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जी -20 सम्मेलन, भारत और प्रोपेगंडा

जयप्रकाश नारायण 

इंडोनेशिया के बाली द्वीप पर  15-16 नवम्बर 2022 को जी 20 देशों की एक समिट यानी बैठक हुई। चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा सहित भारत के प्रधानमंत्री मोदी और कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष शामिल हुए। इसके बाद अगले   एक वर्ष तक जी- 20 की अध्यक्षता भारत को करना है। मोदी सरकार इसपर जश्न मना रही है। ऐसा लगता है कि दुनिया के 20 बड़े देशों ने भारत को वैश्विक नेता और महाबली देश के रूप में स्वीकार कर लिया है और अमेरिकी बादशाहत छिन गई है। जबकि हकीकत यह है कि जी-20 की अध्यक्षता रोटेशन के आधार पर चलती है।

इसके पहले इंडोनेशिया के पास जी-20  की अध्यक्षता थी। जी-20 की अध्यक्षता एक साल के लिए होती है। इसी क्रम में भारत को  अध्यक्षता मिली है। एक दिसंबर 2022 से भारत जी -20  की अध्यक्षता नवंबर 2023 तक करेगा।

भारत में मोदी सरकार की विशेषता है कि वह हर घटना को इवेंट  बना कर मोदी की विशेष योग्यता के रूप में दिखाती है।

चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की खासियत है कि वे वैश्विक महाशक्ति, विश्व गुरु, ज्ञान और सभ्यता के श्रोत और वारिस के बतौर ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की विचारधारा को पेश करते हैं।

इसलिए  वैश्विक कूटनीति से संबंधित  सभी घटनाओं को जिसमें भारत का नाम जुड़ा हो  उसे अपने बौने नायकों की योग्यता, दक्षता के बतौर  पेश करने से बाज नहीं आते।

इसके द्वारा मोदी के इर्द-गिर्द एक चमत्कारिक आभामंडल रचने की हास्यास्पद कोशिश करते हैं। इसके ताजे उदाहरण के लिए आप मोदी द्वारा फोन करके यूक्रेन-रूस युद्ध रुकवाने के बेशर्म प्रचार को याद कर सकते हैं।

इसके अलावा मोदी सरकार हर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को चुनाव के लिए एक अवसर के रूप में देखती है।

गुजरात चुनाव में जगह-जगह बड़ी-बड़ी होर्डिंग  लगाकर यह दिखाने का प्रयास हुआ कि भारत को जी-20 की अध्यक्षता मिलना मोदी की योग्यता को वैश्विक स्वीकृति मिलना है। जबकि हकीकत इससे कुछ अलग दास्तां बयां करती है।
1973 में सर्वप्रथम 6 बड़े देशों ने  मिलकर जी -6 का गठन किया था। जिसमें अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, इटली और जापान शामिल थे। याद रखना चाहिए की 70 का दशक तूफानी समाजवादी क्रांतियों का दौर था।

दक्षिण पूर्व एशिया विद्रोह की लपटों में घिर  चुका था। वियतनाम, लाओस ,कंबोडिया में क्रांति को रोक पाना संभव नहीं था। सीआईए के सह पर 1967 में इंडोनेशिया में वामपंथी सरकार का तख्तापलट किया गया। करीब 9 लाख कम्युनिस्ट नेताओं, कार्यकर्ताओं का कत्लेआम हुआ और सैन्य तानाशाही कायम की गई।

यही सब लैटिन अमेरिकी देश चिली में हुआ। चिली में 1973 में अलेंदे की वामपंथी सरकार का सेना द्वारा तख्तापलट कराया गया। राष्ट्रपति अलंदे और महान कवि पाब्लो नेरुदा की हत्या कर तानाशाही क़ायम की गई। पूरी दुनिया में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों का लोकतंत्र विरोधी बर्बर अमानवीय चेहरा दिखाई दे रहा था। साम्यवाद  के विस्तार को रोकने के नाम पर लाखों लोगों की हत्याएं और  मानवाधिकार का हनन हो रहा था।

