समकालीन जनमत
पुस्तक

फासीवादी निजाम के ख़िलाफ़ सच कहने का साहस

आलोक कुमार श्रीवास्तव

 

अमीरों के खान-पान संबंधी चोंचले बहुत हैं। काजू की रोटी उन्हीं चोंचलों में से एक है। निम्न और मध्यवर्गीय लोगों के मन में इस रोटी के बारे में एक स्वाभाविक जिज्ञासा रहती है कि काजू की रोटी कैसी होती होगी और कैसे बनती होगी। जैसे काजू की रोटी जीवन-स्तर का एक रूपक है वैसे ही उसके बनने की प्रक्रिया भी। काजू की रोटी सिर्फ काजू से ही नहीं बन जाती, उसमें गेहूँ का आटा भी मिलाना पड़ता है। काजू का ‘रोटी अवतार’ गेहूँ के आटे के बिना संभव नहीं हो पाता। गेहूँ की रोटी औसत इंसान का पेट भरती है, काजू से पेट नहीं भरा जा सकता। काजू महँगा है। सबकी हैसियत की बात नहीं। रोटी सब खाते हैं। लोकतंत्र में भी रोटी सब खाते हैं लेकिन काजू की रोटी सिर्फ शासक-वर्ग खाता है। ख़ालिस काजू की रोटी नहीं बन सकती। थोड़ा-सा गेहूँ का आटा मिलाए बगैर काजू की रोटी बनना मुमकिन नहीं। सत्ता की मलाई में थोड़ा हिस्सा जो मौर्य जी, पटेल जी, निषाद जी, राजभर जी, यादव जी को मिलता है वह उसी काजू की रोटी में मिलाए जाने वाले आटे के अनुपात में होता है। काजू की रोटी का यह रूपक हमें बताता है कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा बस लोकतंत्र का धोखा बनाए रखने के लिए है। लोकतंत्र में, ख़ासकर पूँजीवादी लोकतंत्र में काजू की रोटी का यह रूपक बहुत मार्के का है। पूँजीवाद तो है, मगर थोड़ा लोकतंत्र भी उसमें मिला लिया है और खा रहे हैं काजू की रोटी हमारे हुक्मरान। हिंदी कविता के पाठकों के लिए काजू की रोटी का यह बेहतरीन रूपक खोजकर लाये हैं इस समय के अद्वितीय राजनीतिक कवि पंकज चतुर्वेदी। राजकमल से  वर्ष 2023 में प्रकाशित उनकी कविताओं का ताज़ा संकलन ‘काजू की रोटी’ वर्तमान दौर की सबसे प्रखर और मुखर राजनीतिक कविताओं के साथ राजसत्ता के अन्याय के विरोध में खड़े कवि की आवाज़ है।

 

वर्ष 2014 में भारत की केंद्रीय राजसत्ता में हुआ परिवर्तन और 2019 में उसकी पुनरावृत्ति देश के भविष्य के लिए बहुत नुकसानदेह बात थी। लेकिन देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा उस समय अपने भविष्य से अनजान था। इस संग्रह की शुरुआत इस विसंगति को दर्ज़ करने से ही हुई है। ‘चाँद कहता था’ शीर्षक से संग्रह की पहली कविता में कवि ने इस परिस्थिति पर अपनी उद्विग्नता दर्ज़ करते हुए मानों भविष्यवाणी की है – आऊँगा फिर कभी /अभी उद्विग्न है हृदय /आततायी की विजय-दुंदुभि/ सुन पड़ती है/ और मेरा देश/ उसके छल से अभिभूत/ हिंसकता पर मुग्ध/ किंतु अपने/ भवितव्य से/ अनजान है!

 

इस बदले हुए माहौल में नयी राजसत्ता द्वारा नागरिकों पर एक नयी राष्ट्रीयता थोपने की कोशिश की गयी है। ‘स्वाधीन भारत’ कविता में इस ख़तरे को महसूस करते कवि का प्रतिरोध और डर इन शब्दों में दर्ज़ हुआ है – सत्तर बरस के/ स्वाधीन भारत में/ मैं अपनी नागरिकता/ बदलना नहीं चाहता/ किसी का दरवाज़ा / खटखटाते डरता हूँ/ कि वह खोले और कहे : / हिंदू राष्ट्र में/ आपका स्वागत है!

