लखनऊ। जन संस्कृति मंच की ओर से एकेडमी ऑफ़ मास कम्युनिकेशन कैसर बाग, लखनऊ में महफ़िल ए अफसाना का आयोजन किया गया जिसमें कहानीकार डॉ. इशरत नाहीद (असिस्टेंट प्रोफेसर मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी, लखनऊ कैंपस) ने अपनी दो कहानियाँ ‘मंजिल बे निशां’ और ‘सहेली’ का पाठ किया।
इन कहानियों के केंद्र में औरत थीं। नाहीद ने औरतों के जीवन संघर्ष, कशमकश और विडंबनाओं को अपनी कहानियों के माध्यम से उकेरा।
कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. वज़ाहत हुसैन रिज़वी ने की। उन्होंने अपने वक्तव्य में दोनों कहानियों की सराहना करते हुए कहा कि इनमें पारंपरिक विषयों को शामिल किया गया है और महिलाओं की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। ये वर्तमान समाज का दर्पण हैं। उन्होंने आगे कहा कि शुरू से ही स्त्री रचनाकारों के विकास में पुरुषों को बाधक माना जाता रहा है, लेकिन यह भुला दिया गया कि आखिर महिलाओं को प्रोत्साहित करने में भी पुरुषों का ही हाथ रहा है। इस संबंध में उन्होंने अब्दुल हलीम शरर, सज्जाद ज़हीर, शेख अब्दुल्ला आदि का नाम लिया।
वज़ाहत हुसैन रिज़वी ने कहानीकार की भाषा और लहजे की सराहना करते हुए कहानी में छिपे संदेश की ओर इशारा किया और कहा कि कहानी में वर्णित मुद्दे बहुत बुनियादी हैं और उन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
असग़र मेहदी ने अपने लिखित वक्तव्य के माध्यम से कहानियों पर राय व्यक्त की। उन्होंने आरम्भ में ईरान की जेल में क़ैद 2023 का नोबेल शांति पुरस्कार हासिल करने वाली नर्गिस मुहम्मदी से एकजुटता दिखाते हुए उनकी तत्काल रिहाई की माँग की, जिसका सभी ने समर्थन किया। कहानी “सहेली” के विषय पर उनका कहना था कि कहानी का मुख्य किरदार सकीना निचले तबक़े की स्ट्रग्लिंग वुमन है। उसके हालात को कहानी सामने लाती है। सकीना का पति उसे अक्सर “बंजर” कहता है और उसे बंजारन बना देने की धमकी देता है।
असग़र मेहदी ने “मंज़िल ए बेनिशाँ” पर अपने विचार रखते हुए कहा कि यह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसमें एक मध्यम वर्ग की औरत की घुटन भरी ज़िंदगी का दर्द बयान होता है। पति की अनुपस्थिति में उसे एक तूफ़ानी रात का सामना करना पड़ता है तो उसे गत 17 साल के वैवाहिक जीवन की कड़वाहट की याद आती है। लेकिन, कठिन परिस्थितियों में उसके शफ़ीक़ पिता का रवैया भी कष्टदायी रहा है। अपने वक्तव्य के अंत में असग़र मेहदी ने कहानियों में रैडिकल शिफ़्ट की ज़रूरत पर ज़ोर भी दिया।
जसम उप्र के कार्यकारी अध्यक्ष व कवि कौशल किशोर ने प्रगतिशील आन्दोलन के दौर में हिंदी व उर्दू लेखक की एकता की चर्चा करते हुए कहा कि आज के दौर में उनकी एकता बेहद जरूरी है। यह गोष्ठी इस दिशा में अच्छी व सही शुरुआत है। इशरत नाहिद की कहानियों पर उनका कहना था कि इनमें औरतों की जिंदगी के मसायल हैं। औरतों ने जो जगह बनाई हैं, वह मर्दाना समाज से जद्दोजहद करके बनाई हैं।
कहानी पाठ के बाद इस पर अच्छी चर्चा हुई। शुरुआत प्रोफेसर सबिरा हबीब ने की। उन्होंने कहानी की भाषा की सहजता की सराहना की और कहा कि यह कहानी महिलाओं के शोषण को दुनिया के सामने प्रस्तुत करती है। मुहम्मद अहसन ने कहा कि दोनों कहानियों का स्वभाव समान है। अफ़साना ‘मंजिले बे निशां’ दिल को छू लेने वाली है। सईदा सायरा ने कहानियों को नारीवाद की आवाज़ बताया। इस मौके पर विमल किशोर, भगवान स्वरूप कटियार, विनय श्रीवास्तव, सत्यप्रकाश चौधरी और शांतम ने भी अपने विचार व्यक्त किये। यह बात भी उभर कर आई कि कहानियों में औरतों का दुख दर्द, पति या मर्दाना समाज के द्वारा शोषण तो आता है लेकिन प्रतिकार का भाव नहीं उभरता। आज औरतें संघर्ष कर रही हैं। इस ओर भी कथाकार को ध्यान देने की जरूरत है।
कार्यक्रम का संचालन जन संस्कृति मंच (अवामी कल्चरल फोरम) की लखनऊ इकाई के सचिव फरजाना मेहदी ने किया। उन्होंने सभी के प्रति धन्यवाद भी ज्ञापित किया।
गोष्ठी मेँ डॉ जां निसार जलाल पूरी, डॉ. सरवत तक़ी, प्रोफेसर रेशमां परवीन, डॉ मूसी रज़ा, डॉ चन्द्रेश्वर, इंदु पाण्डेय, डॉ अवन्तिका सिंह, कलीम खान, राकेश कुमार सैनी, अशोक श्रीवास्तव, अजय शर्मा के अतिरिक्त हिंदी उर्दू के कई साहित्यकार व साहित्य सुधी श्रोता उपस्थित रहे।