समकालीन जनमत
पुस्तक

बहुत सी भ्रांतियों को तोड़ती किताब- इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका

मुहम्मद उमर

हम जब कभी बुकशॉप से किताबों को खरीदने जाया करते, तो एम एन राय की पुस्तक ‘इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका’ सामने ही रखी होती थी। लेकिन कभी भी नहीं सोचा, कि इस पुस्तक को पढ़ लिया जाए, क्योंकि खुद मुस्लिम समुदाय से होने के कारण; यह पुस्तक अप्रासंगिक मालूम होती थी। जान पड़ता था, कि सौ पृष्ठों के आसपास की इस छोटी सी पुस्तिका में मज़हब के बारे में ऐसा क्या लिखा होगा, जिससे मैं अनिभिज्ञ होऊँ।

हालांकि, यह मेरी बनी हुई भ्रांति जल्द ही टूट गयी, जब आखिर मैंने यह पुस्तक लेकर पढ़ ही ली। पुस्तक पढ़ने के बाद मालूम पड़ा, कि एम एन राय ने अपनी पुस्तक में इस्लाम की जिस क्रांतिकारी विरासत की पहचान की है, उससे सिर्फ गैर मुस्लिम ही नहीं, बल्कि मुस्लिम भी अनिभिज्ञ होंगे।

आज के रूढ़िवादियों ने इस्लाम के उस स्वरूप को एकदम नष्ट कर दिया है, जो कि इसके शुरुआती दौर में था। ‘लिबरल होना’ लफ्ज़ आज के मौलवियों और कट्टर झंडाबरदारों को गाली के समान लगता है, लेकिन शायद, वे यह नहीं जानते कि इस्लाम के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ही नहीं, बल्कि खलीफा अबु बकर और उमर भी कितने ही शानदार, उदार और साहसी व्यक्तित्व के थे। इस बात का अंदाजा अबु बकर के उस आदेश से कर सकते हैं, जो उन्होंने सेना को देते हुए कहा था-‘ईमानदार रहो, बेईमान कभी उन्नति नहीं करता। बहादुर बनो, आत्मसमर्पण करने से अच्छा है कि युद्ध में वीरगति प्राप्त करो। दयावान बनो, बूढ़ों, औरतों और बच्चों की कभी हत्या मत करो। दुश्मन को दिए गए अपने वचन का पालन करो। जो लोग संसार से अलग होकर रहते हैं उनको मत सताओ।'( इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका, पृ.22)

कक्षा एक से लेकर आठ तक मैंने अपनी पढ़ाई करीब के स्कूल से की थी जो कि पोगापंथियों का गढ़ था। वहाँ हमें यह बताया जाता कि इस्लाम तलवार के नोक पर फैला है। यह बात मुझे प्रायः परेशान करती और इतिहास की कक्षाओं में मेरे सहपाठी मुझे या किसी भी मुस्लिम समुदाय के छात्र को मुग़ल आक्रमणकारी की तरह लिया करते थे। हम खुद को असहज महसूस किया करते थे। बताइये कक्षा तीन या चार के बच्चे को मुल्ला-कटुआ कहा जायेगा तो क्या इसका दुष्प्रभाव उसके मानसिकता पर नहीं पड़ेगा? कैसा लगेगा जब किसी सात या आठ बरस के लड़की या लड़के से कक्षाओं में उसके साथ के बच्चे ये कहेंगे ‘मुस्लिम मलिच्छ होते हैं, वो जुमा-जुमा नहाते हैं!’ कितने अबोध लोग होते हैं जो यह कहते हैं कि फलां पढ़े-लिखे होने के बावजूद साम्प्रदायिक हैं? वो यह कैसे नहीं देख पाते कि प्राथमिक पाठशालायें ही अल्पसंख्यक-दलितों के खिलाफ साम्प्रदायिकता का निर्माण करती हैं।

एम एन राय अपने समय में हिन्दू-मुस्लिम के बीच के विद्वेष और बैर-भाव को एकदम ठीक समझ रहे थे। इसी पुस्तक कि शुरुआती भूमिका में वे लिखते हैं-
‘भारत में अरब के मसीहा हजरत मुहम्मद के अनुयायियों की संख्या बहुत अधिक है। यह बात शायद ही लोगों को सही प्रतीत होती हो कि भारत में मुसलमानों की जितनी संख्या है उतनी संख्या किसी भी इस्लाम को मानने वाले देश में नहीं है। इसके बावजूद अनेक शताब्दियों के बीत जाने पर भी भारत के बहुत-से लोग उनको बाहरी तत्त्व मानते हैं।..(पृ.13)

