शुभोमय सिकदार
बीजापुर के 33 वर्षीय पत्रकार मुकेश चन्द्राकर की एक दशक की, घटनाओं से भरपूर शानदार पत्रकारिता को सलाम, पर यह भी सच है कि उनकी हत्या छत्तीसगढ़ में पत्रकारों और पत्रकारिता के भविष्य पर एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा करती है।
रायपुर से लगभग 400 किमी दूर छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र के शहर बीजापुर के मध्य में एक दुकान है ‘ टी एंड काॅफी’, अदरख़ की चाय की ताज़ा खुशबू से ग़मकता माहौल। पहले यहीं बस अड्डा हुआ करता था। साॅसपैन में उबलती चाय जैसे बतकही को आँच दे रही हो। यहीं एक शाॅपिंग काॅम्प्लेक्स में एक दुकान का शटर गिरा हुआ है, कभी-कभार ही खुलता है।
अभी 10 दिन पहले तक रोज़ सुबह दस बजे के आस-पास देश भर से आये हुये लोगों का यहाँ रेला लगा रहता था। ‘टी एंड काॅफी’ के मालिक कपिल झाडी लोगों के आर्डर के मुताबिक़ नाश्ता देते रहते थे। झाडी बताते हैं कि ‘‘पत्रकार, नेता, दूर-दराज़ में कांर्यरत सामाजिक कार्यकर्ता और यहाँतक कि वर्दीधारी पुलिसवाले भी यहाँ आते रहते थे।
लेकिन पहली जनवरी के ठीक पहले अपने साथियों के साथ ढेर सारी जगह घेरनेवाला 33 वर्षीय मुकेश चन्द्राकर अपनी जगह से ग़ायब था। 3 जनवरी को मुकेश का शव वहाँ से 3 किमी दूर एक सेप्टिक टैंक में पाया गया था। मुकेश पेशे से एक पत्रकार था जो ‘बस्तर जंक्शन’ नाम से अपना एक यू’ट्यूब चैनल भी चलाता था। वर्तमान में इस चैनल के 1.59 लाख सब्स्क्राइबर हैं। उसने बीजापुर की एक ख़स्ताहाल सड़क पर एक रिपोर्ट अपने चैनल पर चलायी थी। पुलिस का कहना है कि उसकी हत्या तीन ठेकेदार बन्धुओं द्वारा की गयी है और तीनों उसके दूर के रिश्तेदार हैं, उनके नाम हैं- सुरेश चन्द्राकर, दिनेश चन्द्राकर और रितेश चन्द्राकर। इन तीनों और एक कर्मचारी महेन्द्र रामटेके को पुलिस ने अपनी हिरासत में ले लिया है।
मुकेश की हत्या का समाचार फैलते ही ‘एक्स’ पर पूरे भारत की पत्रकार बिरादरी की संवेदनाओं का ज्वार फूट पड़ा। लोग कह रहे थे कि नक्सल-पीड़ित क्षेत्र के बारे में कोई जानकारी चाहिये तो वही सबसे विश्वसनीय पत्रकार था। चर्चा का विषय यह भी था कि कैसे जमीन से जुड़े पत्रकारों की कोई अहमियत नहीं होती, और उनकी सुरक्षा भी बहस का एक मुद्दा था। रायपुर से लेकर नई दिल्ली तक उनकी स्मृति-सभायें की गयीं। उनके कामों पर पैनी नज़र रखनेवाले झाडी की मानें तो ‘‘उनकी रिपोर्ट आन्तरिक बीजापुर और सम्पूर्ण बस्तर क्षेत्र के अहम विन्दुओं को छूती थीं।’’
एनडीटीवी के लिये काम कर रहे स्वतंत्र पत्रकार मुकेश ने ‘बस्तर जंक्शन’ के संवाददाता नीलेश त्रिपाठी के साथ मिलकर सड़क-निर्माण में भ्रष्टाचार को लेकर एक स्टोरी की थी। 25 दिसम्बर को जारी किया गया यह वीडियो बीजापुर के गंगालूर और नेलस्नार गाँवों को जोड़ने वाली 52.4 किमी लम्बी सड़क की ख़राब गुणवत्ता को उजागर करता था। इसके अगले दिन छत्तीसगढ़ सरकार ने इस मामले में जाँच करवाने की घोषणा कर दी।
