आज पटना के गाँधी मैदान में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी – लेनिनवादी ) की रैली थी . जिसमें भेस बदलकर कुछ समय केलिए मैं भी गया था ,तमाशा देखने . यूँ , आयोजकों ने आमंत्रित भी किया था . कुछ रोज पहले बिहार भाकपा माले के सचिव कुणाल जी मिलने आये थे . उनसे देर तक बातें हुई थीं .
भाकपा माले देश की तीसरी कम्युनिस्ट पार्टी है ,जो बंगाल के नक्सलबाड़ी जिले में किसान विद्रोह को समर्थन देने के क्रम में बनी . इसलिए इन्हे असली नक्सली कहा जा सकता है . पार्टी ने इतने लम्बे समय में स्वयं को बहुत बदला है . इसके दिवंगत नेता विनोद मिश्र में बदली हुई स्थितियों में खुद को बदलने की जादुई ताकत थी . आज भी शायद यह पार्टी उसी रास्ते पर है . फिलहाल यह बिहार की एकमात्र कम्युनिस्ट पार्टी है ,जिसके विधान सभा में तीन सदस्य हैं और मिहनतक़श तबकों के एक बड़े हिस्से पर जिसकी पकड़ है .
भाकपा माले खुद को आज भी बदल रही है . इसी महीने 5 सितम्बर को गौरी लंकेश की बरखी पर पार्टी महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य और मैंने एक सम्मेलन को सम्बोधित किया था . बाद में उसी रोज फासिज्म के खिलाफ सड़क पर एक नुक्क्ड़ सभा को भी सम्बोधित किया था . मैंने यही महसूस किया , दीपांकर लकीर के फ़क़ीर बनना नहीं चाहते . उनकी पार्टी एक नए वैचारिक आयाम में प्रवेश करना चाहती है . या उसके लिए पंख फड़फड़ा रही है . माले ने मार्क्सवाद को फुले ,आंबेडकर के विचारों और भगत सिंह के सपनों से मंडित करने की पहल की है . 1990 के दशक में ही इस पार्टी ने ब्राह्मणवाद विरोध को अपनी कार्य सूची में शामिल किया था . आज वह इस पर जोर दे रहे हैं .
मार्क्सवाद के साथ फुले -अम्बेडकरवाद की समझदारी यदि जुड़ती है ,तब भारत में एक बड़ी वैचारिक क्रांति की सम्भावना बनेगी . भाजपा की फासिस्ट राजनीति आज जिस मुकाम पर है ,उसे मानसरोवर यात्राओं और जातियों के जोड़ तोड़ की राजनीति से जवाबा नहीं जा सकता . एक वैज्ञानिक राजनैतिक चेतना की जरूरत होगी ,जिसे मार्क्स -फुले -आंबेडकर -भगत सिंह के विचारों के माध्यम से ही हासिल किया जा सकता है .
कुछ लोगों ने मार्क्सवाद को बहसों में बाँध दिया है और आंबेडकरवाद को आरक्षण में . ऐसे लोगों ने इन दोनों के विचारों को बाँझ बना दिया है . आम्बेडकर अपने विचारों में किसी मार्क्सवादी से अधिक वैज्ञानिकता रखते हैं . उनने गाँधीवादी ग्रामवाद को नहीं स्वीकार किया . शहरीकरण पर जोर दिया . भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात की और मज़दूर तबके केलिए मौलिक ढंग से सोचा . उन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दलितों के सवाल पर नहीं , स्त्रियों के सवाल पर दिया था . गांवों का सुस्त जीवन यापन ,ज़मीन पर हल नहीं जोतने वालों की मिल्कियत और स्त्रियों की गुलामी –यही ब्राह्मणवादी जातिवादी व्यवस्था के आधार हैं .इसी से एक सुस्त गतिहीन आर्थिक व्यवस्था बनती है .
मार्क्सवाद यूरोपीय समाज ,खासकर उन्नीसवीं सदी के समाज को देखकर साकार हुआ था . मार्क्स इंग्लैंड के संसदीय विकास ,फ्रांसीसी क्रांति और अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन से बहुत प्रभावित थे . आंबेडकर भी विश्व की इन तीनों घटनाओं से अत्यधिक प्रभावित थे . इसमें उन्होंने भारतीय वैचारिक आंदोलन को भी शामिल कर लिया था . खासकर बौद्ध विवेकवाद को . उनकी किताब रेवोलुशन एंड काउंटर रेवोलुशन इन अन्सिएंट इंडिया से यह स्पष्ट है . मार्क्स ने 1858 में भारत विषयक लेखों में ग्रामीण स्तर की सुस्त अर्थव्यवस्था को ही ओरियंटल डिस्पोटिस्म और जटिल जातिवाद का आधार माना है . आंबेडकर भी ऐसा ही सोचते थे . हाँ ,वह मार्क्स के सर्वहारा अधिनायकवाद से सहमत नहीं थे . इसकी जगह वह सर्वहारा का जनतंत्र चाहते थे .
लेकिन अब बातें नहीं , रैली की कुछ छवियां . रैली में ही ले चलता हूँ . चिलचिलाती धूप है . खुला मंच . जनता यदि धूप में है, तो नेता भी . अंतर इतना ही है कि उनके लिए प्लास्टिक की कुर्सियां है . मैंने घूम -घूम कर लोगों से बातें की . जनवितरण प्रणाली ,स्कूल ,स्वास्थ्य आदि पर बातें की . मोदी और नीतीश का बाजार भाव जानना चाहा . जनता में बेहद गुस्सा है . यह गुस्सा समाज के सबसे निचले हिस्से का है . ये दलित नहीं हैं ,ओबीसी -सवर्ण नहीं हैं ,गरीब -गुरबे हैं . सर्वहारा हैं . इनका ग़ुस्सा मतलब रखता है . लेकिन दिनरात जाति की राजनीति कर रहे पेशेवर राजनेता और पत्रकार इस गुस्से को नहीं समझना चाहेंगे .
मंच से हो रहे भाषणों में मेरी दिलचस्पी नहीं थी . उन हज़ारों चेहरों और आँखों को मैं पढ़ना चाहता था ,जो मलिन कहे जा सकते थे . वे फटेहाल थे ,बदहाल थे ,लेकिन उदास नहीं थे . उनकी आँखों में एक सपना था . बेहतर जीवन , बेहतर भविष्य का सपना . दिल्ली और पटना की धारा -सभाओं में जुगाली कर रहे तथाकथित नेताओं से वे अधिक राजनीतिक भी थे . वे हिंदुत्व और इस्लाम के लिए नहीं ; अपने भारत के लिए चिलचिलाती धूप में बैठे या खड़े थे .