 

कवि के इस डर का कारण वह ‘नई राजनीतिक शैली’ है जिसमें किसी की हत्या के लिए ऐसा माहौल बनाया जाता है कि हत्या करना एक स्वाभाविक कर्म लगने लगे। इस नई राजनीतिक शैली को वैधता प्रदान करने के लिए राजसत्ता ने ‘नया राजपत्र’ तैयार किया है जिसके मुताबिक अगर आप सरकार के समर्थक नहीं हैं तो आप देशद्रोही हैं। अल्पसंख्यक को पाकिस्तान-परस्त, आदिवासी को नक्सली और गरीब को काला-धन रखने का गुनहगार घोषित करना इस राजपत्र की जगजाहिर नीति है। सत्ता जनता की हर आवाज़ को दबाने पर आमादा है। ‘सत्ता की आपत्ति’ शीर्षक यह छोटी-सी कविता लोकतंत्र के दमन की नीयत और नीति को बखूबी उजागर करती है  – सत्ता की आपत्ति यह नहीं है/ कि आप क्या कह रहे हैं/ बल्कि यह है/ कि आप/ कह क्यों रहे हैं ।

 

सत्ता की ऐसी कार्यशैली के पीछे उसके शिखर पर बैठे व्यक्ति की अयोग्यता कहीं अधिक जिम्मेदार होती है। इस विषय पर कवि का एक समग्र प्रेक्षण ‘राजसत्ता की मुहर’ शीर्षक गद्य-कविता में देखा जा सकता है जहाँ कवि ने व्यक्ति की अनैतिकता को संस्था की अनैतिकता में बदलने की प्रक्रिया को कदम-दर-कदम दर्ज़ किया है। इस गद्य-कविता को पढ़ते हुए लाल्टू के कविता संग्रह ‘चुपचाप अट्टहास’ की कविताओं की सहज ही याद आ जाती है। यद्यपि पंकज चतुर्वेदी गद्य-कविताओं में अनुभवजन्य भावनात्मक अभिव्यक्ति को वरीयता देते हैं लेकिन मौजूदा भयानक राजनीतिक समय ने उनकी इस गद्य-कविता को बहुत नुकीला तेवर प्रदान कर दिया है।

 

इस संग्रह में कुछ कविताओं के शीर्षक कवि के पूर्ववर्ती साहित्यकारों की प्रसिद्ध रचनाओं पर आधारित हैं, जैसे – आत्महत्या के विरुद्ध (रघुवीर सहाय), मलबे का मालिक (मोहन राकेश), यही सच है (मन्नू भंडारी) इत्यादि। लेकिन शीर्षक की समानता के संयोग को छोड़ दिया जाए तो इन कविताओं पर पूर्ववर्ती रचनाओं का कोई और प्रभाव नहीं है बल्कि ये कविताएं अपने समय की विसंगतियों पर कवि की टिप्पणी हैं। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ कविता में कवि की कम पढ़ी-लिखी माँ आत्महत्या को ‘घटियाई’ अर्थात् निकृष्ट हरकत कहकर एक ऐसी सीख देती है जो कवि के किशोर-मन में स्थायी रूप से अंकित हो जाती है। ‘मलबे का मालिक’ कविता देश को बर्बाद करने वाले शासक द्वारा विरासत का रोना रोने पर केंद्रित है। यह छोटी कविता विगत एक दशक के शासन की हकीकत इन पंक्तियों में बयान कर देती है – शासन करने का/ एक ढंग यह है : /सब कुछ मिट्टी में/ मिला देना/ और फिर मलबे पर/ खड़े होकर कहना : / मित्रो! /हमें यह विनाश ही/ मिला है/ विरासत में । ‘यही सच है’ कविता में देश के मौजूदा शासकवर्ग की मंशा और उस मंशा के खतरे को दर्ज़ किया गया है। कवि के शब्दों में शासक वर्ग की मंशा यह है कि – ये लोग भारत को/ एक कॉर्पोरेट/ हिंदू राष्ट्र में/ बदलना चाहते हैं’,  जब कि कविता के एक अन्य पात्र, हिंदी के एक बड़े कवि इस मंशा की सच्चाई के उद्घाटन के बाद की स्थिति के बारे में कहते हैं कि – अगर यह सच/ सबको पता चल गया/ तो ये लोग/ कहीं के नहीं रहेंगे!इसलिए एक बहुत बड़ा अमला इस सच को छिपाने के कारोबार में व्यस्त है जिसमें मीडिया, पुलिस, अफसर, उद्योगपति, अपराधी वगैरह सब शामिल हैं क्योंकि जनता को सच पता चलते ही उनका तिलिस्म उखड़ जाएगा।