दुनियाभर में जनतांत्र, मानवाधिकार और न्याय के समर्थक बुद्धिजीवी, लेखक,कवि, कलाकार ,मानवाधिकार और राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता, युवा तथा आम नागरिक अमेरिकी ब्लाक के खिलाफ होते जा रहे थे। यूरोप के महत्वपूर्ण देश फ्रांस में 1967/ 68 के दरमियान छात्र युवा और विश्वविद्यालय क्रांतिकारी चेतना के केंद्र बने हुए थे।

एशिया, लैटिन अमेरिका, अफ्रिका के गरीब और पिछड़े मुल्कों की सीमाओं के बाहर भी अमेरिका और यूरोप में क्रांतिकारी जनवाद की लहर चल रही थी। ऐसा लगता था कि समाजवादी क्रांतियां साम्राज्यवाद के दरवाजे पर दस्तक दे रही हो और वित्तीय पूंजी के साम्राज्य का अंत होने वाला हो।

संभावित समाजवादी वैश्विक क्रांति के डर से साम्राज्यवादी मुल्क चिंतित हो उठे। इसलिए आगे के समय में इन देशों ने संगठित और योजनाबद्ध प्रयास द्वारा साम्राज्यवादी किले को बचाने और समाजवादी क्रांति को रोकने के लिए गठजोड़ की रणनीति पर आगे  बढ़े।

ऐसी परिस्थिति में बड़े (साम्राज्यवादी) देश  जो विश्व में वित्तीय साम्राज्यवाद के अगुआ थे, उनका चिंतित होना स्वाभाविक था। इस वैश्विक परिस्थिति में 1973 में जी-6 का गठन हुआ।

बाद में 1979 में कनाडा को शामिल कर जी- 7 देशों का समूह बनाया गया।
लंबे समय तक जी-7 के देश दुनिया के  गरीब, पिछड़े और गुलामी से आजाद हुए मुल्कों पर लोकतंत्र के नाम पर आर्थिक प्रतिबंध और युद्ध थोपते‌ रहे।
1990 में  सोवियत संघ के विघटन के बाद 1998 में रूस को भी इसमें शामिल किया गया। इस प्रकार जी -8 बना। जो विश्व साम्राज्यवादी पूंजी के साथ पश्चिमी मॉडल के लोकतंत्र और मानवाधिकारों का दुनिया में निर्यात करता रहा।

अमेरिका के नेतृत्व में विश्व के ढेर सारे देशों पर मनमानी आर्थिक नीतियां, सामरिक फैसले और प्रतिबंध लागू किए गए तथा छोटे-छोटे युद्ध संचालित होते रहे। 8 बड़े  देश राष्ट्र संघ का अपहरण कर आक्रामक युद्धलोलुप नीतियों को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता दिलाते रहे।

इसके लिए वैश्विक संस्थाओं जैसे डब्ल्यटीओ, आईएमएफ, विश्व बैंक, राष्ट्र संघ द्वारा दवाब डालकर विकासशील मुल्कों पर तरह-तरह की नीतियां थोपी गईं और अंतर्राष्ट्रीय संधियों के जाल बिछाए गए। एक ध्रुवीय दुनिया की शुरुआत हुई। इतिहास के अंत की घोषणा हुई।

एक विश्व आर्थिक व्यवस्था बनाने के लिए नव स्वतंत्र और विकासशील देशों में एलपीजी यानी उदारीकरण निजी करण और वैश्वीकरण की परियोजना संचालित की गई। जो मूलतः पिछड़े और गरीब मुल्कों के प्राकृतिक संपदा, खनिज भंडारों के दोहन और तकनीक के निर्यात पर आधारित थी। डालर एकाधिकार  ने बाजारवादी उपभोक्ता समाज का निर्माण किया।

