समकालीन जनमत
संस्मरण

नागफ़नी का दोस्त (3)

( भानु कुमार दुबे ‘मुंतज़िर मिर्ज़ापुरी’ एक तरक्कीपसंद शायर रहे हैं। उनका जन्म 26 सितंबर 1953 को हुआ था। आज से दो साल पहले 28 जनवरी 2023 को उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली। अपने उतार-चढ़ाव भरे जीवन में उन्हें तीन बार मानसिक चिकित्सालय में भर्ती होना पड़ा था। एक बार वह टीबी में ऐसे मुब्तिला हुए कि सेकंड स्टेज तक पहुँच गए थे पर यह उनकी जिजीविषा ही थी जिसके चलते वह इन सारी बाधाओं को पार करते हुए अपना लेखन जारी रख सके। भाकपा(माले) के वह समर्पित कार्यकर्ता थे। छपने-छपाने के मामले में वह बेहद संकोची रहे इसलिए उनका केवल एक ग़ज़ल संग्रह ‘सांस्कृतिक संकुल’ से “क़तरे की रवानी” नाम से प्रकाशित हो सका। लेखक, अनुवादक  दिनेश अस्थाना ने  संस्मरण की इस शृंखला में बहुत डूब कर अपने यार ‘मुंतज़िर मिर्ज़ापुरी’ को याद किया है। ) 

 

‘‘ काँटों से मुन्तज़िर को भला ख़ौफ़ हो क्यूँकर रिश्ता है उसका नागफ़नी से क़रीब का ’’

मेरे ख़्याल से भानु का यह शेर ही उसकी शख़्सियत को पूरी तरह बयान कर सकता है। ज्यों-ज्यों हमारी दोस्ती आगे बढ़ी त्यों-त्यों मेरे सामने उसके विशिष्ट व्यवहार की गुत्थी भी खुलने लगी। भानु के पिताजी, आनन्द दुबे ताम्रपत्र-प्राप्त स्वाधीनता-सेनानी भी थे। जिन्हें नहीं पता है उन्हें यह जानकारी देना जरूरी है कि भारतीय स्वतंत्रता की रजत-जयन्ती वर्ष 1972 में भारत सरकार ने स्वाधीनता-सेनानियों कोे पेंशन देने का सिलसिला शुरू किया था जिसके लिये आवश्यक अर्हता थी स्वतंत्रता संग्राम में कम से कम 6 माह की जेल-यात्रा। अर्ह सेनानियों को सम्बन्धित जेल से उक्त आशय का सर्टीफिकेट प्रस्तुत करना होेता था जिसकी स्वीकृति स्वरूप उन्हें ताम्रपत्र देकर सम्मानित किया जाता था और वे पेंशन के हकदार हो जाते थे। 9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारम्भ होने के पहले ही 8 अगस्त को कांग्रेस के सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गये थे और अगले दिन बम्बई के गवालिया टैंक से आन्दोलन का शंखनाद अरुणा आसफ़ अली ने किया था। नेतृत्व-विहीन आन्दोलनकारी सरकारी सम्पत्तियों को आग के हवाले करने और तोड़-फोड़ करने पर उतर आये। उसी दौर मंे मिर्जापुर जिले की अहरौरा पुलिस-चैकी में भी आगज़नी हुयी जिसके बाद बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ हुयी थीं। गिरफ्तार होनेवाले लोगों में आनन्द दुबे भी थे। इसके बाद उन्होंने 10 माह मिर्जा़पुर जिला जेल में गुजारे थे।

भानु ने ही मुझे बताया था और उसके ग़ज़ल संग्रह ‘क़तरे की रवानी’ में भी उल्लिखित है कि जेल में उनकी मुलाकात श्री ब्रह्मदत्त दीक्षित ‘ललाम’ जी से हुयी। वह एक प्रखर स्वाधीनता-सेनानी थे और साथ ही साहित्य-साधक भी। रुचियाँ समान होने के कारण यह परिचय और मित्रता प्रगाढ़ होती गयी और यहाँ तक कि जेल से बाहर आने के बाद उनके घर में आना-जाना शुरू हो गया और कालांतर में उनकी बेटी लीला दीक्षित से दुबे जी का विवाह भी हो गया। इस विवाह से आनन्द दुबे के दो बच्चे थे- भानु और उसकी छोटी बहन मनु। मनु की शादी नहीं हो सकी और अभी भी उसी घर में रहती है। भानु ने ही कभी बताया था कि उनके नाना नेहरू जी के गौहाटी या शिलांग आगमन पर उनको दिखाने के लिये अपने साथ ले गये थे। लीला दीक्षित उस समय वहीं रहकर किसी विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करती थीं।

जब भानु का मेरे घर में आना-जाना मामूल हो गया और अम्मा को यह पता चला कि भानु लीला दीक्षित का बेटा है तो उन्होंने ही कभी बताया था कि वह अपने ज़माने की मशहूर गायिका भी थीं। जिन मुंशी परमानन्द मुख्तार के नाम पर हमारी गली थी वह हमारे ही पुरखे थे। घर बहुत बड़ा था, सैकड़ों लोग उस घर में रहते थे- कुछ खानदान के और कुछ रिश्ते के लोग। पुरुषों के अपने काम पर चले जाने के बाद दोपहर में घर में केवल औरतें ही रह जाती थीं। ऐसे में कई बार वक्त गुजारने के लिये लीला दीक्षित को बुला लिया जाता था, उनके गाने सुनने के लिये। खुद भानु के पिताजी अपनी अन्य विशेषताआंे के साथ ही शास्त्रीय संगीत के जानकार और एक अच्छे वायलिन-वादक भी थे। उस समय शहर में सिर्फ़ दो ख्यातिनाम वायलिन-वादक थे, हरिनन्दन वर्मा और आनन्द दुबे। वर्मा जी की विरासत उनके पोते राकेश को मिली और दुबे जी की भानु को। शहर के किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम में इन दोनों में से कम से कम एक की उपस्थिति अपरिहार्य थी। मेरा यह सौभाग्य है कि ये दोनों ही मेरे दोस्त रहे।