‘…सामान्य रूप से रूढ़िवादी हिन्दू, मुसलमानों को, चाहे वे उच्च वर्गों के हों और उनमें उच्च संस्कृति का प्रभाव हो, ‘म्लेच्छ’, अशुद्ध, बर्बर मानते हैं और उनके साथ हिंदुओं के निम्नतर वर्गों के लोगों से किये जाने वाले व्यवहार से अच्छा व्यवहार करने को तैयार नहीं होते हैं।’ (पृ.14)

एम एन राय बात इतने पर ही नहीं छोड़ देते हैं, बल्कि हिंदुओं द्वारा मुस्लिमों से की जाने वाली घृणा के कारण यानी जड़ तक पहुँचने का प्रयास करते हैं-
‘इस स्थिति का कारण वह घृणा है, जो पिछली शताब्दियों में विजेता के प्रति उत्पन्न हुई थी और पराजित लोग विदेशी आक्रमणकारियों के प्रति स्वाभाविक ढंग से घृणा करते थे। जिन राजनीतिक सम्बन्धों के कारण ऐसी भावना उत्पन्न हुई थी वह प्राचीन काल की बात थी। लेकिन उस घृणा की भावना का अब भी बने रहना हमारे राष्ट्र की एकता के लिए बाधक है, साथ ही वह कारण इतिहास के निष्पक्ष अध्ययन में बाधक है।…कोई भी सभ्य देश इस्लाम के इतिहास से इतना अनिभिज्ञ नहीं है जितना हिंदू हैं और वे मुसलमानों के धर्म से घृणा करते हैं।…’ (पृ.15)

एम एन राय की पुस्तक ‘इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका’ सात अध्यायों में विभक्त है और सभी अध्याय एक क्रम में मालूम होते हैं-भूमिका, इस्लाम का लक्ष्य, इस्लाम की सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, विजय के कारण, मुहम्मद और उनकी शिक्षाएँ, इस्लाम का दर्शन, इस्लाम और भारत। ये सभी अध्याय एक दूसरे से सम्बद्ध हैं और इस्लाम के इतिहास का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन कराते हैं।

एम एन राय इस्लाम के उदय को एक धार्मिक आंदोलन के बजाय एक राजनीतिक आंदोलन के रूप में स्वीकार करते हैं। वह बताते हैं, इस्लाम के एकेश्वरवाद ने नए राजनीतिक-सामाजिक ढाँचे का निर्माण किया। इसके चलते भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं को पूजने वाले जनजातियों-बद्दुओं का एक छत के तले आना सम्भव हुआ। इसके साथ ही एक नए बौद्धिक जीवन का आरंभ हुआ जहाँ मूढ़-अंधविश्वासों की कोई जगह नहीं थी। (देखें पुस्तक का पृ.20) इतना ही नहीं, बल्कि वह इस्लाम के प्रसार को तलवार के नोक पर नहीं मानते हैं-
‘हर स्थान पर सरासेनी (अरब) आक्रमणकारियों का दबे हुए, प्रताड़ित और बेजेन्टाइन सम्राज्य के भ्रष्टाचार से दुखी लोगों ने मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार किया। फारस के निरंकुश और ईसाई अंधविश्वासों से पीड़ित लोगों ने भी उनका स्वागत किया। हजरत मुहम्मद की क्रांतिकारी शिक्षाओं का कठोरता से पालन करते हुए उन्होंने अपने ख़लीफ़ाओं के आदेशों का पालन किया। वे आदेश, व्यवहारिक, उदार और सज्जनता से परिपूर्ण थे। सरासेनी आक्रमणकारियों को पराजित लोगों की सहानुभूति और समर्थन मिला। कोई भी विजेता, पराजित लोगों पर अपना स्थायी आधिपत्य तब तक स्थापित नहीं कर सकता जब तक कि पराजित लोगों का उन्हें सक्रिय सहयोग न मिले और उनमें सहनशीलता न हो।’ (पृ.22)

सरासेनी योद्धाओं ने कहीं भी बर्बरता का परिचय नहीं दिया। उन्होंने विजय प्राप्त करने के बाद भी कोई लूटपाट या औरतों के साथ दुर्व्यवहार, हत्या और विनाश जैसे गलत कर्म नहीं किये। एम एन राय इस बात को भी रेखांकित करते हैं, कि विजय का दौर कम ही समय तक चला और फिर ख़लीफ़ाओं के संरक्षण, ज्ञान और संस्कृति के प्रसार का लंबा युग शुरू हुआ और यही बात उनके अधीन साम्राज्य में भी फैली। (देखें पृ.25)

