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साहित्य-संस्कृति

दलित साहित्य का भविष्य और भविष्य का दलित साहित्य

रामनरेश राम 

 

बहुत भीषण है यहाँ से आगे कलाओं की दुनिया

बहुत दुर्गम हैं यहाँ से आगे संवेदनाओं के रास्ते

यहाँ से बदलते हैं कहानी के पात्र

यहाँ से बदलती है कविता की भाषा

                         -विहाग वैभव

अब दलित राजनीति के भविष्य पर तो विचार हो ही रहा है, दलित साहित्य के भविष्य पर भी विचार किया जा रहा है. ‘दलित साहित्य का भविष्य’ पद से कई अन्तर्निहित ध्वनियाँ निकल रही हैं.

दलित साहित्य के भविष्य पर बात करने का पहला अर्थ तो यही हुआ कि यह देखा जाय कि क्या दलित साहित्य के अस्तित्त्व पर कोई खतरा मडरा रहा है, क्या दलित साहित्य की प्रासंगिकता अपना अर्थ खो रही है. क्या इसकी लेखन प्रक्रिया के बने रहने में दृश्य और अदृश्य बाधाएँ आने वाली हैं. क्या अब यह अपने संतृप्तता की अवस्था की सूचना दे रहा है. क्या इसने समाज के सारे सवालों को एड्रेस कर लिया है. दलित साहित्य का भविष्य पद इसके इन पहलुओं पर विचार करने के लिए बाध्य कर रहा है.

सबसे पहले तो मैं यही कहना चाहता हूँ कि न तो इसकी प्रासंगिकता अपना अर्थ खो रही है न तो यह अपने संतृप्तता की सूचना दे रहा है और न ही इसने समाज के सभी सवालों को एड्रेस ही कर लिया है. जन क्षेत्र में इसके अस्तित्व पर गहराते संकट को महसूस किया जा सकता है.

दलित साहित्य का इतिहास इस बात का गवाह है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था में उसके बौद्धिक हस्तक्षेप को सहज रूप में स्वीकार नहीं किया गया. उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति के कच्चेपन, उसकी भाषा, उसके मूल्य और सृजनात्मकता को प्रश्नांकित किया गया. लेकिन दलित साहित्य के भीतर सामाजिक परिसर में उपस्थिति की बेचैनी और आवश्यकता ने उसको समाज में तो स्थापित किया ही बौद्धिक प्रशिक्षण के मानक अकादमिक संस्थानों और विश्वविद्यालयों में भी स्थापित किया.

दलित साहित्य सार्वजिक जीवन की अभी अधूरी यात्रा पर ही था तब तक इस पर पाबंदियां, निषेध और नकार शुरू हो गए. मानव मुक्ति के लिए कृत संकल्पित बौद्धिकों ने इसके ऊपर अस्मितावादी होने का आरोप लगाकर ख़ारिज करने की कोशिश की.

जातिवाद के खिलाफ समता के उद्देश्य को आगे बढ़ाने वाले इस साहित्य को ही अस्मितावादी करार देते हुए उल्टे इसे ही जातिवाद को बढ़ावा देने वाला साहित्य घोषित किया. लेकिन दलित साहित्य बिना रुके, बिना झुके आगे बढ़ता रहा.  सार्वजिक क्षेत्रों में इसके ऊपर अघोषित पाबंदियां.

निषेध और नकार ने इस बात को सिद्ध कर दिया है कि दरअसल दलित साहित्य के भविष्य का यह आयाम सुरक्षित नहीं है. तमाम विश्वविद्यालयों में शोध विषय चुनने को लेकर यह कहा गया कि अब ऐसे विषयों पर बहुत काम हो चुके हैं. दलित और बहुजन विषयों को ख़ारिज कर दिया गया.

