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‘आप’ के रास्ते भाजपा की दिल्ली में वापसी

जयप्रकाश नारायण 

भाजपा भारी बहुमत से दिल्ली की विधानसभा मे वापस आ गई है। इसके लिए उसे 27 वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। भाजपा की वापसी से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है आम आदमी पार्टी परिघटना का उभरना और पराभव की तरफ आगे बढ़ जाना। हम जानते हैं कि समय के विकास के क्रम में संघ और अजीत डोभाल द्वारा संचालित ‌विवेकानंद फाउंडेशन से संबद्ध केजरीवाल टीम भाजपा से टकरा जाने के लिए मजबूर हुई थी।

हालांकि आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस विरोधी राजनीति से अपनी यात्रा शुरू की। 2013 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अन्ना नामक पुतले के साथ एक आरटीआई कार्यकर्ता, पूर्व आईआईटियन नौकरशाह केजरीवाल का राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरना अपने आप में ही भारतीय समाज में चल रही अंतः क्रियाओं की एक खास विशेषता को अभिव्यक्त करता है। केजरीवाल की पूरी चिंतन प्रक्रिया मध्यवर्गीय समाज के रोमांटिसिज्म के एक खास मॉडल का रूप थी। जिसमें गुडगवर्नेंस, सादगी, भ्रष्टाचार मुक्त राजनीत का तड़का लगा था। इस मध्यवर्गी रोमांटिक विशिष्टता के एक मंजिल पर पहुंच कर राजनीतिक ताकत बनने और अंततः हिंदुत्व की वैचारिक राजनीति के दलदल में उलझ जाने के बाद दिल्ली की सत्ता से बाहर होना एक दिलचस्प कहानी है।

अरविंद केजरीवाल  ब्यूरोक्रेट से धीरे-धीरे सूचना अधिकार आंदोलन के कार्यकर्ता के रूप में सामाजिक जीवन में सक्रिय हुए। मैग्सेसे पुरस्कार मिलने के बाद वह  उच्चमध्यवर्गीय  समाज में चर्चित व्यक्तित्व बने। हालांकि इसके पहले अपने एनजीओ के माध्यम से वह झुग्गी झोपड़ी, गरीबों के बीच में सुधारवादी आंदोलन या कार्यक्रम का संचालित  करते रहे थे।

2009 में सत्ता में वापसी के बाद मनमोहन सिंह  सरकार एक मंजिल में आकर वित्तीय पूंजी के हितों के अनुकूल कड़े फैसले लेने और कॉर्पोरेट लाबी के मुनाफे की हवस को संतुष्ट करने की स्थिति में नहीं रह  गई थी। इसलिए 2010-11 तक आते-आते मनमोहन सिंह भारतीय शासक वर्ग के लिए अप्रासंगिक हो चले थे।

ऐसी जानकारियां मिल रही हैं कि इसी समय संघ और विवेकानंद फाउंडेशन के नेतृत्व में नौकरशाही के अंदर संघ विचारधारा में दीक्षित अधिकारियों के समूह ने  भ्रष्टाचार विरोधी नेरेटिव खड़ा करने का  कार्यक्रम तैयार किया गया। इसके लिए” इंडिया अगेंस्ट करप्शन”, नामक  संगठन का निर्माण हुआ। हम जानते हैं की मुनाफे की  व्यवस्था की नाभि में भ्रष्टाचार का अमृत होता है। जिसके बल पर ही यह व्यवस्था टिकी होती है। जो समाज में न्यू नॉर्मल के रूप में सक्रिय है।

शायद ही कोई ऐसा भारतीय नागरिक हो जिसे अपने जीवन में भ्रष्टाचार के  तंत्र के अनुभव से न गुजरना पड़ता हो। इसलिए मनमोहन सिंह की नीतियों के अंदर मौजूद विसंगतियों का फायदा उठाने  की  रणनीति तैयार की गई। कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि तत्कालीन कैग प्रमुख विनोद राय (जाने-अंजाने ) के दौर में इसके लिए तार्किक आधार तैयार किए गए। महाराष्ट्र में कुछ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला चुके पूर्व सेना के ड्राइवर अन्ना हजारे को संघ और कारपोरेट जगत ने एक महान संत के रूप में आगे कर बड़ी राजनीतिक जनगोलबंदी शुरू की।