इस्लाम का लफ़ज़ी मायने ‘शांति’ है। इससे वो धारणाएं खण्डित हो जाती हैं जो इस्लाम को जिहाद या युद्धवाद से जोड़ती हैं। इस्लाम ने मेहनतकशों-श्रमिकों और विद्वानों को महत्व दिया। इस्लाम ने मानवता और समानता का संदेश दिया।
‘इस्लाम अनिवार्य रूप से इतिहास से उत्पन्न हुआ दर्शन था, जो मानव-विकास का वाहक था। उसका विकास एक नए समाजिक सम्बन्धों के सिद्धांत के रूप में हुआ था, जिसने अंत में मानव मस्तिष्क को क्रांतिकारी बनाया।….इस्लाम की संस्कृति को इस बात का श्रेय है, कि उसके अंतर्गत नवीन समाजिक क्रांति को विकसित करने वाले तत्त्व विकसित हुए।’ (पृ.31)

मुहम्मद साहब के एकेश्वरवाद के सिद्धांत ने क़बीलों के बीच पारस्परिक झगड़ों को खत्म किया और सभी एक झंडे के तले इकट्ठे हुए। अल्लाह ने वक़्त-वक़्त पर मानवों के कल्याण के लिए पैगम्बर भेजे है और लोगों ने इसी आध्यात्मिक चेतना के साथ हजरत मुहम्मद को स्वीकार किया। (देखें पृ.40,41)

खलीफा उमर ने जब येरुशलम पर अधिकार किया तो उन्होंने वहाँ के नागरिकों की निजी संपत्ति जब्त नहीं की बल्कि उनके पास ही रहने दिया। उन्होंने सरंक्षण शुल्क के बदले वहाँ के ईसाइयों को उनकी मज़हबी आराधना की छूट दी। यह अरब ख़लीफ़ाओं की सहनशीलता को प्रकट करता है। उन्होंने सभी धर्मों के प्रति सम्मान प्रकट किया और उनके धार्मिक विश्वासों को ठेस नहीं पहुँचाई। तमाम धर्म के सताए हुए अनुयायियों ने सरासेनी साम्राज्य में शरण ली। (देखें पुस्तक में ‘विजय के कारण’ अध्याय)

‘हजरत मुहम्मद के एक-ईश्वर की खोज का आधार वाल्टायर की भाँति सनक नहीं थी। उन्होंने ईमानदारी से अपने उत्साह के आधार पर अपने अज्ञानी अनुयायियों को प्रेरणा देने के लिए एक-ईश्वर की खोज की थी….।'(पृ.57)
एम एन राय बताते हैं, कि हजरत मुहम्मद की पत्नी हजरत ख़दीजा ने ऐन वक़्त पर मुहम्मद साहब को मानसिक रूप से सुदृढ़ किया था, तभी यह महान लक्ष्य सम्भव हो सका। हजरत मुहम्मद ने इस्लाम की बुनियाद विवेकवाद के आधार पर रखी।