हमारे लिये आर्थिक सुरक्षा सदैव ही चुनौती रही है लेकिन पत्रकारों की सुरक्षा का बड़ा सवाल अनुत्तरित ही रहता है। कांकेर में रह रहे मेरे परिवार के लोगों ने भी मुझसे यह धंधा छोड़कर घर वापस आने को कहा है।…..पिनाकी रंजन दास, बीजापुर स्थित एक पत्रकार
कड़वे सच का सामना
मुकेश की पत्रकारिता बस्तर के हिंसा-प्रभावित क्षेत्र के जीवन की उन कठोर सच्चाइयों को उजागऱ करती है, जिसमें नक्सलियों ने दशकों से राज्य के विरुद्ध एक संघर्ष छेड़ रखा है। उनकी कहानियाँ हमें उन गाँवों से रूबरू कराती हैं जहाँ जीवन की जरूरी जरूरियात जैसे नमक के लिये, तुरंता पुलों के लिये, ख़स्ताहाल सड़कों के लिये लोग अपने बच्चों की जान जोखिम में डालने, उन्हें धमाकों में उड़ जाने देने और उन्हें नक्सलियों और पुलिस की मुठभेड़ों में झोंक देने के लिये विवश हैं। ये नक्सलियों और पुलिस की मुठभेड़ों में फँसे हुये आदिवासी समुदाय के रोजमर्रा के संघर्षों के दस्तावेज़ हैं। मुकेश की अन्त्येष्टि में आयी एक आदिवासी महिला डबडबायी आँखों से कहती है कि वह हमारे लिये भगवान की तरह थे। हत्यारों की गिरफ्तारी से पहले उसने टीवी कैमरे के सामने कहा था, ‘‘उन्होंने काम दिलाने में मेरी मदद की थी। मेरी सरकार से अपील है कि जल्द से जल्द उनके हत्यारों का पता लगाकर उन्हें गिरफ्तार करे।’’
दफ्तर से तक़रीबन दो किमी दूर मुकेश का एक छोटा सा वन-बीएचके का घर है जिसे उसने अपने एक सहकर्मी और चचेरे भाई के साथ मिलकर किराये पर लिया है, मुकेश के बड़े भाई युकेश, 36, उसी अहाते में, उसी से सटे हुये घर में रहते हैं, शादीशुदा हैं और दो बच्चों के पिता भी हैं।
उसी परिसर में दोनों भाइयों ने पहली जनवरी को दोपहर में 3 बजे से लेकर 5 बजे तक आखिरी बार बातें की थीं। वहाँ आने-जाने वालों का ताँता लगा हुआ है, राज्य-कांग्रेस के अध्यक्ष दीपक बैज और बीजापुर के कांग्रेसी विधायक विक्रम मांडवी भी हैं। उनसे मिलते हुये युकेश बताते हैं, ‘‘मुकेश और मैंने मिलकर योजना बनायी थी कि 31 दिसम्बर को हमलोग अपना एक छोटा-मोटा कार्यक्रम करेंगे पर तभी उसे किसी काम से दांतेवाड़ा जाना पड़ गया। मैं भी घर जाकर सो गया।’’
दो जनवरी को युकेश को अपने बेटे से ही यह पता चला कि मुकेश (घर का नाम बिट्टू) कहीं बाहर गया है। उसकी अनपेक्षित व्यस्तता और कोई नयी स्टोरी करने की उसकी ललक के चलते किसी को कोई बुरा ख़्याल नहीं आया, यह मान लिया गया कि वह कोई स्टोरी करने चला गया होगा। ‘‘मैंने उसका नंबर लगाया, पर वह बन्द मिला। यह भी कुछ ग़ैरमामूली नहीं था। दोपहर में एक बजे के लगभग मेरे बड़े (सौतेले) भाई पुरुषोत्तम का फोन आया कि क्या हम तीनों भाई अपने गाँव बासुगुडा चल सकते हैं, क्योंकि धान की कटाई का सीजन चल रहा है और हमलोंगों को भी अपनी फसल काटकर बेचनी है। मुकेश का उस समय भी कोई अता-पता नहीं था।’’ युकेश ने बताया।