इंडिया अगेंस्ट करप्शन नामक संगठन के बैनर तले आंदोलन की शुरुआत हुई। जिसमें चर्चित आईपीएस किरण बेदी, पूर्व नौसेना अध्यक्ष रामदास, पूर्व थल सेना अध्यक्ष बीके सिंह, प्रशांत भूषण, प्रो, आनंद कुमार, जोगिंदर यादव के साथ केजरीवाल प्रमुख केंद्र बने।

इसमें तटस्थ दिखने वाले  अनेक नामचीन हस्तियां भी शामिल थी। इस संगठन ने भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए लोकपाल नियुक्त करने का सवाल केंद्रीय मुद्दा बनाया। जिसे भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए सर्व रोग हर दवा के रूप में पेश किया गया। बाद में बाबाओं, सन्यासियों के साथ मध्यवर्गी  समाज की एक पूरी टीम ही आंदोलन में शामिल हो गई। भ्रष्टाचार व काले धन के खात्मे और विदेश में जमा काले धन की वापसी के सवाल के साथ महंगाई जैसे मुद्दे को  जोड़कर  जन आंदोलन की शक्ल दी गई।

इस समय तक मीडिया कॉर्पोरेट के हाथ में जा चुका था और उस पर हिंदुत्व की  वैचारिकी हावी हो चुकी थी। वस्तुतः  आंदोलन जनता के बुनियादी  सवालों को संबोधित तो कर रहा था लेकिन संघ और कॉरपोरेट  नियंत्रण के कारण अंतर्वस्तु में जनतांत्रिक चेतना के कमजोर होने के कारण इस आंदोलन द्वारा समाज को और ज्यादा दक्षिणपंथी दिशा में  ले जाने में सफलता मिली। केजरीवाल इसी प्रक्रिया की उपज थे।

दूसरी बात बाबरी मस्जिद ढहाने और एलपीजी के आने के बाद भारतीय समाज  दक्षिणपंथ की तरफ मुड़ गया था। स्वतंत्रता आंदोलन की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के कमजोर होने और सोवियत संघ के बिखरने के बाद भारतीय समाज में हिंदुत्व का प्रभाव बहुत तेजी से बढ़ा।1992 से 2002 के बीच के10 वर्ष के संक्रमण काल के समाप्त होते ही हिंदुत्व भारतीय राज्य सत्ता के केंद्र  में स्थापित हो गया। गुजरात नरसंहार के बाद कॉर्पोरेट लाबी को एक ऐसा नेता मिल चुका था जो उनके हितों के अनुकूल लोकतांत्रिक  संस्थानों को निर्ममता पूर्वक इस्तेमाल  कर सके।

यहां एक तथ्य याद रखने की जरूरत है कि 1955 के आसपास जेपी  सर्वोदय आंदोलन में आये। उनके आने के बाद  सर्व सेवा संघ, गांधी शांति प्रतिष्ठान या इस तरह की संस्थाएं( जो विभिन्न स्तर पर गांधी जी के सुधारवादी सामाजिक कार्यक्रमों जैसे अछूतोद्धर ,खादी का प्रचार-प्रसार तथा आदर्शवादी दक्षिणपंथी सनातनी आश्रम पद्धति मार्का संस्करण   ) धीरे-धीरे कांग्रेस विरोधी दिशा में जाने लगी । साथ ही ये संस्थाएं साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी पर आश्रित होती गई। विकासशील देशों में साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के सहयोग से  सामाजिक कल्याण शिक्षा के विस्तार लैंगिक समानता पर्यावरणीय अनुकूलता तथा आदिवासियों पिछड़ों और दलितों के उत्थान और विकास के नाम पर एनजीओ के जाल फैलने लगे।  इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी आंदोलन के मुख्य संचालक शक्ति जहां छात्र युवा थे। वही उसमें इन सर्वोदयी व‌ गांधीवादी संस्थाओं का बड़ा योगदान था। जिन्हें वित्तीय पूंजी के युग में विदेशी फंडिंग पर ज्यादा आश्रित रहना पड़ता था। बाद के दिनों में जेपी आंदोलन से निकली छात्र युवा संघर्ष वाहिनी जैसी गैर राजनीतिक संगठन सामाजिक कार्य के लिए विदेशी फंडिंग या कॉरपोरेट पूंजी पर आश्रित होत गए। जिस कारण से इनकी लोकतांत्रिक चेतना  छीजना शुरू हो गई ।