यह अकादमिक संस्थानों के दृष्टिकोणों के बदलते जाने के संकेत थे. ऐसा नहीं है कि संस्थानों द्वारा सिर्फ दलित , बहुजन और स्त्री विषयों पर ही ऐसा रुख अपनाया गया बल्कि वे साहित्य जो मानवता की मुक्ति के सपनों से लबरेज थे, संघर्ष को सौन्दर्य के रूप में परिभाषित करते थे उनको भी बहिष्कृत कर देने का प्रयास किया गया.

यह सब संस्थानों में सिर्फ जातिवादी मानसिकता के कारण ही नहीं हो रहा था बल्कि सम्पूर्ण देश में संस्कृति के क्षेत्र में एक मेगा नैरेटिव के निर्माण के कारण भी हो रहा था. जिसमे जातिवाद अब पिछले ज़माने की चीज न होकर वह सत्ता का मूल चरित्र हो गया था. यह ब्राहमणवाद की वापसी के दौर की कथा है. जिसको यह पसंद नहीं है कि ‘ठाकुर का कुंआं’, और सुनो ब्राहमण कविता किसी अकादमिक परिसर में पाठ का हिस्सा हो या उसको राज्य सभा में दलित समाज की दुर्दशा को रेखांकित करने के लिए उद्धृत किया जाय. इसलिए दलित साहित्य के भविष्य पर सत्ताधारी संस्कृति और और राजनीति की घोषित/अघोषित पाबन्दी है. इसलिए दलित साहित्य को इससे संघर्ष करना है और अपने अस्तित्व को सवांरने का विजन विकसित करना है.

 

अपने ही द्वारा बनायी गयी कैद कोई कैद तो नहीं!

यह बहु उद्धृत तथ्य है कि हिंदी में दलित साहित्य का उदय नब्बे के दशक में हुआ लेकिन मोहन दास नैमिशराय ने अपनी बौद्धिक क्षमता और सृजन कर्म से इस तथ्य को बदल दिया है. उन्होंने अपनी पुस्तक हिंदी दलित साहित्य और दलित आन्दोलन का इतिहास से इस तथ्य को उजागर किया है कि हिंदी में दलित साहित्य आजादी से पहले नवजागरण के दौर से ही लिखा जाता रहा है.

दलित साहित्यकारों की पहली पीढ़ी के सामने जिस तरह की चुनौतियाँ थीं उसमे विषय वैविध्य के लिए अवकाश नहीं था, इसलिए उनकी प्राथमिकतायें सामाजिक सत्ता से संघर्ष थीं. उन्होंने संस्कृतियों के इतिहास पर नजर दौड़ाई , मिथकों में निहित शक्ति संबंधों की पुनर्व्याख्या किया और संस्कृति के क्षेत्र में व्याप्त वर्चस्व को चुनौती दिया. उन्होंने संविधान की वकालत की. इतिहास के कोने में धकेल दिए गए समता पर आधारित धर्म और संस्कृति का पुनः आविष्कार किया. आजादी और मुक्ति की पूर्व प्रचलित अवधारणाओं और विचारधाराओं का वैकल्पिक पाठ तैयार किया. इसमें उन्होंने ब्राहमणवाद और जातिवाद के नए संस्करण देखे. उनका विरोध किया और अपनी समतावादी अवधारणाएं प्रस्तुत की.

आजादी के दौर में प्रचलित गांधीवाद की चालाकी भरी सीमा की पहचान किया और दुनिया के पैमाने पर प्रचलित मानव मुक्ति की मजबूत विचारधारा के भारतीय मार्क्सवादी संस्करण में व्याप्त ब्राह्मणवाद को उजागर किया.

इन सबके बीच वैचारिक हमलों का प्रवाह इतना तीव्र था कि उन्होंने अनजाने में ही अपनी एक बंद दुनिया बना ली. उन्होंने समाज सत्ता और धर्म सत्ता से खूब लोहा लिया लेकिन राजनीतिक सत्ता को चुनौती देने की चेतना की साहित्यिक अभिव्यक्ति नहीं की. उन्होंने अपने पत्नी, बच्चों और दलित समाज के स्वाभिमान की रक्षा के भाव तो व्यक्त किये लेकिन मुक्ति की विकसित होती नयी धारणाओं को आत्मसात कर स्त्री सवालों को स्वायत्त ढंग से व्यक्त होने का अवसर नहीं दिया.