तलाश
पुलिस के पास दर्ज़ अपनी शिकायत में युकेश ने लिखा था कि उसने पत्रकार निलेश से बात की थी जिसके साथ मिलकर मुकेश ने सड़क के गंगालूर से लेकर मिरतुर तक की सड़क की रिपोर्ट बनायी थी। ‘‘निलेश ने मुझे बताया था कि उसने पिछले दिन शाम के लगभग 6.30 बजे मुकेश से बात की थी और यह भी कि रितेश (इस समय एक अभियुक्त) उससे मिलनेवाला था। ’’
शिकायत में यही कहा गया था। युकेश ने बताया कि पुलिस को सूचना देने की सलाह निलेश ने ही दी थी।
बीजापुर के दूसरे पत्रकार दोस्तों- गणेश मिश्र और पिनाकी रंजन दास को साथ लेकर मुकेश की तलाश शुरू की गयी। मिश्र बताते हैं कि ‘‘मुकेश के लैपटाॅप से पता चलता है कि उसकी आखिरी लोकेशन सुरेश (एक अन्य अभियुक्त) के एक शेड के पास मिली थी।’’ इस शेड में लगभग 17 कमरे हैं जिनमें ठेकेदार के मजदूर रहते हैं और एक बैडमिंटन कोर्ट भी है जहाँ बाहरी लोग आकर कभी-कभी खेलते हैं, इन लोगों में मुकेश भी एक हुआ करता था। सुरेश पत्रागिरी 30, जो किसी वेबसाइट पोर्टल ‘लल्लूराम’ के लिये काम करता है बताता है कि 2 जनवरी को वह भी पुलिस के साथ उस शेड में गया था, कमरों की तलाशी मे वहाँ पुलिस को कुछ भी नहीं मिला। पत्रागिरी और दूसरे पत्रकार पुष्पा रोकड़े 40, जो ‘प्रखर समाचार’ से जुड़े हैं, याददाश्त से बताते हैं कि उन्हें एक सेप्टिक टैंक को ढँकता हुआ एक नया बना कंकरीट का ढक्कन जरूर दिखायी दिया था।
दो दशकों से पत्रकार के तौर पर काम करनेवाले रोकड़े ने बताया कि, ‘‘अगले दिन (3 जनवरी को) मैंने वहाँ रह रही दो महिलाओं से कंकरीट के ढक्कन की बाबत पूछताछ की तो पता चला कि वह पिछली सुबह 8 बजे के आस-पास बना था। हमने बैडमिंटन खेलनेवाले कुछ और लोगों से इसकी पुष्टि करनी चाही तो उन्होंने बताया कि यह पहले कभी नहीं देखा गया था।’’ बताया जाता है कि ठेकेदार ने पुलिस से कहा था कि उसके ऊपर वह बाथरूम बनाना चाहता है। रोकड़े ने आगे कहा कि ‘‘पर सेप्टिक टैंक में नीचे की ओर गैस निकलने का इन्तज़ाम होना चाहिये था जो नहीं था और इसी से हमारा सन्देह और भी गहरा गया।’’
उसकी रिपोर्टे बीजापुर के अन्दरूनी हिस्सों और पूरे बस्तर क्षेत्र के अहम मुद्दों को छूती थीं।…..कपिल झाडी चायखाने का मालिक, बीजापुर
पत्रकारों का कहना है कि पुलिस को सूचना देने के बावजूद लोगों के भारी दबाव के चलते ही उस सेप्टिक टैंक को 3 जनवरी की शाम को तोड़ा जा सका और उसमें से मुकेश का कटा-फटा शव बरामद किया जा सका।