 

बाद के दिनों में तो  एनजीओ  आदर्शवादी प्रगतिशील नौजवानों के लिए कैरियर और कैपिटल गेनिंग का मंच बन गये । लेकिन इन संस्थानों में एक टिकाऊपन भी था। वे कांग्रेस के भ्रष्टाचार, कॉर्पोरेटपरस्ती, अलोकतांत्रिक कारवाई  साम्राज्यवादी पूंजी के साथ गठजोड़ तथा विश्व व्यापार संगठन आईएमएफ विश्व बैंक आदि द्वारालायी गई नीतियों के समक्ष जब भारतीय राज्य ने समर्पण कर रहा था। उसके खिलाफ जन जागरण में उतर गए थे। ये संगठन महाशय डंकल द्वारा तैयार की गई नीतियों, उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण  के खिलाफ  मुखर आवाज और आंदोलनकारी ताकत भी बने। इसके अलावा असम में चले विदेशी हटाओ आंदोलन, बिहार प्रेस बिल, 59वां संविधान संशोधन राजीव गांधी के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इन संगठनों  सक्रिय भागीदारी रही। 90 के दशक में स्वदेशी आंदोलन में संघ के साथ इन संगठनों के भी भूमिका होने से इनमें आपसी अंतर संबंध भी बनने लगे थे ।धर्मनिरपेक्ष समावेशी लोकतांत्रिक अवधारणा के चलते स्वयंसेवी संस्थाओं को अंततः बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद  आरएसएस और भाजपा के विरोध में जाने के लिए बाध्य होना पड़ा।

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने पाखंडी गैर राजनीतिक आवरण के पीछे हजारों संस्थाओं का संचालन करता रहा है। जो सामाजिक चेतना के हिंदू कारण के साथ  अल्पसंख्यक व धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील समावेशी मूल्य विरोधी विचारों के प्रचार में लगी रहती हैं। यह संस्थाएं शिक्षा क्षेत्र से लेकर सामाजिक समूहों (जैसे दलितों आदिवासियों और हासिये के समाजो नृजातीय समूहों) में समरसता कायम करने के नाम पर हिंदूकरण और सर्वोपरि जमीन तक सामाजिक विभाजन के  एजेंडे के साथ अल्पसंख्यक विरोधी तथा लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ सक्रिय हैं। संघ तथ्य तर्क रहित आधारहीन घटनाओं सामंती वर्णवादी श्रेष्ठता के पृष्ठ गामी मूल्यों तथा हिंदू धर्म के मानवीय चरित्र को खत्म करते हुए  आक्रामक हिंसक और सैन्यी करण की दिशा में ले जाने केलिए  एनजीओ के आवरण का  इस्तेमाल करता रहा है।

तथ्य यह  है कि 2013 के दौर में  भारत में फैले हुए स्वयंसेवी संस्थाओं के जाल कांग्रेस विरोधी आंदलनों के केंद्र बन गए । हालांकि इस कालखंड में वाम जनवादी ताकतें भी कांग्रेस की लोकतंत्र विरोधी जन विरोधी साम्राज्यवाद परस्त नीतियों के खिलाफ  जनता के राजनीतिकरण के लिए संघर्ष कर रही थी। लेकिन गैर राजनीति का चोला ओढ़े हुए यह स्वयंसेवी संस्थाएं वस्तुतः अंतर्वस्तु में धुर वामपंथ विरोधी है और दक्षिणपंथी  मूल्य के प्रवक्ता के रूप में ही  काम करती है। इसलिए अन्ना आंदोलन को साम्राज्यवाद विरोधी बुनियादी दिशा से हटाकर निरपेक्ष रूप से भ्रष्टाचार के सीमित दायरे में ले जाने का हर संभव प्रयास हुआ। जिसमें उन्हें कामयाबी मिली।