2008 आते-आते अमेरिका और अमेरिकी अर्थव्यवस्था से नाभिनाल बद्ध  देश गंभीर आर्थिक संकट और मंदी के शिकार हो गए। बाजारवादी अर्थव्यवस्था का संकट उभर कर सामने आ गया। यह मंदी जाने का नाम नहीं ले रही है ।बल्कि और नए नए आर्थिक राजनीतिक संकटों को जन्म दे रही है।
इसी के साथ एशिया, लैटिन अमेरिका,  अफ्रीका में आर्थिक तौर पर कुछ नए देशों का अभ्युदय हुआ। जिन्होंने क्षेत्रीय स्तर पर अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दी। हालांकि इन देशों का आर्थिक ढांचा पूंजीवादी, साम्राज्यवादी, बाजारवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग है।

फिर भी ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिणी कोरिया, भारत-ऑस्ट्रेलिया , तुर्की, सऊदी अरब जैसे मुल्क नये आर्थिक शक्ति के रूप में विश्व पटल पर उभरे। जिन्होंने अमेरिकी वैश्विक एकाधिकार को चुनौती दी।
दूसरी तरफ एशिया में चीन के आर्थिक शक्ति के रूप में अभ्युदय से  साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था को कड़ी चुनौती मिली। चीन की विश्व बाजार में हिस्सेदारी  बढ़ती गई। जो अमेरिकी एकाधिकार के लिए चुनौती बना।

असाध्य मंदी ने जी-8 को मजबूर किया कि वह आर्थिक तौर पर विकासमान देशों को नए तरह के मंचों में समायोजित करें। जिससे उन देशों के संसाधनों के दोहन से विश्व वित्तीय साम्राज्यवादी अर्थ व्यवस्था को बचाया जा सके।

इस प्रकार जी-20 1999 मेंअस्तित्व में आया। इसमें पुराने जी-6 जी-7 और जी-8 के देश तो शामिल हैं ही। कुछ एशियाई, अफ्रीकी, लैटिन अमेरिकी देशों की उभरती अर्थव्यवस्थाओं  को लेकर जी-20 का निर्माण किया गया। जिसमें अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चीन, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इटली, दक्षिण अफ्रीका, तुर्की, यूके, यूएसए,  मेक्सिको, रूस, सऊदी अरब, कोरिया गणराज्य, जापान, इंडोनेशिया, ब्राजील और यूरोपीय यूनियन शामिल हैं।

जी -20 के निर्माण के समय उद्देश्य घोषित किया गया था  कि वैश्विक आर्थिक और वित्तीय संकट को हल करने के लिए‌  फायदेमंद नीतियों की चर्चा के होगी।

2009 में पिट्सवर्ग( यूएसए) में यूएसए द्वारा जी- 20 की मीटिंग  के उद्देश्य को स्पष्ट किया गया। जिसमें कहा गया कि टिकाऊ और संतुलित विकास के लिए जी -20 काम करेगा।

इसके अलावा 2011 कान्स( फ्रांस) में सहमति बनी कि अपनी नीतियों का समन्वय करने के लिए, राजनीतिक समझौता का निर्माण करना, जी -20 के देशों की जिम्मेदारी होगी।

वैश्विक आर्थिक अनन्योन्याश्रिता की चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक राजनीतिक समझौता करना ।

दुनिया के 65% आबादी, 79% वैश्विक व्यापार और कम से कम 85%  विश्व अर्थव्यवस्था का प्रतिनिधित्व जी- 20 के देश करते हैं।

जिनमें वित्त, व्यापार, निवेश, ऊर्जा, रोजगार,   भ्रष्टाचार उन्मूलन , विकास, कृषि प्रौद्योगिकी, नवाचार और डिजिटल अर्थव्यवस्था के मुद्दों सहित वैश्विक आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाली चुनौतियों से उबरने और दुनिया के प्रमुख मुद्दों को हल करने के लिए।