लीला दीक्षित की जब मृत्यु हुयी तो भानु की उम्र केवल 6 साल की थी। और मनु केवल 3 साल की अबोध बालिका थी। भानु को मैं अबोध नहीं कह रहा हूँ क्योंकि वह इतना याद रखने लायक था कि उनकी माँ ने आत्महत्या की थी। उसकी तफ़सील बताते हुये भानु कहता था, ‘‘मुझे याद है, मनु के सामने एक गगरा (पीतल या लोहे का बना हुआ छोटा सा घड़ा जो अक्सर मिर्जा़पुर के घरों में पीने का पानी रखने के काम में आता है) था। वह उसे हिला रही थी और साथ ही रोये भी जा रही थी, शायद भूख से बेहाल होकर। सामने बैठी अम्मा ने एक प्याले से कुछ पिया, छटपटायी और लेट गयी। उस समय घर में कोई और नहीं था।’’ हो सकता है कि यही वह पहला हादसा रहा हो जो भानु के मानस-पटल पर इस क़दर अक़्स हो गया हो कि वह ताज़िन्दगी उससे उबर नहीं पाया- नागफ़नी से उसका पहला साबका।

जहाँ तक मुझे याद है, भानु की नयी माँ इसी घर में आयी थीं, क़द-काठी, रंग रूप में बहुत सुघड़। उनका मायका पड़ोस की ही गली में था। कुछ उड़ता-उड़ता सुना था कि भानु के पिताजी उनका ट्यूशन करते थे, वहीं दिल मिले और फिर शादी हो गयी। वह सुंदर-मुंदर बालिका विद्यालय में अध्यापिका थीं। मंटू का जन्म इसी घर में हुआ था। जैसी कि आम धारणा है, सौतेली माँयें अपना सौतेलापन ज़ाहिर करती ही रहती हैं, पर मैंने न तो कभी भानु या मनु के प्रति उनके व्यवहार में कोई ख़ामी पायी और न ही दोनों में से किसी ने इन सम्बन्धों के हवाले से कोई शिकायत की। उल्टे वह इन दोनों का बहुत ख़्याल रखती थीं। चित्रा सिनेमा वाली घटना के बाद से भानु का यह व्यवहार आम हो गया कि वह कुछ दिनों के लिये बिना किसी को कुछ बताये ग़ायब हो जाता था। लगता था कि धीरे-धीरे घरवाले भी इसके आदी हो गये। पर जब बाद में मेरा उस घर में आना-जाना आम हो गया तो समझ में आया कि जिस अवधि मंे भानु घर में नहीं रहता, उसका ठिकाना मानसिक चिकित्सालय (पागलख़ाना) हुआ करता था, हाँलाकि भानु इसके बारे में मुझसे भी कोई बात नहीं करता था। उसके पिताजी इसे लेकर बहुत परेशान रहते थे। शायद इसीलिये जब उससे मेरी नज़दीकियाँ बढ़ी तो उन्हें सुकून ही हासिल हुआ होगा क्योंकि मेरी आवाजाही पर उन्होंने कभी कोई पाबन्दी नहीं लगायी। मेरे अलावा दूसरा कोई दोस्त भानु के घर के अन्दर आ-जा नहीं सकता था।

भानु के पिताजी ने घर की ज़मीन भानु के नाम से ही ख़रीदी थी और भानु को इस बात की जानकारी थी। मानसिक विचलन के चरम के दौरान भानु कभी-कभी भयंकर रूप से आक्रामक हो जाता था। एक बार तो ऐसा भी हुआ कि उसने सभी लोगों को घर से बाहर निकाल दिया था और वे लोग पास के ही किसी किराये के घर में रहने लगे थे। उसके पिताजी सुबह-सुबह नाश्ता लेकर आ जाते, भानु के लिये सिगरेट की एक डिब्बी अपने साथ लाते। हरी को सहेज़ रखा था कि भानु जब भी सिगरेट लेने आयें, उन्हें दे दें। हिसाब बाद में हो जायेगा। और भानु को हरी की दुकान तक जाने की जरूरत अक्सर पड़ ही जाती थी। शाम को काॅलेज से लौटने पर वह फिर भानु के पास आ जाते और देर रात में अपने अस्थायी निवास पर जाते थे। एक शाम भानु के घर से बहुत जोर-जोर से लड़ने की आवाजें़ आने लगीं। गली के सारे लोग अपने घरों से बाहर निकल आये, देखा भानु अपने पिताजी को काँख में दबोचे बारजे से नीचे फेंकने को उद्यत है और ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा है। घर अन्दर से बन्द था, कोई वहाँ जा नहीं सकता था। लोगों ने बाहर से ही भानु को समझाने की कोशिश की और दोनों किसी तरह बड़ी मुश्किल से अन्दर गये। अगले दिन घर में बाहर से ताला बन्द मिला, दोनों में से कोई घर में नहीं था। शायद कोई मानसिक चिकित्सालय फिर उसका ठिकाना बन गया था।

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