एनजीओ  आंदोलन की आंतरिक विशिष्टता को समझते हुए संघ परिवार  इन्हें अपने काम में लगा लेने में कामयाब हुआ। 2013 का अन्ना आंदोलन संघ और एनजीओ के युग्म का योगफल था। जो अपने अंतर्वस्तु में दलित अल्पसंख्यक आदिवासी तथा मेहनतकश वर्गों के साथ  प्रगतिशील लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का विरोधी था। इस आंदोलन की दो उपलब्धियां थी। एक  आम आदमी पार्टी का गठन और दिल्ली विधानसभा में  केजरीवाल का पहुंचना। दूसरा केंद्रीय सत्ता पर हिंदुत्व के सबसे आक्रामक कॉर्पोरेट परस्त सांप्रदायिक नेतृत्व का धड़ल्ले से जा बैठना। 2013 में अन्ना हजारे के अलावा रामदेव मार्का‌ सन्यासियों को आगे कर  चले आंदोलन की यह दो बड़ी उपलब्धियां थी। यह भारतीय समाज के उदारवादी समूह की असफलता ही है कि वह इस आंदोलन के खतरनाक परिणाम को समझ नहीं सके और आंदोलन में सक्रिय  भूमिका निभाते रहे।

इस संदर्भ में देखें तो आम आदमी पार्टी परिघटना कोई स्थाई राजनीतिक प्रवृत्ति नहीं है। इसे वस्तुत: कॉर्पोरेट हिंदुत्व गठजोड़ के विस्तृत दायरे में ही देखना होगा । इसलिए इसे एक मंजिल के बाद  हिंदुत्व की मूल विचारधारा में विलीन हो जाना ही है। आज केजरीवाल के रास्ते दिल्ली की सत्ता पर बीजेपी का वापसी इसी परिघटना की स्वाभाविक परिणिति है ।

 

जहां तक केजरीवाल के बेहतर प्रबंधक होने स्कूल बिजली स्वास्थ्य जैसे सवालों को केंद्रीय मुद्दा बनाने के प्रयास ने आकर्षक तो पैदा किया था।( मोदी मार्का काम कम मार्केटिंग ज्यादा की नीति)! लेकिन दिल्ली में घट रही सांप्रदायिक विध्वंस की घटनाओं पर तटस्थ रहने के दृष्टिकोण से स्पष्ट हो जाता है कि आम आदमी पार्टी विचारधारा विहीन विशुद्ध परिणाम वादी पार्टी है ।जिसे कट्टर हिंदुत्व के  आक्रामक दौर में अंततोगत्वा आत्मसमर्पण करना ही था।
दूसरा पक्ष कि मोदी सरकार ने आम आदमी पार्टी के नेतृत्व पर जिस तरह से दमन और हमला किया। वह  ऐसी पहेली नहीं  है जिसे समझा न जा सके। भारत के हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ मार्का  फासीवाद सहित दुनिया में फासीवद  का बुनियादी चरित्र रहा है कि वह जिन शक्तियों के सहयोग से सत्ता में पहुंचते हैं ।सबसे पहले उन्हें ही अपने रास्ते से हटाने की कोशिश करते हैं । भाजपा में कई बड़े नेताओं के हश्र को देखकर के आप यह बात समझ सकते हैं।

चूंकि आम आदमी पार्टी दिल्ली के सत्ता में आने के बाद एक खास मंजिल पर पहुकर भाजपा से टकराने के लिए मजबूर हो गई। इसके दो कारण है।

2014 में मोदी केनेतृत्व वाली  केंद्र सरकार की विपक्षी राज्य सरकारों के प्रति रवैया संघात्मक गणतंत्र के वसूलों के विपरीत और  शत्रुता पूर्ण रहा है। मोदी सरकार का दृष्टिकोण उन्हेंअस्थिर और साम दाम दंड भेद की नीति अख्तियार कर तोड़ देने की रही है। जैसा हमने मध्य प्रदेश महाराष्ट्र बंगाल तथा दक्षिण भारत की विपक्षी सरकारों के प्रति व्यवहार में देखा है। इसके लिए केंद्रीय एजेंसियों ईडी सीबीआई आईटी जैसे संस्थानों का दुरुपयोग करके नेताओं को गिरफ्तार करना उन्हें जेल में डालना उनके ऊपर नर्गल आरोप लगाना तथा नेताओं को डरा धमका कर अपनी पार्टी में शामिल कर लेना मोदी सरकार की बहु चर्चित नीति है। जो विधायक नेता या मंत्री मोदी सरकार के सामने समर्पण नहीं करते उन्हें जेल में बंद कर देना आम बात है। इस सरकार की बुनियादी नीति षड्यंत्र रचना जांच एजेंसियों का दुरुपयोग और बदले की भावना से काम करना है। जिसके शिकार  पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री के चिदंबरम से लेकर राहुल गांधी और मुख्यमंत्री तक हो चुके हैं। यही नीति आम आदमी पार्टी के प्रति दिल्ली और पंजाब में अपनाई गई है।