 

भाजपाई सत्ता तंत्र द्वारा गर्वपूर्वक जिस नये भारत के निर्माण का दावा किया जाता है उसकी विशेषताओं की शिनाख़्त ‘काजू की रोटी’ की अनेक कविताओं में बार-बार की गयी है। ‘नया भारत’ शीर्षक कविता में कवि इस नये भारत की विशेषताएं बताते हुए लिखता है कि यहाँ से – दो चीज़ें विदा कर दी गई हैं : / शर्म और संवेदना/ दो चीज़ें रह गई हैं : /तकलीफ़ और दहशत! इसी तरह, ‘यह इलाहाबाद है ही नहीं’ कविता में नये भारत के बाबत कवि ने बताया है कि – इसमें  दो चीज़ें/ बारी-बारी से/ मंच पर आती रहेंगी/ हत्या और हँसी । इन हत्याओं के बाबत अगर मंत्री से पूछा जाए कि हत्या क्यों करवा रहे हो तो वह कहते हैं कि पहले अधिक हत्याएं होती थीं, अब ‘हम कम करवा रहे हैं’। इस कमी के लिए जनता को सत्ता का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हत्या और हत्यारे का उल्लेख इस संग्रह की अनेक कविताओं में बार-बार आता है और ज़ाहिर है कि ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि यह वर्तमान राजसत्ता की पहचान बन चुका है। ‘उम्मीद के चँदोवे तले’ कविता में कवि ने हमारे समय की इस विडम्बना को दर्ज़ किया है जिसमें हत्यारे से उम्मीद की जा रही है – घर से दफ़्तर/ दफ्तर से बाज़ार तक/ लोग उम्मीद करते हैं /कि जो काम/ कोई नहीं कर पाया/ हत्यारा करेगा।    नये भारत की एक और विशेषता ‘मुकुटहीन’ कविता में बतायी गयी है – यह धर्म-प्रधान देश अब/ अशरण-शरण नहीं रहा। इस नये भारत में दु:ख की अभिव्यक्ति करना अपनी नागरिकता को खतरे में डालना है। ‘नया नियम’ शीर्षक कविता में कवि के शब्द हैं – दुख को जो कहेगा / नागरिक नहीं रहेगा!  फासीवाद और पूँजीवाद के गठजोड़ के शिकार भारतीय जन के प्रति कवि की पक्षधरता पूरे संग्रह में सर्वत्र देखी जा सकती है।  पूँजीवादी दौर में गरीबों के लिए जीवित रह पाना कितना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण हो गया है, ‘यह बात  पैसा जितना निर्णायक हुआ’ शीर्षक कविता बड़े मार्मिक तरीके से दर्ज़ करती है – पैसा जितना निर्णायक हुआ/ ज़िंदगी के लिए/ ग़रीब उतना ही/ अकेला हुआ/ उतना ही वध्य।

 

मौजूदा समय में छोटी-कविताओं की ताकत देखना हो तो ‘काजू की रोटी’ की कविताएं पढ़ना ज़रूरी है। इस संग्रह में शामिल हार, प्यार, जो भी कहता है, जब तुम मुझे पुकारते हो, अन्यथा, शासक की रुलाई, पैसा जितना निर्णायक हुआ, अन्याय छिपता है, हत्यारे जब माँग करते हैं, फ़िटनेस चैलेंज इत्यादि कविताएं पंकज चतुर्वेदी को छोटी कविताओं का उस्ताद साबित करती हैं। कुल मिलाकर, इस संग्रह की कविताएं वर्तमान समय में कवि की प्रतिरोधी भूमिका का बखूबी निर्वाह करती हैं। भारत की विगत लगभग एक दशक की राजनीतिक-सामाजिक घटनाओं पर कवि के हस्तक्षेप और टिप्पणी के रूप में ये कविताएं न केवल साहित्यकार के सामाजिक दायित्व को पूरा करती हैं बल्कि इन कविताओं के माध्यम से कवि ने फासीवादी-पूँजीवादी निजाम के खिलाफ बेलाग-लपेट सीधा-सीधा सच कहने का साहस भी दिखाया है।

 

 

पुस्तक : काजू की रोटी (कविता संग्रह), लेखक : पंकज चतुर्वेदी, प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स, कुल पृष्ठ : 168, मूल्य : 199 रुपए

 

 

 

 

 

 

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