाटकों पर टूट पड़ी जो खुले हुये थे। कुशीनगर, उ0प्र0 के 42 वर्षीय विजय यादव बताते हैं कि, ‘‘चूँकि फाटक बन्द थे इसलिये दूसरी दिशा से आते हुये कुछ लोगों से उनकी भिड़न्त हो गयी।’’ यादव बताते हैं कि उनके सात लोगों के जत्थे में से दो उम्रदराज़ महिलायें भगदड़ के समय से ही लापता हैं। ‘‘मैं तो किसी तरह निकल भागा लेकिन वे दोनों ऐसा न कर सकीं। हमलोगों से उनका सम्पर्क कट चुका है। बाकी बचे हमलोग भी सात घंटे तक अलग-अलग रहे, और खोया-पाया केन्द्र पर ही फिर से मिल सके।’’ उन्होंने बताया।
कुम्भ मेला में कम से कम 10 खोया-पाया केन्द्र हैं। एक सेन्ट्रल हब भी है जहाँ अधिकारी लोग निगरानी रखते हैं। वे लोगों की तलाश करके उनके परिजनों से मिलवाने की कोशिश मंे लगे रहते हें। इसके अलावा सैकड़ों हेल्प डेस्क भी हैं। यादव फिर अपनी याददाश्त का मुज़ाहिरा करते हैं, ‘‘भगदड़ के चार घंटे बाद तक अपने परिजनाें की तलाश में सैकड़ों-सैकड़ों लोग इन केन्द्रों पर भटकते रहे। चारों ओर पूरी अफरा-तफरी मची थी।’’
प्रयागराज के मोतीलाल नेहरू मेडिकल कालेज (सम्भवतः स्वरूप रानी नेहरू अस्पताल) के फर्श पर कटे-फटे जूते-चप्पलों, पानी की बोतलों और भगदड़ के शिकार हुये लोगों के दूसरे सामानों के अम्बार लगे हुये हैं। मुर्दाघर के पास एम्बुलेंसों की कतारें लगी हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के जगदेव राम अपनी खोई हुयी पत्नी को ढूँढने दूसरी बार मुर्दाघर आये हैं। वह बताते हैं, ‘‘कोई मुझे कुछ भी नहीं बता रहा है। कुम्भ मेला में अधिकारियों ने मुझसे इस अस्पताल में जाने को कहा। यहाँ मुझसे कुम्भ मेला क्षेत्र में जाने को कहा जा रहा है। मैं करूँ तो करूँ क्या?’’ कम से कम 50 हताश लोग सहमति में सर हिलाते हैं। जगदेव राम के बगल में ही खड़े एक सज्जन को उम्मीद है कि आस्था सब कुछ ठीक कर देगी। वह कहते हैं, ‘‘ईश्वर हम पर इतना निर्दयी नही हो सकता। हम कुम्भ मेला में उसी के लिये तो आये हैं।
मददगारों की कतार
ऐसे माहौल में ‘अतिथि देवो भव’ की भावना का असाधारण परिचय देते हुये श्रद्धालुओं के आश्रय के लिये शहर भर के स्कूलों और धार्मिक संस्थाओं ने अपने दरवाजे खोल दिये। कुम्भ मेला के झूसी क्षेत्र से कुछ ही मीटर की दूरी पर एक व्यवसायी मोहम्मद अनस, अनवर काॅम्प्लेक्स के करीब रहते हैं। उन्होंने 29 जनवरी की उस रात को लोगों के हुजूम को पहले संगम की ओर फिर हाइवे की ओर भागते देखा। उन्हें तुरंत समझ में आ गया कि कुछ बहुत गड़बड़ हो चुका है। अनस बताते हैं, ‘‘अनवर काॅम्प्लेक्स के जितने दुकानदारों को मैं जानता हूँ, सबको मैंने फोन किया, उनमें से अधिकतर मुसलमान हैं। पूरा बाजार खोल दिया गया ताकि लोग दुकानों में सो सकें। हमने उनको खाने के पैकेट और पानी मुहैया कराये।’’ उनका कहना है कि लगभग 1,500 लोगों ने 29-30 जनवरी की रात वहीं काटी। जबकि पिछले अकतूबर में हिन्दू मठाधीशों के सर्वोच्च संगठन, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद और दूसरे धार्मिक नेताओं ने घोषणा की थी कि वे कुम्भ मेला क्षेत्र में किसी गैर-सनातनी या उन लोगों को जो सनातन धर्म में विश्वास नहीं रखते, को न तो घुसने देंगे और न ही उन्हें वहाँ दुकान लगाने देंगे। प्रयागराज के स्टैनली रोड के रहनेवाले अदील हमज़ा बताते हैं कि उन्होंने खुद अपनी और अपने दोस्तों की 15 कारें श्रद्धाालुओं को रेलवे और बस स्टेशनों तक पहुँचाने के लिये लगा दी थीं। वह कहते हैं, ‘‘बहुतों के सामान, रुपये और यहाँ तक कि उनके कपड़े भी खो गये थे।’’
यादगारे हुसैनी इंटर काॅलेज के मैनेजर मोहम्मद मेहंदी काज़मी बतातेे हैं कि ऐसी बड़ी भगदड़ उन्होंने अपनी जिन्दगी में पहले कभी नहीं देखी थी। ‘‘हमारे छात्रों के घरवालों ने श्रद्धालुओं के लिये खाने और सोने का इन्तज़ाम किया, वे लोग एकदम निढाल हो चुके थे। उन्हांेने इतना ज्यादा खून देखा था कि उनके मुँह से बोल ही नहीं फूट रहे थे। वे एक कोने में बैठे रहे और दिन निकलने के बाद चले गये।’’ नख़ास कोहना के व्यापारी निहाल जायसवाल बताते हैं कि वहाँ के व्यापारियों ने श्रद्धालुओं के लिये लंगर खोल दिये। इलाहाबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कानून के छात्र अजय राज त्रिपाठी कहते हैं कि उनके कैम्पस में श्रद्धालु कुछ देर ठहरे थे और फिर अपने घर चले गये।
तीर्थयात्रियों का गुस्सा
श्रद्धालु बदइंतजामी की शिकायत करते हैं कि किसी भी घाट तक पहुँचने के लिये लोगों को 10 किमी तक चलना पड़ रहा है जबकि वीआईपी लोग डुबकी लगाने के लिये अपनी गाड़ी से घाट तक पहुँच जाते हैं। पश्चिम बंगाल के आसनसोल से आये एक श्रद्धालु अनिरुद्ध श्रीवास्तव की शिकायत है कि, ‘‘मैंने देखा कि बलुआ घाट की ओर से एक रास्ता था जो बन्द कर दिया गया था, आयकर विभाग का स्टिकर लगाये एक गाड़ी आयी तो वहाँ मौजूद पुलिसवाले ने उसके लिये वह रास्ता खोल दिया। भीड़ का संचालन कहीं भी सहज नहीं था।’’
सोशल मीडिया पर कई ऐसे वीडियो वाइरल हैं जिनमें लोग वीआईपी वाहनों के ड्राइवरों और पुलिसवालों से उलझ रहे हैं। नेपाल के सप्तारी से आये राज शाह बताते हैं कि, ‘‘मैंने ‘नो वेहिकिल जोन’ में पुलिस की गाड़ियों में बैठे परिवारों को घाट की ओर जाते देखा है।’’ कुछ लोग पुलिसवालों से भी गुस्सा हैं। देवरिया के 32 साला देबीस गिरि कहते हैं कि उनके पिता और चाची मौनी अमावस्या के दिन से ही लापता हैं। गिरि 13 लोगों के जत्थे में आये थे और उनमें से 31 जनवरी को केवल 7 लोग ही घर वापस जा सके। गुस्से से काँपते हुये वह पूछते हैं कि, ‘‘मैंने खोये हुये लोगों की प्राथमिकी दर्ज कराने के लिये कई थानों का चक्कर काटा पर पुलिसवालों ने मुझसे कहा कि ज्यों ही कुम्भ समाप्त हो जायेगा त्यों ही ये अस्थायी थाने भी बन्द कर दिये जायेंगे और सारी प्राथमिकियाँ कूड़े में डाल दी जायेंगी। अगर सारे रिकाॅर्ड बाद में नष्ट कर देने हैं तो ये थाने बनाये ही क्यों गये हैं?’’
ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य, अविमुक्तेश्वरानन्द सरस्वती मृतकों की संख्या छुपाने और सारे सन्तों को घंटों अंधेरे में रखने को लेकर राज्य सरकार को फटकारते हुये कहते हैं कि, ‘‘यदि हमलोगों को पता चल गया होता कि हमारे भाई लोगों की मृत्यु हो गयी है तो हम अमृत स्नान ही नहीं करते। हम लोगांे के स्नान कर लेने के बाद ही सरकार ने मृतकों और घायलों के आंकड़े जारी किये। उन्होंने हमारे साथ छल किया है।’’
1975 बैच के अवकाश-प्राप्त आईपीएस अधिकारी, विभूति नारायण राय ने वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, कुम्भ-क्षेत्र के बतौर 1989 के महाकुम्भ का संचालन किया था। वह बताते हैं कि आजादी के बाद पड़े 1954 के पहले महाकुम्भ में भगदड़ के बाद 1965 के कुम्भ के लिये एक ब्योरेवार यातायात योजना, आपातस्थिति में जगह को खाली करवाने की योजना, भीड़ नियंत्रण की व्यवस्था और तत्सम्बन्धी नियम लागू किये गये थे। वह कहते हैं कि ‘‘नियमों में कहा गया था कि भीड़ को किसी एक जगह रुकने नहीं देना है, अनावश्यक रूप से वीआईपी/वीवीआईपी आवागमन की अनुमति नहीं दी जानी है और यातायात के लिये आने और जाने के रास्ते अलग-अलग रखने हैं। इस साल इन सारे नियमों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन किया गया। वीवीआईपी लोग फोटो खींचने में व्यस्त थे और इसी बीच संगम नोज़ पर भीड़ इकट्टा हो गयी।’’ राय का मानना है कि यह पर्व अत्यधिक व्यावसायिक हो गया है। वह कहते हैं कि, ‘‘सरकार द्वारा इसका प्रचार बहुत बड़े पैमाने पर किया गया तथा दुनिया भर से लोगों को आमंत्रित किया गया था। सरकार की नियंत्रण-क्षमता की तुलना में भीड़ बहुत ज्यादा हो गयी है।’’
श्रद्धालुओं का कहना है कि आनेवाली भीड़ के मद्देनज़र उत्तर प्रदेश प्रशासन ने इस बार 8 स्थायी घाटों को मिलाकर कुल 41 घाटों का इन्तज़ाम किया था पर भीड़ संगम नोज़ पर ही जम गयी। श्रीवास्तव का कहना है कि ‘‘भीड़ संगम की ओर इसलिये बढ़ रही थी कि हर कोई यह मानकर चल रहा था कि अमृत-स्नान केवल वहीं फलीभूत होगा। एक यात्री से बातचीत में मुझे मालूम हुआ कि ‘संगम घाट’ की दिशा बताते हुये कई साइनबोर्ड लगे हुये थे। पर इस घाट की क्षमता तो बहुत थोड़ी थी। और दूसरे घाटों की दिशा बताते हुये भी साइनबोर्ड होने चाहिये थे।’’
बड़ी देर की मेहरबाँ आते आते
इस भगदड़ के चलते लानत-मलामत झेलने के बाद राज्य सरकार ने प्रबन्धन में ‘शून्य त्रुटि’ के लिये जोर लगाना शुरू कर दिया है। 30 जनवरी को मुख्य सचिव मनोज कुमार सिंह और पुलिस महानिदेशक प्रशान्त कुमार ने इन्तज़ामात का एक बार फिर से जायज़ा लिया। एक सभा के दौरान कुमार ने बताया कि, ‘‘आनेवाले अमृत-स्नान (3 फरवरी) में हमें अत्यधिक भीड़ को रोकना होगा। (इस प्रकार के छः मौके आते हैं जिनमें से फरवरी माह में तीन होंगे)। श्रद्धालुओं की भीड़ को नियंत्रित करने के लिये कई स्तर की बैरिकेटिंग करनी होगी और उसे दूसरे मार्ग पर भेजने की योजना को कड़ाई से लागू करना होगा।’’