चूंकि दिल्ली सरकार वैसे भी लेफ्टिनेंट गवर्नर के नियंत्रण  है और राष्ट्रीय राजधानी होने के कारण पुलिस प्रशासन सहित कई विभाग केंद्र सरकार के हाथ में है। भाजपा ने लगातार एलजी का दुरुपयोग किया है। राज्य  सरकार जनकल्याणकारी प्रस्तावों और फैसलों को  मंजूरी न देना, योजनाओं को लंबित रखना और तरह-तरह से सरकार को काम करने से रोकना ही लेफ्टिनेंट गवर्नर की नीति रही है। जिस कारण से केजरीवाल सरकार के हाथ पैर बंधे हुए थे । एलजी ने दिल्ली सरकार  के साथ स्थायी टकराव की नीति केंद्र सरकार के इशारे पर ली । केजरीवाल केंद्र राज्य संबंधों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रति केंद्र की  कार्रवाइयों के खिलाफ विपक्षीय सरकारों और विपक्षी पार्टियों तथा लोकतांत्रिक शक्तियों को एकताबद्ध कर राष्ट्रव्यापी  प्रतिवाद करने की  नीति नहीं ली। जिस कारण वह इस बड़े लोकतांत्रिक सवाल पर  अकेले रह गई। जबकि मोदी सरकार सभी विपक्षी सरकारों के प्रति सौतेला व्यवहार कर रही थी। जैसे-जैसे मोदी सरकार सत्ता केंद्रीकरण करके निरंकुश होती जा रही थी। वैसे- राष्ट्रीय स्तर विपक्ष की सरकारों के साथ सहमति बनाने की कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन यहां केजरीवाल की व्यक्तिवादी कार्यशैली अवरोधक साबित हुई। केंद्र सरकार की इस नीति का मुकाबला करने के लिए  वह गुजरात गोवा महाराष्ट्र हरियाणा जैसे राज्यों में अपने  पार्टी के विस्तार करने और चुनावी सफलता द्वारा शक्ति अर्जित करने की कोशिश की। ‘आप’ की संभावनाओं का दरवाजा यहीं आकर बंद हो गया। जबकि मोदी सरकार के कारकामों से एक बड़ा मोर्चा बनाने के संभावनाएं दिखाई दे रही थी।

सत्ता पाने के बाद केजरीवाल ने भारत में उदारवादी जमीन को अपने कब्जे में लेकर एक नई चुनौती देने का असफल प्रयास किया। दूसरे एनजीओ समूहों  के लिए आने वाली सारी फंडिंग को मोदी सरकार ने नई नीतियां बनाकर सीधे अपने हाथ में ले लिया ।और इसका बहुत बड़ा भाग संघ से संबंधित विभिन्न संस्थाओं के पास जाने लगा। जिस कारण से विभिन्न स्वयं सेवी सामाजिक  संगठनों को मोदी सरकार के विरोध में जाना ही पड़ा। चाहे वह पर्यावरण से संबंधित रही हो। या सामाजिक सौहार्द न्याय लोकतंत्र के लिए आवाज उठाने वाले या दलित पिछड़ा और अल्पसंख्यकों  के अधिकारियों के लिए‌ कम करने वाली संस्थाएं हो। या नागरिक अधिकारों व मानवाधिकारों की रक्षा के लिए आवाज उठानेवाले समूह रहे हो। सबको एक मंजिल में भाजपा के खिलाफ खड़ा होना पड़ा जो। अंन्ना आंदोलन की संचालक शक्तियां थी।