जैसे ही मुकेश की मौत का समाचार फैला, लोगों का सारा ध्यान दूसरे पहलू की ओर चला गयाः मुकेश और निलेश द्वारा की गयी उस स्टोरी की ओर जिसके पस-ए-पर्दा पत्रकारों को ऐसे हालात का सामना करना ही पड़ता है जिसमें ठेकेदारों और सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों की तथाकथित साठ-गाँठ के चलते बस्तर मे इस प्रकार के संघर्षों के दास्तान की गहन जाँच हो नहीं पाती।
इस मौत पर मचे हो-हल्ले के चलते एक विशेष जाँच दल (एसआईटी) का गठन किया गया है। सरकार द्वारा सुरेश की प्रापर्टी ढहा दी गयी है। 7 जनवरी को छत्तीसगढ़ लोक निर्माण विभाग ने उस ठेकेदार का पंजीयन भी निलम्बित कर दिया।
निहित स्वार्थाें की कारस्तानी
मुकेश और निलेश की बनायी हुयी यह रिपोर्ट एनडीटीवी क्षेत्रीय (मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़) नेटवर्क पर 25 दिसम्बर को प्रसारित की गयी थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि शुरू में इस काम का टेन्डर 50 करोड़ रुपये का हुआ था पर यह बाद में बढ़कर 120 करोड़ रुपये का हो गया हाँलाकि टेन्डर के कार्यक्षेत्र में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। इस काम का जिम्मा छत्तीसगढ़ सरकार के लोक निर्माण विभाग के पास था।
निलेश बताता है कि वह और मुकेश कोई और स्टोरी करने के लिये बीजापुर के अन्दरूनी हिस्से में घूम रहे थे कि अचानक उनकी नज़़र सड़क की दयनीय गुणवत्ता पर चली गयी, उनकी जिज्ञासा जग उठी। ‘द हिन्दू’ ने भी इस सड़क का जायजा लिया तो पाया कि कुछ हिस्सों में पैबन्दकारी जरूर हुयी है, पर जहाँ-तहाँ गड्ढे अभी भी मौजूद हैं।
इस रिपोर्ट के प्रसारण के बाद सुरेश के ठिकानों पर सरकार द्वारा छापे डाले गये, स्थानीय अखबारों की अगर मानें तो कोई जाँच भी की गयी है। सुरेश के शेड से मुकेश का शव पाये जाने के बाद इस तरह की पुरानी कहानियाँ भी सामने आने लगीं कि कैसे चमत्कारिक ढंग से वह मामूली सा खानसामा अचानक अरबपति ठेकेदार बन गया, शानदार गाड़ियों में घूमने लगा, मँहगी शादी की और अपनी दुल्हन की विदाई हेलीकाॅप्टर में करवाया।
निलेश पिछले दस साल से पत्रकारिता कर रहा है, उसे भारत के अन्दरूनी हिस्सों में पत्रकारिता करने के ख़तरों का अच्छी तरह से पता है, पर अपने सहकर्मी की मृत्यु उस पर भारी पड़ रही है। वह कहता है कि, ‘‘लोगों को वास्तव में उसकी स्टोरी देखने की जरूरत थी क्योंकि वह भ्रष्टाचार और अनियमितता के मुद्दे उठा रहा था।’’
मुकेश का भाई बताता है कि जो तीन भाई इस समय पुलिस की हिरासत में हैं उनमें से रीतेश तो उसका दोस्त ही था। क़त्ल के खुलासे के बाद बस्तर के आई0जी0 पी0 सुन्दरराज ने बताया कि जब वे दोनों उसी शेड में रात में खाना खा रहे थे तो इस बात पर झगड़ा खड़ा हो गया कि रीतेश के काम में मुकेश अड़ंगा डाल रहा है, हाँलाकि दोनों एक ही परिवार के हैं। यह बताया जा रहा है कि इसपर रामटेके ने मुकेश के ऊपर एक लोहे की छड़ से वार कर दिया।
