डॉ. आंबेडकर की 133वीं जयंती के अवसर पर ‘ हम देखेंगे : अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान ‘ और भीम जन कल्याण समिति के द्वारा ‘ डॉ. आंबेडकर के सपनों का भारत’ कार्यक्रम का आयोजन गांव नाहरपुर रोहिणी सेक्टर 7 में स्थित भीम जन कल्याण समिति के प्रांगण और दफ्तर में हुआ।
कार्यक्रम के आरंभ में हेमलता महिश्वर और बजरंग बिहारी तिवारी ने संविधान की प्रस्तावना का पाठ किया जिसे कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने दोहराया।
इसके उपरांत कार्यक्रम का मंच संचालन करते हुए डॉ. टेकचंद ने सभी ग्रामवासियों को साझा संगठन (हम देखेंगे : अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान) के उद्देश्यों, महत्व व कार्यों के बारे में बताया । ग्रामवासियों के संज्ञान में यह बात लाई गई कि इस समय जो तानाशाही, सामंतवादी और मनुवादी सत्ता देश में काबिज़ है उसका राजनीतिक सांस्कृतिक सृजनात्मक प्रतिरोध यह सभी साझा संगठन करते हैं।देशभर में दलितों, पिछड़ों आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर हो रहे मनुवादी हमलों का सभी संगठन पुरजोर विरोध करते हैं।
कार्यक्रम के पहले विचार-सत्र में वक्ता डॉ. कवितेंद्र इन्दु ने वक्तव्य में कहा – जाति का विनाश आंबेडकर का मिनिमम एजेंडा था। आज अस्मितावादी लोग आंबेडकर का नाम लेकर अपनी जाति को मजबूत बनाने की बात कर रहे हैं। यह अंबेडकर विरोधी पंक्ति है। अंबेडकर ने इस बात को पहचान लिया था कि जाति के विनाश का संघर्ष अनिवार्य रूप से स्त्री-मुक्ति से जुड़ा हुआ है। यौनिकता पर नियंत्रण के जरिए ही जाति बनाए रखी जाती है। अंबेडकर जानते थे कि भारत में किसी भी सार्थक बुनियादी बदलाव के रास्ते में जाति सबसे बड़ी बाधा है। जातिगत चेतना के उन्मूलन के बगैर वर्गीय चेतना का विकास असंभव है। वर्ग और जाति के सवाल को एक साथ न जोड़ने से बहुत नुकसान हुआ है। दोनों संघर्षों को जोड़ा जाना चाहिए। आंबेडकर ने नायक पूजा को लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था – आज वह खतरा साकार हो गया है। लोकतंत्र ही संकट में है। अंबेडकर को पूजने के बजाय उन्हें समझने की और उनसे संवाद करने की जरूरत है।
डॉ. कुसुम वियोगी ने अपने वक्तव्य में ‘शिक्षा का महत्व’ , ‘स्त्री-शिक्षा’ , ‘लोकतांत्रिक-मूल्य’आदि बिन्दुओं पर अपनी बात रखी।
पहले सत्र के उपरांत हेमलता महिश्वर और अमोल मेश्राम की चित्रकथा – ‘सिद्धार्थ का गृह त्याग’ का विमोचन हुआ। हेमलता महिश्वर ने अपने उद्बोधन में कहा कि किसी भी देश का वर्तमान उसके इतिहास से निर्मित होता है। इतिहास की ठीक-ठीक जानकारी होना अनिवार्य है। हम काल्पनिक कहानियों पर अधिक और इतिहास पर उचित काम नहीं करते हैं इसलिए आज देश का वर्तमान ऐसा है।
हमने गौतम बुद्ध के जीवन पर एक कॉमिक तैयार की है जो ‘द बुद्धा एण्ड हिज़ धम्मा’ पर केंद्रित है। सिद्धार्थ के गृह त्याग को लेकर जो कहानी प्रचलित है, उस पर विश्वास करना कठिन है। अपने जीवन के 29 वें वर्ष में सिद्धार्थ ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। ज़रा सोचें कि राज परिवार के लड़के ने किसी को बुढ़ा होता हुआ न देखा होगा, यशोधरा ने राहुल को जन्म दिया तो क्या वह कभी बीमार भी न पड़ी होगी ?