सामाजिक लोकतंत्र की वकालत तो की लेकिन पारिवारिक लोकतंत्र को महत्त्व नहीं दिया. उन्होंने फ़्रांसिसी क्रांति से उपजे और बाबा साहब द्वारा प्रस्तावित समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के नारे को आत्मसात तो किया लेकिन अनजाने में बंद होती अपनी दुनिया में सहधर्मा वैचारिक सरणियों के अन्य रूपों को जगह नहीं दी.

इसका नतीजा यह हुआ कि दलित साहित्यकार सिर्फ दलितों की चिंता करने वाले बद्धिकों में बदलते चले गए. उनके द्वारा रचित साहित्य व्यापक सामाजिक सरोकारों वाले साहित्यिक श्रेणी में प्रवेश नहीं पा सका. उनकी ही तरह उनके साहित्य को भी हाशिये का हाशिये के द्वारा और हाशिये के लिए लिखा गया साहित्य माना गया. उनके नवीन अनुभवों की साहित्यिक अभिव्यक्ति के बजाय उन्होंने अपने ऐतिहासिक अनुभवों को व्यक्त करने पर जोर दिया , इसलिए वे दुहराए हुए लगने लगे. उन्होंने अपनी इन उपलब्धियों और सीमाओं के साथ दलित साहित्य को जहाँ पहुँचा दिया वहां से साहित्य के जनतंत्रीकरण का रास्ता खुल गया. उसमें गतिशीलता आ गयी, वह जीवंत और बहसधर्मी हो गया.

 

किसी भी समाज, व्यक्ति और साहित्य का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक उसमें आत्मालोचना का भाव न हो. यह आत्मालोचना ही है जो हमें हमारे इतिहास और वर्तमान का मूल्याङ्कन करने की प्रेरणा देती है और हमें भविष्य की दिशा भी प्रदान करती है. लेकिन अफोस कि जिस दलित साहित्य की दमदार उपस्थिति आलोचना शास्त्र विकसित करते हुए होती है उसी दलित साहित्य में आलोचना को स्वीकार करने के साहस की कमी और उसका विकास करने के प्रति उदासीनता दिखती है. दलित साहित्य ने विधाओं के मामले में आत्कथा, उपन्यास, नाटक, कहानी, कविता, मूर्तिकला, चित्रकला और संगीत तक का खूब विकास किया लेकिन आलोचना विधा में प्रभावी हस्तक्षेप नहीं हो सका. किसी साहित्य या कला के भविष्य की बात करनी हो तो उसके इतिहास की पड़ताल के बिना यह संभव नहीं हो सकता. इसलिए दलित साहित्य के भविष्य पर बात करते हुए उसके ऐतिहासिक अवदानों और उसकी सीमाओं पर चर्चा करना जरुरी लगा.

भविष्य का दलित साहित्य

साहित्य सामाजिक अवस्थितियों का कलात्मक प्रतिफल होता है. सामाजिक अवस्थितियाँ स्थायी नहीं होती हैं. तो दलित समाज ही स्थिर क्यों होगा. 1947 से लेकर 2024 तक दलित साहित्यकारों की कई पीढियां गुजर चुकीं. ऐसे में दलित साहित्य के एक रेखीय, एक रंगीय बने रहने का कोई कारण नहीं.

