संजय कुमार श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार
होली में आपको इस बात का वाकई बुरा मानना चाहिये, यकीन मानिये इसका बुरा मानना जरूरी है. अगर आपको यह महसूस होता है कि होली के रंगढंग बहुत बदल गये हैं और आज वह जिस रूप स्वरूप में है वह नहीं होनी चाहिये, तो आपको इस बात का बुरा मनाना चाहिये. आप बुरा मानेंगे तभी तो इसे बदलने की कोशिश करेंगे.अगर आपकी यह मान्यता बन गयी है कि होली महज हुड़दंगियों का त्योहार है, इस बार रंग वंग से बच कर रहना है और घर में बंद रह कर या चंद मित्रों के साथ पीना-खाना है, आराम करना है, मिलने जुलने की बजाये एसएमएस और ई ग्रीटिंग्स या व्हट्सएप मैसेज और फाग की जगह डीजे ही काफी है. अगर आपको नहीं पता है कि मुहल्ले का होलिका दहन कहां हो रहा है या फिर आपको लगता है कि आपके बच्चे वैसी होली नहीं मनाते हैं जैसी कभी आप मनाया करते थे.
मनुष्यता की सबसे बडी धरोहर, सबसे बड़ी पहचान उसकी आजादी है तो होली उस पहचान को अभिव्यक्ति देने वाला सबसे बड़ा पर्व. रस, राग, रंग, उन्मुक्त हास- परिहास, साथ- संग, हल्ला, हुड़दंग, उत्साह, उछाह, अनुराग, उमंग जीवन के जाने कितने इंद्रधनुषी रंग समेटे हुए है यह त्योहार. होली अब भी हमारे समाज, वर्तमान जीवन, जीवन शैली में प्रासंगिक है. जरूरत है कि हम होली जैसे अपने त्योहारों की आज के तनाव और आपाधापी भरे तथा बेहिसाब कुंठाओं एवं अपनों से कटाव वाले जीवन की प्रासंगिकता से जोड़ कर देखें, पहचानें तो लगेगा कि होली कितनी जरूरी है, यह आज के जीवन के लिए कितना सार्थक त्योहार है. आज भी इसकी उपादेयता कम नहीं हुई है. बस जरूरत है इसके सामाजिक सरोकार के पहचानने की, परंपराओं से एक बार फिर जुड़ने की.
वक्त बदल गया है, समय और माहौल के साथ बदलना पडता है. शहरों का जीवन व्यस्तता से भरा पड़ा है, समय कहां है ? ऊपर से मंहगाई ने कमर तोड रखी है. इस सोच से धीरे धीरे हर तरह की परंपराएं जैसे मिटती गई वैसे होली की भी. वक्त के बदलाव की सारी मार हमारे त्योहार पर ही क्यों ? वह भी होली जैसे त्योहार पर जो लंगोट में फाग खेलने की आजादी देता है, जहां गुड़-भांग से भी काम चल सकता है, रंग नहीं तो टेसू के फूलों के उबाल वाला पानी चलेगा वह भी नहीं तो कीचड़, धूल, कालिख कुछ भी. नहीं आता ध्रुपद, धमार, चैता, फाग तो मस्ती में जोगीरा ही चिल्ला कर काम चला सकते हैं. जरा मन खोल कर अपने रोज की ओढ़ी हुई रोजमर्रा की जिंदगी से बाहर तो आइए. उत्सव का मन तो बनाइए, सही बात तो यह है कि त्योहार दिल से मनाए जाते हैं; खास तौर पर होली जैसे नितांत समाजवादी त्योहार. बाकी साधन संसाधन, समय और धन की कमी तो बस बहाना है.
कुछ बरस पहले तक होली तब महज नशाखोरी, ऊट्पटांग गैर पारंपरिक रंग और थोड़ी देर का हुड़दंग का नाम नहीं था, उसके गहरे सामाजिक सांस्कृतिक सरोकार थे. होली की मरती अर्थवेत्ता का बुरा मानिए और इस आज इस होली पर प्रण लीजिये कि होली की उत्सवधर्मिता को पुनर्जीवित करेंगे.