जो भी हो पुलिस इस षडयंत्र का सूत्रधार सुरेश को ही मान रही है। उसे 5 जनवरी को हैदराबाद से गिरफ्तार कर लिया गया है। वही इस समय ‘मुख्य आरोपी’ है। इस मामले की विवेचना कर रहे विशेष जाँचदल के प्रमुख मयंक गुज्जर कहते हैं, ‘‘हमलोग इस मामले के सभी तकनीकी और वस्तुगत साक्ष्य जमा कर रहे हैं।’’
पत्रकारिता का सफ़र
मिश्र का कहना है कि रिपोर्टिंग में मुकेश के आत्मविश्वास की जड़ें उसके अपने मँजे-मँजाये संजाल में बहुत गहरे धँसी हुयी थीं। दोनों ने बीजापुर के 650 गाँवों में से 50 को छोड़कर बाकी सब में अपनी अच्छी पैठ बना ली थी। वह बताता है कि, ‘‘दूर-दराज़ के गाँवों से भी वह संवेदनात्मक रूप से जुड़ा हुआ था।’’
मुकेश की शुरुआती रिपोर्टों में से एक वह थी जिसमें किसी निर्दोष युवक की एक साल से अधिक की क़ैद का खुलासा किया गया था और यह भी बताया गया था कि इससे कैसे उसका पूरा जीवन बरबाद हो गया। इसी रिपोर्ट के चलते वह चर्चा में आया था। इसके बाद एक और बहुचर्चित कहानी थी कि कैसे वह उस टीम का हिस्सा बना जिसने 2021 में माओवादियों द्वारा केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल के एक अपहृत जवान को छुड़ाया था।
पिछली मई में इस संवाददाता से बातचीत के दौरान उसने बताया था कि आदिवासियों के प्रति उसकी संवेदनशीलता की जड़ें उसके कठिनाइयों से भरे अतीत में थीं परन्तु साथ ही करुणामयी कहानियाँ भी थीं।
मुकेश का जन्म बीजापुर से लगभग 50 किमी दूर बासुगुडा गाँव में हुआ था। जब वह ढाई साल का था तभी उसके पिता की मृत्यु हो गयी थी। उसकी माँ एक आँगनवाड़ी कार्यकर्ता थीं, उनका वेतन बहुत कम था और उसी में उन्हें उस आदिवासी क्षेत्र में बिना किसी भू-अधिकार या वनोपज-अधिकार के अपना, उसका और उसके भाई का पालन-पोषण करना था, उन्हें अपने पड़ोसियों की कृपा पर जीवन-यापन करना पड़ा। वे अपनी फसल या वनोपज का कुछ हिस्सा उन्हें भी दे देते थे।
अपना एक वाक़या याद करते हुये उसने बताया था कि कैसे उसे वाइजैग के एक अस्पताल के बाहर सोना पड़ा था, उस अस्पताल में उसकी माँ कौशल्या (अब स्वर्गीया) का कैंसर का इलाज़ चल रहा था, वह महिला वार्ड में रह नहीं सकता था और बाहर कोई शरणस्थल ले पाने की उसकी क्षमता नहीं थी। उसने बताया था कि, ‘‘जिस दिन बारिश हो जाती, उस दिन रात आँखों में ही काटनी पड़ती थी।’’
शुरू में दो जून की रोटी कमाने के लिये उसने एक गैराज में मिस्त्री का काम किया। उग्रवाद-विरोधी कार्यवाही- सलवा जुडूम- के दौरान जब उस परिवार को राहत-शिविर में विस्थापित होना पड़ा तो संघर्ष और भी कठिन हो गया। पत्रकारिता की प्रेरणा उसे अपने बड़े भाई से मिली और मुख्यधारा की मीडिया में आठ साल काम करने के बाद उसने अपना खुद का चैनल शुरू करने का निर्णय किया।
