किसी भी आलोचक के लिए जरूरी होता है, कि वह बाह्य जगत के सत्य और रचना के सत्य से बराबर-बराबर गुजरे।
आलोचना के लिए ज्ञान की प्रक्रिया दोहरी होती है। किसी रचनाकार के लिए बाह्य जगत और उसके संबंधों का प्राथमिक बोध पर्याप्त है, लेकिन आलोचक के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं होता।
रचना और पुनर्रचना दोनों की प्रक्रिया को ठीक-ठीक जानना और समझना ही आलोचक का काम है। यह हो कैसे, इसके लिए मुक्तिबोध की मदद से कहें, तो बाह्य जगत से प्राप्त अपने ज्ञानात्मक संवेदन के साथ रचना में प्रवेश करना और रचना से प्राप्त संवेदनात्मक ज्ञान के साथ बाहर आना।
हिंदी साहित्य के नये आलोचकों के भीतर इसकी जगह लफ्फाजी ज्यादा आयी है, लेकिन अवधेश त्रिपाठी की काव्यालोचन की यह किताब हिन्दी आलोचना के एक नये सितारे के उदय की तरह है या सामान्य ढंग से कहें तो हिंदी साहित्य को उसकी वर्तमान पीढ़ी का आलोचक मिल गया है।
किसी भी आलोचक को सबसे पहले ईमानदार पाठक होना चाहिए! यह खूबी अवधेश त्रिपाठी में है।
इस किताब में नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, धूमिल, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं को आलोच्य विषय बनाया गया है।
नागार्जुन और मुक्तिबोध तो आजादी के पहले से कविता लिखने लगे थे, लेकिन इस पुस्तक में इनकी भी आजादी के बाद की कविताओं पर केंद्रित होकर उसकी संवेदना को जाँचा-परखा गया है।
आजादी के बाद अपनाये गये लोकतंत्र के सामान्य मूल्यों, यथाः बराबरी, न्याय और आजादी तथा लोकतंत्र की संचालक सामाजिक शक्तियों तथा इसके बूते अपने जीवन स्थितियों में बदलाव का सपना संजोये सामाजिक वर्गों, समूहों के बीच के अंतर्विरोध और संघर्ष ही आलोच्य कवियों की कविता की मूल संवेदना है।
’70 के दशक तक आते-आते यह विरोध और संघर्ष दृश्यमान वास्तविकता बनने लगी। लोकतंत्र के मूल्यों का सपना पालने वाली सामाजिक शक्तियां, समूह, वर्ग, जाति आदि सत्ता और शासक वर्ग से टकराने लगे।
इन सभी कवियों में इसी की रचनात्मक चिंताएं और अभिव्यक्ति है। इस पुस्तक में कविताओं के भीतर पैठ कर यह बातें पायी गयी हैं, न कि किसी थोथे, कोरे सिद्धान्त या विचार के सहारे। इतना ही नहीं, कविताओं के भीतर से जो संवेदनात्मक ज्ञान हासिल होता है, उसी पर खड़े होकर आलोचना-सिद्धान्तों को भी जांचा गया है।
आलोच्य विषय से संबंधित पूर्व की आलोचनाओं से बहस-संवाद करते हुए भाषा का बर्ताव बेहद सहज, शालीन, सधा हुआ है।
अवधेश त्रिपाठी की आलोचना पद्धति में लोकतंत्र के मूल्य प्राण की तरह है। ऐसा तभी होता है जब खुद आलोचक के लिए भी लोकतंत्र एक जीवन-मूल्य हो। यही इस पुस्तक की वह खूबी है, जो हिंदी आलोचना में सक्रिय अस्सी के बाद पैदा होने वाली पीढ़ी के लिए मानक की तरह है।
पुस्तक में आलोच्य कवियों की कविताओं की मूल संवेदना, चिंता, स्वर को प्रकट करते शीर्षक रखे गये हैं,यथाः नागार्जुनः किसकी है जनवरी किसका अगस्त है, मुक्तिबोधः जगत समीक्षा की हुई उसकी, रघुवीर सहायः बढ़ते तंत्र और घटते लोक की बेचैनी, धूमिलः संसद से सड़क तक जनतंत्र की तलाश, सर्वेश्वर दयाल सक्सेनाः चुपाई मारौ दुलहिन।
हिंदी आलोचना में इस पुस्तक का स्वागत इस रूप में भी होना चाहिए कि इसमें एक यशस्वी आलोचक की सारी संभावनाएं दिखती हैं। यह पुस्तक हिन्दी के नामधारी प्रकाशकों के हिस्से न आयी, यह उनका दुर्भाग्य है। खैर, विद्या बुक्स को इसका पेपर बैक भी छापना चाहिए, ताकि हिन्दी साहित्य के सामान्य विद्यार्थी भी इसका लाभ पा सकें!
कविता का लोकतंत्र- अवधेश त्रिपाठी, विद्या बुक्स, ई 1/265, गली नं 16, चौथी क्रास रोड, सोनिया विहार, दिल्ली 110090
email- booksvidhya@gmail.com
सजिल्द मूल्य ₹600
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