इसे दो चैनलों में बांटा गया है अर्थात वित्तीय ट्रैक और शेरपा ट्रैक।
इस प्रकार जी-20 की पूरी संरचना और जवाबदेही तय होती है। जी- 20 में इन देशों के केंद्रीय बैंकों के गवर्नर और वित्त मंत्री तथा यूरोपीय यूनियन के अध्यक्ष और उसके वित्तीय मामलों के मंत्री सदस्य होते हैं।

पूरे विवरण को गंभीरता से विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि जी-7 की सोची-समझी योजना के तहत जी- 20 का गठन किया गया है। जिससे अमेरिका के नेतृत्व में एक वैश्विक बाजार अर्थव्यवस्था का निर्माण हो सके।  विकासशील देशों के  प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को सुनिश्चित करने के लिए आर्थिक ढांचा का नियोजन होगा। जी-7 के सामने जो आर्थिक संकट है, जो मंदी है। उससे बच निकलने के लिए उसे विकासशील देशों सहित शेष दुनिया में अलग-अलग क्षेत्रों में पूंजी निवेश को सुनिश्चित किया जा सके।

इन देशों के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक ढांचे में बदलाव तथा आधुनिक तकनीकी ज्ञान  का प्रयोग करते हुए देशों की अर्थव्यवस्था को मूलतः साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के अनुसार डाला जा सके।

उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण  में अंतर्निहित  साम्राज्यवादी आर्थिक योजना के अनुरूप आर्थिक ढांचे को  समायोजित किया जा सके।

भारत के परिप्रेक्ष्य में हम देख सकते हैं कि श्रम कानूनों से लेकर सरकारी संस्थानों का निजीकरण प्राकृतिक संसाधनों सहित कृषि क्षेत्र तक के पुनर्गठन की कोशिश हो रही है।  शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार सब कुछ कारपोरेट पूंजी के हवाले किया जा रहा है।

 

इसलिए अगर किसी ऐसे संगठन की अध्यक्षता पिछड़े या विकासशील देशों को दिया जाए तो बड़े देश उसकी बांहें मरोड़कर  अपनी शर्तें लागू करायेंगे। तथा आर्थिक  ढांचे को साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के अनुसार नियोजित करने के लिए बाध्य किया जाएगा। विश्व व्यापार संगठन और विश्व बैंक के दबाव हम पहले ही भारत में देख चुके हैं।

हमने पिछले 20 वर्षों में भारत में विकास के दिशा की प्राथमिकताएं बदलते देखे हैं। हाल के दिनों में तीन कृषि कानून लाए गए।क्रिप्टोकरंसी की बातें हो रही हैं। श्रम कानूनों में संशोधन किए गए हैं और भारत को डिजिटल बनाने के प्रयोग हो रहे हैं। मोदी राज  में इन सभी नीतियों को क्रूरता पूर्वक लागू होते हुए हम देख रहे हैं।

इसलिए भारत को जी -20 की एक साल की अध्यक्षता मिल रही है तो गर्वित होने का कोई सवाल  नहीं है। गुलाम मानसिकता के शासक वर्गीय समूहों को पिंजरे में बंद तोते की तरफ फुदकने और मालिक के इशारे पर मीठा गीत गाने दीजिए। भारत के लोकतांत्रिक देशभक्त नागरिकों के कंधे पर यह जिम्मेदारी है, कि जी-20 की अध्यक्षता के आभामंडल के बीच भारत को वैश्विक साम्राज्यवादी पूंजी के क्रीड़ा स्थल में न बदलने दें।

आज यही हमारे सामने बड़ा कार्यभार है। जिसे व्यापक जन जागरण के द्वारा पूरा करने की हरसंभव कोशिश करनी चाहिए। जो भारत की आज़ादी, अखंडता, सार्वभौमिकता और लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है।

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)
फीचर्ड इमेज गूगल से साभार 

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