इसलिए राज्य मशीनरी का प्रयोग करते हुए दमन के द्वारा नियंत्रित करने की मोदी अमित शाह शैली का खामियाजा इन सभी संगठनों सहित आम आदमी पार्टी को भी भुगतना  पड़ा।हम जानते हैं कि वर्तमान भाजपा सरकार विपक्ष और असहमति मानव अधिकार सामाजिक न्याय तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों आदि का किसी तरह का सम्मान नहीं करती है। वैचारिक विरोध को वह निजी शत्रुता के रूप में लेती है । इस कारण मोदी सरकार से किसी भी तरह के लोकतांत्रिक व्यवहार की उम्मीद करना बेमानी है । इसी संदर्भ में हमें आम आदमी पार्टी पर हुए दमन को देखना चाहिए।

आप पर चले दमन को देखकर यह नहीं समझना चाहिए कि केजरीवाल कोई स्वतंत्र लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राजनीति का प्रतिनिधित्व करने लगे हैं । या भारतीय जनतंत्र को नई  लोकतांत्रिक दिशा में ले जाने की उनके अंदर कोई क्षमता है। आम आदमी पार्टी द्वारा शुरुआती संस्थापक नेताओं  के साथ किए गए सलूक इस  बात की तस्दीक  करते हैं कि वह किसी भी पैमाने पर लोकतांत्रिक व्यक्तित्व वाले राजनेता नहीं है। वह वस्तुतः एक विचारधारा विहीन परिणामवादी मैनेजर ही हो सकते थे। साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के काल में ऐसी शक्तियां क्षणिक बुलबुला ही साबित होती है।इसका मतलब यह नहीं कि इस तरह की प्रवृत्ति भारतीय राजनीति में मौजूद नहीं रहेगी। एक विशाल विविधता वाले मुल्क में ऐसी प्रवृत्तियों का अवशेष के रूप में बने रहना स्वाभाविक है।

अगर हम दिल्ली विधानसभा के चुनाव जीतने के बाद मोदी के शब्दों को ही पलट कर उद्धृत करें तो  सरकार परिवर्तन भारत के लिए आपदा के बाद विपदा ही होने जा रहा है। दिल्ली विजय के बाद आक्रामक हिंदुत्व  भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक ताकतों, हासिए के समूहों, अल्पसंख्यकों  तथा दलितों-पिछड़ों के लिए त्रासदी ही होगा । कुछ विश्लेषकों का यह कहना कि आम आदमी पार्टी को 44% वोट मिले हैं। यह एक बहुत बड़ा सामाजिक समूह है। इसलिए इस ताकत पर खड़ा होकर केजरीवाल मोदी-शाह के आक्रामक हिंदुत्व का मुकाबला करने की स्थिति में है। हमारा मानना है कि केजरीवाल को मिले  वोट वस्तुतः भाजपा विरोधी वोट है। जो कांग्रेस के पुनर्जीवन के अभाव में न चाहते हुए भी आम आदमी पार्टी को मिले ।  आम आदमी पार्टी ने तीन मौके पर अपनी लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता धर्मनिरपेक्षता और समावेशी राजनीति के साथ विश्वासघात किया था। इस कारण दिल्ली के एक बड़े समाज  के लिए वह मजबूरी की वोटिंग थी।