इस्लाम का जब आगमन हुआ तब समस्त यूरोप अंधकार युग की अवस्था में था। इस्लाम के आगमन ने ज्ञान-विज्ञान को पुनः विकसित किया। ‘यूनानी दर्शन का बहुमूल्य कोश ईसाई चर्चों की असहिष्णुता और पाखंड के आगे दबा पड़ा था। यदि अरब लोगों ने उसका उद्धार न किया होता तो वह नष्ट हो जाता और उससे कितना नुकसान होता, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।'(पृ.66)
इसके साथ ही यह भी उल्लेखनीय है, कि ‘ज्योतिष’, ‘गणित’, ‘भौतिक विज्ञान’, ‘रसायन विज्ञान’, ‘चिकित्सा’ और ‘संगीत’ के क्षेत्र में इस्लामी शासनकाल में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। अरब दार्शनिक और वैज्ञानिकों के हाथों यूनानी ज्ञान-विज्ञान आगे की पीढ़ियों तक पहुँचा। अलकाजी, अलहसन, अलफराकी, अबीसीना, अलगज़ाली, अबूबकर इत्यादि कुछ नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं, जिन्होंने दर्शन-विज्ञान को समुन्नत और समृद्ध किया। अबेरोस ने अरस्तू के ज्ञान को आधुनिक सभ्यता को प्रदान किया जिसका उल्लेख एम एन राय करते हैं। अलकाजी ने दर्शन को कल्पनाओं से मुक्त कराया और उसे गणितशास्त्र का आधार दिया। यह सिद्धांत करीब सात सौ बरस बाद फ्रांसिस बेकन और देकार्त ने दिया। (पृ.79)
इसके साथ ही, लेकिन इस्लाम का यह क्रांतिकारी स्वरूप धीरे-धीरे नष्ट होता रहा और जल्द ही कठमुल्लावाद के जाल में उलझता गया और आज का जो इस्लाम है यह शायद अपनी बहुत से बुनियादी शिक्षाओं से भटक चुका है। हालांकि, भारत में जब इस्लाम ने प्रवेश किया तो इतिहास से यह बात सिद्ध होती है, कि भारत की निम्न वर्ग की जनता ने जाति प्रथा के शोषण से बचने के लिए इस्लाम की शरण ली। एम एन राय अपने पुस्तक के अंतिम अध्याय ‘इस्लाम और भारत’ में भारत में इस्लाम के आगमन को रेखांकित करते हुए बताते हैं, कि शूद्रों-अतिशूद्रों ने मुस्लिम आक्रमणकारियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रुख अपनाया था जैसे कि इसके पूर्व फारस और ईसाई देश के पीड़ित नागरिकों ने अपनाया था। एम एन राय यह भी लिखते हैं, बौद्ध क्रांति को पराजित नहीं किया गया था, बल्कि वह अब आंतरिक कमजोरियों के चलते ढह गयी। बौद्ध क्रांति इतनी शक्तिशाली नहीं रही थी, जैसा कि पूर्व में थी।

इस प्रकार एम एन राय तथ्यपरक ऐतिहासिक-वैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं। अंत में एम एन राय लिखते हैं-
‘इतिहास के तथ्यपरक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि हिंदुओं का मुसलमानों के धर्म और संस्कृति के प्रति अनादर का भाव कितना बेहूदा था। उस भावना ने नव इतिहास का अनादर किया और हमारे देश के राजनीतिक भविष्य को क्षति पहुँचाई है। मुसलमानों से ज्ञान प्राप्त करके यूरोप आधुनिक सभ्यता का नेता बन गया। आज भी उसके ऋणी लोग अपने पुराने ऋण के लिए शर्म का अनुभव नहीं करते हैं। दुर्भाग्य से भारत इस्लामी संस्कृति के इस ऋण से पूरा लाभ इसलिए नहीं उठा सका क्योंकि उसने इस्लाम की विशिष्टता को स्वीकार नहीं किया……'(पृ.95)

लेकिन, एम एन राय ने इस्लाम की जिस विरासत का उल्लेख किया है, दुर्भाग्य से वह अब नहीं रही है। मुस्लिम समुदाय उन्हीं अंधविश्वासों-पाखण्डों से घिरता चला जा रहा है, जिसे कभी इस्लाम ने दूर किया था। समानता की बात करने वाले मजहब के मूलभूत सिद्धान्तों को आज अनुयायियों ने भुला दिया है। आज मुस्लिमों में भी भेदभाव और जातिवाद का रोग फैल चुका है। मुस्लिम नेता आज जरा-जरा सी असहनीय बातों पर सिर गिरा देने की बात करते हैं, जबकि वह यह नहीं जानते कि इसी इस्लाम ने पूर्व में नास्तिकों और मजहब पर सवाल उठाने वालों को भी सम्मान दिया था। आज पर्दे के नाम पर स्त्रियों को पीछे धकेला जा रहा है और उन आदर्शों का ढोल पीटा जा रहा है, जो कभी इस्लाम में आदर्श नहीं रहे। हर युग और समाज में बदलाव आता रहा है और हमें उन बदलावों को स्वीकार कर आगे बढ़ने की जरूरत है, न कि फतवों में उलझे रहने की। शिक्षा जैसी मूलभूत चीजें आज उसी कौम को मुहैया नहीं है, जिसने कभी विश्व को अलकाजी, अबूबकर, गजाली, रूमी जैसे अहले इल्म दिए। आज हमें वक़्त के साथ बदलने की जरूरत है और पहचान करने की जरूरत है क्रांतिकारी विरासत को, ताकि हम कठमुल्लापन और कट्टरतावाद के लिबास को उतारकर तरक़्क़ी कर सकें।

किताब-इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका, लेखक- एम एन राय, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर- 334003

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