पुलिस का दावा है कि भगदड़ के बाद से महाकुम्भ में वरिष्ठ अधिकारी नियुक्त कर दिये गये हैं। आपसी ताल-मेल बढ़ाने और भीड़ के प्रबन्धन के मद्देनज़र पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारियों की तैनाती सीमावर्ती विन्दुओं पर की गयी है। इसके अलावा यह भी बताया गया है कि जरूरत पड़ने पर तुरंत चिकित्सकीय सहायता के लिये 10 फस्र्ट-एड चैकियाँ कायम की गयी हैं जिनमें से प्रत्येक में एक बिस्तर भी है। नये निर्देशों के अनुसार अमृत-स्नान के लिये प्रयागराज आ रहे श्रद्धालुओं को जिले की सीमा पर ही रोक दिया जायेगा और केवल छोटे-छोटे समूहों में मेलाक्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति दी जायगी। पर इससे भी कुछ लोगों को अतिरिक्त कष्ट झेलना पड़ जायेगा। देवरिया, उत्तर प्रदेश के अंजनी पांडेय का कहना है, ‘‘मैं 25 किमी पैदल नहीं चल सकता। इससे तो बेहतर है कि मैं घर ही लौट जाऊँ।’’ पर यह भी मुश्किल है क्योंकि महाकुम्भ में आने और जाने के रास्तों पर बहुत भीड़ है। उनकी पत्नी कहती हैं, ‘‘यदि हमलोग वापस लौटने की कोशिश करें भी तो ट्रैफिक में फँस कर रह जायेंगे। हमें तो सिर्फ इन्तज़ार ही करना होगा।’’
29 जनवरी के हादसे जो लोग किसी प्रकार बच गये हैं उनके लिये भी घर का रास्ता बहुत लम्बा है। वैशाली, बिहार के 62 वर्षीय शालिग्राम सिंह प्रयागराज शहर के बाहर फँस गये हैं। वह बताते हैं, ‘‘मेरे पैसे खत्म हो गये हैं। पता नहीं कैसे हमलोग घर वापस जायेंगे।’’ वह अपने एक मित्र के फोन से और भी अधिक उद्विग्न हो रहे हैं, उसने बताया है कि वह भी प्रयाराज-वाराणसी मार्ग पर ट्रैफिक-जाम में फँस गया है और वाहन कछुये की चाल से आगे बढ़ रहे हैं। वह कहते हैं कि, ‘‘हम तो समझे थे कि यह यात्रा बड़े आराम से गुजरेगी क्योंकि आने के पहले हमलोगों ने बेतहाशा विज्ञापन देखे थे। लेकिन यहाँ तो कहानी ही कुछ और है।’’
हाँलाकि हर कोई बराबरी से प्रभावित नहीं हुआ है। बाराबंकी की स्मिता देवी मानती हैं कि हर किसी को अपनी जिम्मेदारी लेनी चाहिये। वह कहती हैं, ‘‘यदि आप एक पवित्र अनुष्ठान के लिये आते हैं तो आपको धैर्य भी प्रदर्शित करना चाहिये।’’ एक अन्य श्रद्धालु वीरेन्द्र सिंह कहते हैं कि वह चार दिनों से कुम्भ मेला में हैं और उन्होंने लाखों लोगों को देखा है। उनका कहना है कि,‘‘जहाँ इतने अधिक लोग इकट्टा है वहाँ ऐसी घटना तो घटनी ही है।’’
लेकिन जिन लोगों ने अपने अजीज़ों को खोया है उन्हें जब-जब इसकी याद आयेगी, केवल अफ़सोस और गुस्सा ही बढ़ायेगी।
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