जेएनयू के छात्रों पर हुए एबीवीपी के हमले, लोकतंत्र के लिए शाहीन बाग की महिलाओं द्वारा चलाए गए बेमिसाल संघर्ष और दिल्ली में भाजपा प्रायोजित अल्पसंख्यकों के कत्लेआम के समय केजरीवाल सरकार ने तटस्थता का बाना धारण करके भाजपा को ही मजबूत किया। जब एक बार किसी पत्रकार ने केजरीवाल से शाहीन बाग के लोकतांत्रिक संघर्ष के बारे में पूछा तो उन्होंने सीधे-सीधे कहा कि हमारे एजेडें में स्कूल बिजली पानी जैसे सवाल हैं। इसका मतलब साफ था कि वह हिंदुत्व के विध्वंसक मॉडल के खिलाफ कहीं से भी लड़ने के लिए  प्रतिबद्ध नहीं दिखे। बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर करते हुए पार्टी को अपनी निजी संस्थान  में बदल दिया ।आम आदमी पार्टी की मुख्य धारा की राजनीति में हिंदूत्ववादी उच्च वर्गीय लोगों का ही वर्चस्व था। जिसमें कुछ अवांछनीय तत्व संजय सिंह, गोपाल राय जैसे अभी भी रह गये है। जिनका संगठन में कोई प्रभाव नहीं था। प्रशांत भूषण, प्रोफेसर आनंद कुमार और पत्रकार आशुतोष, एडमिरल  रामदास जैसे लोगों को तो पहले ही पार्टी से बाहर कर दिया गया है। पूरी पार्टी केजरीवाल, मनीष सिसोदिया जैसे संघ के करीबी लोगों के हाथ में ही थी । (केजरीवाल का संघ को पत्र लिखना)।

अंत में आतिशी सिंह को मुख्यमंत्री बना करके केजरीवाल ने संकेत दे दिया था कि उनकी भी लोकतांत्रिक समझ लालू यादव या नीतीश कुमार से ज्यादा आगे नहीं जाती। यानी केजरीवाल को भी पार्टी में जड़ विहीन खुशामदी लोगों की ही आवश्यकता है। जो उनका महिमा मंडन करने में दिन-रात लगे रहे। यह बात बहुत साफ है कि मोदी के व्यक्तिवादी अहंकार से भाजपा आज जिस तरह ग्रसित है, आप की भी स्थिति केजरीवाल के नेतृत्व में कमोबेश वैसी ही है ।

फिर भी आम आदमी पार्टी की पराजय से जनतांत्रिक शक्तियों और लोकतांत्रिक आंदोलन को धक्का लगा है। आप के दिल्ली की सत्ता में रहने से चाहे जितना ही कमजोर प्रतिरोध रहा हो । दिल्ली विधान सभा से भाजपा के  बाहर रहने के कारण उत्तर प्रदेश या मध्यप्रदेश   की तरह बुलडोजर न्याय  का रास्ता साफ नहीं हुआ था। बस इस अर्थ में ही आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में बनी रहे, यह लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और न्यायपसंद लोगों की आकांक्षा थी। विगत 13 वर्षों में केजरीवाल उनकी टीम ने बार-बार जन आकांक्षाओं के साथ विश्वास घात किया था। जिस कारण से आज दिल्ली की गद्दी पर  डबल इंजन की सरकार आ गई है।

आम आदमी पार्टी की हार के दूरगामी परिणाम भी होंगे। जिस इंडिया गठबंधन ने जून 2024 के चुनाव में भाजपा के साम दाम दंड भेद तकनीक और धर्म के योग फल‌  पर खड़ी चुनावी यात्रा को रोक दिया था । अब फिर उन शक्तियों को पुनर्विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। जिन्होंने किन्ही कारणों से दिल्ली विधानसभा के चुनाव में इंडिया गठबंधन के महत्व को कम करने का प्रयास किया। आज यह बात बहुत साफ हो गई है, कि भारत के जन-गण उन सभी राजनीतिक सामाजिक शक्तियों की एकता को देखने और उसका स्वागत करने के लिए तैयार बैठे हैं। जो संवैधानिक गणतांत्रिक भारत की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है ।

दिल्ली चुनाव परिणाम की आवाज को  सामाजिक न्याय से लेकर मध्यवर्ती राजनीतिक ताकतों और क्षेत्रीय दलों के नेता अगर  सुन सके, तो आईडिया ऑफ़ इंडिया के साथ-साथ भारत की लोकतांत्रिक समावेशी विचार प्रक्रिया को जिंदा रखा जा सकेगा। उम्मीद है कि वे सभी तरह के लोग जो हिंदुत्व कॉर्पोरेट गठजोड़ के विध्वंसक कामों को देख रहे है, निश्चय ही लोकतांत्रिक समाज की आवाज को सुनेंगे और अपनी सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ आगे आएगे। फासीवाद की इस महा विपदा का एकता बद्ध जवाब देने के लिए व्यापक एकता के मंच का निर्माण करने के लिए आवश्यक कदम उठाएंगे!

फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार 

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