दलित साहित्य ने अपने कलेवर को बदल दिया है. अब वह घेटो की प्रवृत्ति से बाहर निकल कर दुनिया से संवाद कर रहा है. उसका होरिजिन विस्तृत हो रहा है. उसने कलाओं की दुनिया के भीषण होने की घोषणा कर दी है. उसने कहानियों के पात्र बदल जाने की घोषणा कर दी है. ‘बहुत भीषण है यहाँ से आगे कलाओं की दुनिया/ यहाँ से बदलते हैं कहानी के पात्र/ यहाँ से बदलती है कविता की भाषा.’ हमारे दौर के प्रखर और बौद्धिक कवि विहाग वैभव की यह कविता दलित साहित्य के नए प्रस्थान की घोषणा जान पड़ती है.

उसमें अपने पुरखों के साहित्यिक अवदान का नकार नहीं है. नकार हो भी नहीं सकता क्योंकि अपने इतिहास की उपलब्धियों से कोई कटकर कीर्तिमान नहीं बना सकता.

यह दलित कविता और साहित्य के कलात्मक उत्कर्ष की भी घोषणा है. जिसमे भाषा तो बदली है, कहानी के पात्र भी बदले हैं लेकिन यह विषयवस्तु का बदलाव नहीं है.

नए प्रस्थान वाले दलित साहित्य में दृष्टि का विस्तार है. एक तरफ वह जहाँ दलित जीवन दमित यथार्थ को व्यक्त करता है वहीँ उसकी दृष्टि ‘सीरिया के मुसलमान बच्चे’ पर भी जाती  है और अमेरिकी हैवानियत के शिकार निर्दोष मुलसमानों की पीड़ा को महसूस करती है-

अल्लाह के बागान में जिन्हें / उधम कर दौड़ जाना था अगले आँगन/ वे बम से फटी सड़क पर गला फाड़ रोते हुए/ अपनी माँ के चिंथे स्तन चूम रहे हैं’.

यहाँ कविता केवल सभा स्थलों की सौन्दर्य-क्षुधा मात्र न होकर सडकों पर संघर्ष करने वाली जनता के साथ खड़े होने वाली सकर्मक क्रिया है.

‘जब कविताओं की सबसे ज्यादा जरुरत सड़कों पर उतर आये मेरे साथियों / की थरथराती आवाज और तनी हुई मुठ्ठी को है/ तब आप के सभागार में कालजयिता के लोभ का पाठ करती हुई मेरी कविताएँ/ बेहद अश्लील दिखाई पड़ेंगी, महोदय.’

दलित साहित्य में जो मनुष्य था उसकी पहचान पुरुष के रूप में प्रभावी थी. वहां स्त्री और थर्ड जेंडर केंद्र में नहीं थे लेकिन समय की मांग और दलित-दृष्टि के विस्तार ने अपने सपनो का आकार बड़ा कर दिया. वहां पितृसत्ता की पहचान पुरुष के सकारात्मक संघर्ष के स्वीकार के साथ है.

इसमें कोई शक नहीं है कि दलित समाज में पितृसत्तात्मक विचार उसकी सामाजिक और राजनीतिक गति को अवरुद्ध किये हुए हैं.

इसके खिलाफ दलित साहित्य की दिशा आश्वस्त करती है. सुनीता अबाबील की एक कविता है – ‘इंतजार में हैं लडकियाँ’ उसमे एक लड़की है जो सपने देखती है- कोई लड़की कैमरा लिए आवारागर्दी करते मिल जाए/ जो सच है सबको सामने कर दे/ कुछ भी इतिहास में छुपाने जैसा न हो… भटके हुए राहगीरों को सही पता बताएं/  नदियाँ गहरी हों तो/ औरतों का झुण्ड तैरकर नदियों को पार लगाएँ/ तीसरा लिंग संविधान की नए सिरे से समीक्षा करे.

दरसल यह नए ज़माने का दलित है जिसने अपने साहित्य में अपने ही दुखों का सामाजिक विस्तार पाया है. वह अपने दुःख से दुखी जरुर है लेकिन दूसरों के समानधर्मा दुःख से बाखबर भी है, यह साझापन दलित साहित्य की अवधारणा और संवेदना में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव है.