इसलिए हमने सबसे पहले सिद्धार्थ के गृह त्याग पर काम किया।
‘द बुद्धा एण्ड हिज़ धम्मा’ नामक पुस्तक को चित्रकथा के रूप में लाने की योजना है जिससे हम इतिहास को रोचक तरीक़े से जान सकें। हम सबके घरों में इतिहास सम्मत किताबें होनी चाहिए।
दूसरे सत्र(कविता-गोष्ठी) का संचालन आशुतोष कुमार के द्वारा किया गया।
उन्होंने ने कविता सत्र की शुरुआत मुजफ्फर वारसी के इस शेर से की :
“कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है”
इस शेर और आज की युवा दलित कविता की भावभूमि एक जैसी है।
आमंत्रित युवा कवियों में- ममता गौतम, जावेद आलम खान, अशोक कुमार की कविताओं पर प्रतिक्रिया देते हुए आशुतोष कुमार ने कहा – दलित कविता की नई पीढ़ी ने कविता में सचेतन आक्रोश की वापसी संभव की है।यह आक्रोश केवल भावनात्मक नहीं है। इसके पीछे व्यवस्था की सुचिंतित और गहरी आलोचना है। उसकी बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने दिल को ही नहीं, दिमाग को भी झकझोरने का शिल्प ढूंढ लिया है।
इसके बाद डॉ. राजकुमारी राजसी ,अर्चना, सुमन ने अपनी कविताओं का पाठ किया ।
आमंत्रित कवियों की कविताओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए बजरंग बिहारी ने कहा कि घुटती हुई आवाजों के दौर में मुखर, दो-टूक और आक्रामक कविताओं की ज़रूरत है। आज पढ़ी गई कविताएं इस अपेक्षा पर खरी उतरती हैं। ये ‘कविताई’ की, ‘कला’ की परवाह न करके लिखी गई रचनाएँ हैं। ममता गौतम दलित-शोषित एकता पर बल देने वाली रचनाकार हैं। स्वामी अछूतानंद हरिहर की याद दिलाती उनकी वैचारिकी डॉ. आंबेडकर से संवाद करती है।
जावेद आलम ख़ान स्याह वक़्त में रोशन पंक्तियाँ लिखने वाले कवि हैं। उनकी कविताओं की रोशनी में हम आततायियों की, ‘अथनिक क्लींजिंग’ में जुटी सत्ता की बेहतर पहचान कर पाते हैं। नए और बेतरह चुभते हुए बिंब जावेद की कविता को विशिष्ट बनाते हैं – “वे हमारी चीख पर शिकारी की तरह मुस्कराते थे”। कलावतों, बुद्धिजीवियों के ढुलमुल रवैये की पहचान कराते ऊँची आवाज़ के निर्भ्रांत कवि ‘अशोक कुमार’ पूछते हैं कि क्या पंचनामा न होने से हत्याएं आत्महत्याओं में बदल जाएंगी ?
स्त्रीद्वेषी समय में स्त्री अस्मिता को स्थापित करने की आकांक्षा रचती डॉ. राजकुमारी राजसी मिथकों के खेल से सावधान करती हैं। उनका आह्वान है कि स्त्रियाँ निहत्थी न रहें। वे स्वयं ही कटार, बारूद, नेजा में ढल जाएं। अर्चना स्त्री को अनपढ़ बनाए रखने की मर्दवादी साजिश को अपनी कविता का विषय बनाती हैं जबकि ‘सुमन’ लोकतंत्र की बहाली की चिंता करती देशवासियों को समय रहते एकजुट होने, सन्नद्ध रहने की सलाह देती हैं।
ओजस्वी कवि टेकचंद आंबेडकर के संदर्भ से जाति-वर्ण के वायरस को, उस क्रॉनिक रोग का निदान (डायग्नोसिस) करते हैं जिसने इस समाज को खोखला कर रखा है। महेन्द्र बेनीवाल की कविता का पाठ करते हुए वे पीड़ितों-दलितों को इस सवाल के सामने ले आते हैं- ‘और कब तक मारे जाओगे’।
दोनों सत्रों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए ख़ालिद अशरफ़ ने कहा कि इस आयोजन में उर्दू समाज के लोग भी शरीक होते तो और अच्छा लगता। कई सालों पहले मैंने आंबेडकर की जीवनी का उर्दू में अनुवाद किया था। और आज डॉ. आंबेडकर का सपना भारतीय समाज को भारतीय संविधान के अनुरूप चलाने के अलावा कुछ नहीं हो सकता।अगर वे जीवित होते तो देश की वाम, सेक्युलर तथा लोकतांत्रिक पार्टियों के साथ मिलकर अपने बनाये हुए संविधान को महफ़ूज़ रखने की लड़ाई लड़ रहे होते क्योंकि आज के अंधेरे समय में भारत के धार्मिक सद्भाव, दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं व आदिवासियों के आर्थिक व सांस्कृतिक अधिकारों को बचाये रखना ही सबसे बड़ी चुनौती है।
दलेस अध्यक्ष हीरालाल राजस्थानी ने टिप्पणी करते हुए कहा – जाति का विनाश करने के लिए सभी जातियों को एक साथ आना होगा। अपनी जाति को मज़बूत करके जाति का विनाश संभव नहीं है। हमें वर्तमान में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र इस अलोकतांत्रिक सरकार के ख़िलाफ़ एकजुट होना होगा।
कार्यक्रम के अंत में सतीश कुमार पावरिया ने भीम जन कल्याण समिति और हम देखेंगे : अखिल भारतीय सांस्कृतिक प्रतिरोध अभियान की ओर से धन्यवाद ज्ञापित किया।
इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में प्रबुद्व नागरिक शामिल हुए।
रपट- अभिनंदन