जयपुर के एक राष्ट्रीय दैनिक की एक पत्रकार ने बताया कि जब मुकेश ने इस बारे में उससे बात की तो उसने उसकी हौसला आफ़जा़ाई की थी। उसने कहा कि, ‘‘मैंने उससे कहा कि यह एक अच्छा कदम होगा क्योंकि जमीनी काम करने के बावजूद बस्तर के पत्रकार अक्सरहा अनाम ही रह जाते हैं या फिर यदि उन्हें कोई जगह मिलती भी है तो केवल जमा रिपोर्ट के फुटनोट में। अनचीन्हा रह जाने का दंश खत्म हो जायेगा और वह अपनी स्टोरी बता सकेगा।
अपनी रोजाना की रिपोर्टिंग के अलावा मुकेश नियमित तौर पर विश्लेषणात्मक लेख लिखता, लम्बे संघर्षों की जटिलता सुलझाता और इस क्षेत्र के निवासियों पर उनके प्रभावों का आकलन करता था। मुकेश उस बीजापुर को भली-भाँति जानता था जिसका बड़ा हिस्सा घने अबूझमाड जंगलों से घिरा है और वह प्रायः और विस्तृत बस्तर क्षेत्र की यात्रा भी किया करता था।
उसके दोस्तों और साथी पत्रकारों का कहना है कि यू-ट्यूब से उसकी कमाई, उसका कार खरीदना और उसके दफ्तर और आसपास के इलाकों में ड्रोन कैमरों का इस्तेमाल उसकी रिपोर्टिंग को नई ऊँचाइयों तक ले जा सकते थे पर इन सबमें और अधिक पैसों की दरकार थी।
दास का कहना है कि मुकेश ने अपनी सारी बचत खर्च कर दी थी। उसके बड़े हिस्से से उसने भविष्य में कभी घर बनाने के ख्याल से पास में ही एक जमीन खरीद ली थी।
दास बताता है, ‘‘ यहाँ हम लोगों के सामने आर्थिक सुरक्षा हमेशा से चुनौती रही है परन्तु पत्रकारों की सुरक्षा ज्यादे बड़ा सवाल है और जवाब अभी भी नदारद है। यहाँ तक कि कांकेर में रह रहे मेरे परिवार ने भी यह काम छोड़कर घर लौट आने के लिये कहा है।’’
दिल्ली और रायपुर दोनों जगह मीडिया के लोगों के साथ बातचीत में यही मुद्दा प्रमुखता से उभरकर आया है।
मुकेश का दफ्तर कभी-कभी खुलता है। सारे सामान जस के तस हैंः आदिवासियों, भूमि-अधिकारों, बस्तर, संविधान और कार्लमार्क्स पर ढेरों किताबें हैं। जिस कुर्सी पर वह बैठता था, खाली पड़ी है, उसके पीछे किसी गगनचुम्बी इमारत का पोस्टर है और एक कम्प्यूटर भी है जिसपर वह अपने वीडियो का सम्पादन करता था। 6 जनवरी को आठ सुरक्षा कर्मियों और एक ड्राइवर की नक्सलियों द्वारा हत्या हो जाने के बाद दास, मिश्र और दूसरे पत्रकार उस घटना की रिपोर्टिंग का काम पूरा करके यहाँ बैठे थे। वे मुकेश और बस्तर के पत्रकारों के लिये एक संगठन की आवश्यकता पर बात कर रहे थे। दास कह रहा था, ‘‘अगर युकेश को कोई ऐतराज़ न हो तो हमलोग इसका किराया देंगे और इस दफ्तर को चलायेंगे। भाई के ऑफिस को मरने नहीं देंगे।’’
( शुभोमय सिकदार ‘ द हिन्दू ’ में 10 जनवरी, 2025 को प्रकाशित इस रिपोर्ट को समकालीन जनमत के पाठकों के लिए हिन्दी अनुवाद दिनेश अस्थाना ने किया है )