 

किसी चीज का भविष्य उसके वर्तमान पर निर्भर करता है. हालाँकि भविष्य अनिश्चितताओं से भरा हुआ आकाश है जहाँ कोई निश्चित परिणाम की आशा पर टिका नहीं रहा जा सकता है. लेकिन विज्ञान के विकास ने इस बात को सिद्ध किया है कि बहुत हद तक मनुष्य अपने भविष्य का अनुमान लगाने में सक्षम हो गया है. इसलिए दलित साहित्य के भविष्य का अनुमान क्यों नहीं लगाया जा सकता.

भविष्य का दलित साहित्य अपने भूगोल को विस्तृत करेगा. यानि वह अब भारत के भूगोल को पार कर वैश्विक स्वरुप धारण करेगा. अब वह अपने जैसी दुनिया की उत्पीडित जातियों, समूहों से एकाकार होगा और उनके मुक्ति संघर्ष के लिए अपने वैचारिक दृष्टिकोण को वैश्विक फलक प्रदान करेगा. अस्मितावाद की दार्शनिक सीमाओं की पहचान करेगा और तथाकथित मुख्य धारा का साहित्य बनेगा.

वह भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रतिक्रियावादी स्वरूपों की पहचान करके उनके खिलाफ मुकम्मल संघर्ष चलाएगा और मानव मुक्ति की संस्कृति को आगे बढ़ाने की मुहीम का नेतृत्व करेगा. वह यथार्थ के जटिल होते जाने को समझेगा और यथार्थ तथा मिथक के बीच की मिटती रेखाओं को स्पष्ट करेगा. वह दुनिया भर में उभरने वाली राजनीतिक और सांस्कृतिक तानाशाही के खिलाफ खड़ा हो जायेगा और भारतीय राजनीति में इसके लक्षणों की पहचान करके इसका विरोध करेगा. वह उक्रेन युद्ध पर मौन नहीं रहेगा.

वह अमेरिकी नस्लवाद का जमकर मुकाबला करेगा. वह बाजार को दलित मुक्ति का वाहक नहीं मानेगा वह इस बात की तलाश करेगा कि कैसे बाजार ने विकल्प मुहैया कराने के नाम पर लोकतंत्र को विकृत कर दिया है. उसने सामाजिक भेदभाव को प्रोडक्ट में बदल दिया है.

वह शिक्षा के क्षेत्र से दलितों बहुजनों की बेदखली को बाजारवाद और पूंजीवाद के साथ भारतीय शासक वर्ग के गठजोड़ का परिणाम मानेगा.

वह पितृसत्ता के खिलाफ उभरने वाले साहित्य को अपनी मुक्ति के अनिवार्य सहायक के रूप में देखेगा और इस मसले पर इतिहास की अपनी गलती को नहीं दुहरायेगा. वह दलितों के आदि धर्म के नाम पर दलित स्त्रियों की गुलामी का घोषणा पत्र नहीं तैयार करेगा.

वह भाषा की बायनरी को तोड़कर उसकी अन्य अस्मिताओं की भी चर्चा से अपने को समृद्ध करेगा. वह थर्ड जेंडर के सवालों को अपने साहित्य का हिस्सा मानेगा.

दलित साहित्य कलाओं के विभिन्न रूपों का मुकम्मल विकास करेगा और अछूते अनुशासन जैसे इतिहास , मनोविज्ञान, समाज विज्ञानं और मानव विज्ञान को भी नए सिरे से परिभाषित करके बहुजन ज्ञान परंपरा को समृद्ध करेगा.  उसके सामने अनेकों चुनौतियाँ हैं. उसको इतिहास से, बाजार से, पूंजी और पितृसत्ता से अभी मुकम्मल लोहा लेने की योजना पर काम करना बड़ी चुनौती है. उसको सम्पूर्ण दमित और हाशिये की गुलाम अस्मिताओं के मुक्ति संघर्ष का अगुआ-साथी बनना है.

फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार 

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