महेश कुमार
साहू और अल्लाम राजैया (saahu and allam rajaiah) ने 1982 तेलगु भाषा में कोमराम भीम पर एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा था। इसका अँग्रेजी अनुवाद अनिशेट्टी शंकर ने किया है जो 2018 में स्नेहा प्रचुरानालु(sneha prachuranalu)पब्लिकेशन ने प्रकाशित किया है। इसकी भूमिका प्रसिद्ध कवि वरवर राव ने बेहद कवित्वमय भाषा में लिखा है। ‘आरआरआर’ देखने से पहले जो कोमराम भीम से नहीं परिचित हैं उन्हें यह उपन्यास जरूर पढ़ना चाहिए। फ़िल्म से ही अगर उनका इतिहास जानकर रूमानी भावना में रहेंगे तो आदिवासी संघर्ष के प्रति अन्याय ही करेंगे। आजकल वैसे भी फ़िल्म को ही इतिहास के ज्ञान के रूप में जानने का चलन बढ़ा हुआ है।
कला पूरी तरह इतिहास नहीं होता है। यह कथन कलाकारों द्वारा प्रायः याद दिलाया जाता है। लेकिन, इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि जब आप इतिहास को कला के तौर पर प्रस्तुत करते हैं तो तथ्यों को आप नहीं बदल सकते। छूट व्याख्या और कथ्य से लिया जाता है न कि इतिहास में किसी समाज द्वारा किए गए संघर्ष और बलिदान से। यहाँ तक कि आप मिथकीय कहानियों में भी उसके मूलभूत कथ्य को नहीं बदल सकते। जैसे ,भारत में रामायण की अनेक कथाएँ हैं(यह उदाहरण इसलिए लिया है क्योंकि फ़िल्म में आदिवासी नायक को अल्लुरी सीताराम राजू को श्रीराम के रूप में प्रस्तुत किया गया है)। कथानक में अंतर पाया जाता है लेकिन, किसी भी रामायण में यह नहीं मिलता है कि रावण जीत गया और राम हार गए। इसी तरह जब कोई फ़िल्म बनाता है तो उसे भी इस मूलभूत सिद्धांत को याद रखना चाहिए। राजमौली ने अपनी फिल्म ‘आरआरआर’ में इसका ध्यान नहीं रखा। उन्होंने अपनी व्यावसायिक हित साधने के लिए आदिवासी संघर्ष और इतिहास के साथ छेड़छाड़ तो किया ही साथ में हिंदुओं के सांस्कृतिक वर्चस्व को आदिवासियों पर स्थापित करने का कुत्सित प्रयास भी किया है।
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फ़िल्म में कहीं भी निजाम के खिलाफ लड़ते हुए कोमराम को नहीं दिखाया गया है। कोमराम भीम की दोस्ती दिखायी गयी है सीताराम राजू के साथ। फ़िल्म में कोमराम सीता के दूत की तरह प्रस्तुत होकर सीताराम राजू को अंग्रेजों से बचाने निकल पड़ता है। एक तरह से फ़िल्म रामायण के कथा में प्रयोग करता हुआ दिखाई पड़ता है। फ़िल्म का प्रोमोशन किया गया था कोमराम भीम के नाम पर परंतु, पूरे दृश्य में भीम का चरित्र गौण बनकर रह जाता है। आदिवासियत का विचार कहीं से भी उभरता हुआ दिखाई नहीं पड़ता है। कुछ ही दृश्य हैं जहाँ आदिवासी दर्शन की झलक मिलती है। पहला दृश्य है जब बाघ से भीम माफी माँगता है कि वह उसका उपयोग अपने फायदे के लिए कर रहा है। दूसरा दृश्य है कोमराम के गीत का जब वह बच्ची से मिलने जाता है और तीसरा दृश्य है जब वह जंजीर में बंधा हुआ है और घुटने टेकने के स्थान पर गोंडी गीत गाता है जो कोमराम पर ही है। बाकी इतिहास के तथ्यों और आदिवासी संघर्ष को जिस तरह निर्देशक ने गौण किया है वह अपराध की श्रेणी में आता है। जिस देश में आदिवासी अपने जमीन बचाने के लिए रोज लड़ रहे हैं, विस्थापन झेल रहे हैं और नक्सली बताकर मार दिए जा रहे हैं वैसी परिस्थितियों में इस तरह का छेड़छाड़ उनकी गरिमा और इतिहास को मिटाने की कुत्सित प्रयास के रूप में ही देखा जाएगा। यही कारण है कि सबाल्टर्न इतिहासकार कहते हैं कि मुख्यधारा के लोग तमाम मजदूरों,स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों के संघर्षों को अपने में मिलाकर उसे सबऑर्डिनेट(subordinate)बनाकर उनके नेतृत्व, स्वतंत्र विचारधारा और दर्शन पर वर्चस्व(dominance)स्थापित करके अपने संस्कृति को प्रासंगिक बनाए रखते हैं। ग्राम्सी की भाषा में कहें तो यह ‘कल्चरल हेजेमनी’ बनाए रखना का साजिश है ताकि सबाल्टर्न आइडेंटिटी कभी अपना नेतृत्व राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित न कर सके।
(समीक्षक महेश कुमार, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया। स्नातकोत्
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