यूरोप में भीषण गर्मी पड़ रही है. तापमान बेकाबू है. गर्मी रोज नए रिकार्ड बना रही है. ऐसे आसार हैं कि ब्रिटेन में तापमान अब तक के रिकार्ड 38.7* सेंटीग्रेड को तोड़कर 40* से 41* सेंटीग्रेड तक पहुँच सकता है. फ़्रांस के कई हिस्सों में तापमान पहले ही 40* सेंटीग्रेड के रिकार्ड को तोड़ चुका है. लोग गर्मी से बेज़ार हैं. यह अखबारों की सबसे बड़ी सुर्खी बना हुआ है.
तीखी गर्मी के कारण दक्षिणी यूरोप के अधिकांश देशों- फ्रांस, स्पेन, ग्रीस और पुर्तगाल के जंगलों में लगी आग बुझने का नाम नहीं ले रही है. हजारों एकड़ जंगल जलकर राख हो चुका है. यूरोप के अधिकांश देश सूखे की मार झेल रहे हैं. ब्रिटेन से लेकर फ़्रांस तक और नीदरलैंड से लेकर बेल्जियम तक झुलसाती गर्मी के कारण इमरजेंसी के हालात पैदा हो गए हैं.
उधर, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुटरेस ने जर्मनी में 40 देशों के मंत्रियों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि मौसम परिवर्तन के कारण बाढ़, सूखे, साइक्लोन, तूफ़ान और जंगलों की आग के कारण आधी से ज्यादा दुनिया खतरे में है. इससे कोई देश बचा नहीं है. अगर इसे रोकने के लिए तुरंत उपाय नहीं किए गए तो दुनिया सामूहिक आत्महत्या की ओर बढ़ती दिख रही है.
उनकी यह चेतावनी अख़बारों और डिजिटल न्यूज साइटों पर कुछ घंटों के लिए सनसनीखेज सुर्खी की तरह दिखाई पड़ी और फिर उतर गई.
इधर, भारत भी मौसम परिवर्तन के नतीजों को भुगत रहा है. दिल्ली बारिश के मौसम में हीटवेव झेल रही है. पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार, बंगाल और कुछ हद तक पूर्वी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मानसून धोखा देता दिख रहा है. सूखे के हालात पैदा हो गए हैं. धान की रोपाई के रकबे में गिरावट की रिपोर्टें हैं. इससे पहले उत्तर भारत के कई राज्यों में मार्च-अप्रैल में अप्रत्याशित हीटवेव के कारण गेहूं की फसल प्रभावित हो गई.
दूसरी ओर, इन दिनों महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, कर्नाटक और कुछ हद तक राजस्थान और पश्चिमी मध्यप्रदेश के कई इलाकों में नदियाँ बाढ़ से उफन रही हैं.
हर दिन ऐसी ही रिपोर्टें दुनिया के और भी महाद्वीपों और देशों से आती रहती हैं. सालों भर आती रहती हैं. अफ्रीका के कई इलाके सूखे की चपेट में हैं. आस्ट्रेलिया पहले हीटवेव, फिर जंगलों की भीषण आग और अब बाढ़ से तंग है. अमेरिका के भी कई इलाके सूखे और जंगलों की आग से प्रभावित हैं.
यह साफ़ हो चुका है कि यह सब मौसम परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहा है. उससे भी ज्यादा यह साफ़ हो चुका है कि इसे ठीक करने के लिए सिर्फ गाल बजाने, एक-दूसरे पर इसकी जिम्मेदारी डालने और तू-तू, मैं-मैं करने और दिखावटी उपायों से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला है. सालाना COP सम्मेलनों में अच्छी-अच्छी बातें करने, कुछ दिखावटी ऐलानों और फ़ोटो-आप्स की सीमाएं और धोखाधड़ी उजागर हो चुकी है.
क्लाइमेट संकट इस सबसे टलनेवाला नहीं है. यूरोप से लेकर अफ्रीका तक और एशिया से दक्षिण अमेरिका तक हालात क्लाइमेट इमरजेंसी के हैं. इससे निपटने के लिए इन्क्रीमेंटल उपायों और घोषणाओं से कुछ नहीं होनेवाला है. आज इस क्लाइमेट इमरजेंसी से निपटने के लिए बड़े, सख्त और बुनियादी बदलाव लानेवाले फैसलों और नीतियों की जरूरत है.
इसे और टालने और नज़रंदाज़ करने का एक ही अर्थ है कि दुनिया और खासकर विकसित पश्चिमी देशों के नेता और कार्पोरेट्स कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं. वे जाने-अनजाने पूरी दुनिया को “सामूहिक आत्महत्या” की ओर धकेल रहे हैं.