जिया उस-सलाम
वह अदीब जिसके नज़दीक अहम जंगें अदबी महफिलों में नहीं ज़िन्दगी के कूचों में लड़ी जाती हैं।
अरुन्धती राॅय को सुनने का मतलब ही है खुद को रोशनी से लबालब कर देना। वह आपमें यह भरोसा भर देती हैं कि चढ़ाई चाहे कितनी भी तीखी क्यों न हो, उसे फ़तह किया जा सकता है।
जैसे कि चार साल पहले जयपुर के शाहीन बाग मे नागरिकता संशोधन अधिनियम के खि़लाफ़ चल रहे आन्दोलन में जब उन्होंने अपनी सुविधाजनक भाषा, अंग्रजी से हटकर अटक-अटक कर ही सही उर्दू-हिन्दी की मिली जुली ज़बान में श्रोताओं को सम्बोधित किया उस समय भी पूरी मजबूती से अपनी बात रखने में वह कामयाब रहींः
‘‘जब हम सिर्फ़ अपने लिये लड़ते हैं तो वह जंग इन्साफ़ के लिये नहीं होती, इन्साफ़ की जंग वह होती है जिसे हम एक-दूसरे के लिये लड़ते हैं।’’
अरुन्धती राॅय का यह बयान जीवन और उसके सरोकारों को लेकर उनके नज़रिये के बारे में काफी कुछ कह देता है। लेखिका को यक़ीन है कि काइयाँपन और कट्टरता के खि़लाफ़ अधिकतर अहम जंगें अदबी महफिलों में नहीं बल्कि ज़िन्दगी के कूचों में लड़ी जाती हैं।
यह सच है कि इन्हीं में से कुछ चुनौतियाँ आहिस्ता से किताब के पन्नों में सरक जाती हैं। 2017 में अपनी किताब ‘‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पिनेस’’ के विमोचन के अवसर पर उन्होंने बात-बात में मुझसे कहा था कि,
‘‘बेआवाज़ जैसी कोई चीज़ नहीं होती, यदि कुछ होता है तो वह है आवाज़ों को जबरन ख़ामोश कर दिया जाना। मैने अपने आपको कभी लड़ाका नहीं माना। मैं तो एक लेखिका हूँ। मैं उसी दुनिया को कागज़ पर उतारती हूँ जिसमें मैं रह रही हूँ। बीते दिनों में लेखकीय सक्रियता के लिये माहौल माकूल था। इसीलिये उस ज़माने में लेखकों को ‘ख़तरनाक’ माना जाता था। इन दिनों लगता है कि लेखक होने के मायने सिकुड़ गये हैं; उनसे ख़ुशामदी होने की उम्मीद की जाती है, उनसे उम्मीद की जाती है कि वे अपने खे़मे अदबी महफिलों और बेस्टसेलर की सूची के बीच कहीं गाड़ें और वहीं तक महदूद रहें। इसी लिये आज, इस बदले और सिकुड़े हुये मायनों के दौर में जब आप ऐसे लेखकों से दो-चार होते हैं जो गुज़रे ज़माने के लेखकों की तर्ज़ पर लिखना जारी रखे हैं तो आपको भी अपने काम को उन्हीं के काम से जोड़ देना है।
अरुन्धती राॅय को ‘पेन पिंटर’ पुरस्कार दिये जाने की घोषणा, एक बार फिर उसी भावना का जोरदार उद्घोष है। इस पुरस्कार के निर्णायक मंडल ने कहा है कि, ‘‘दुनिया पर उनकी टिप्पणी ‘बेधड़क और निर्णायक’ होती है और वह हमारे जीवन और समाज के वास्तविक सत्य को परिभाषित करने में उनकी प्रखर बौद्धिक निश्चयात्मकता……… का प्रदर्शन करती है’’।
और इस पुरस्कार को सहर्ष प्राप्त करते हुये अरुन्धती राॅय ने कहा कि,
‘‘आज विश्व जिस लगभग अकल्पनीय मोड़ से गुजर रहा है उसे कागज़ पर उतारने के लिये काश हेराॅल्ड पिंटर हमारे बीच होते। पर चूँकि ऐसा नहीं है इसलिये हममें से ही कुछ लोगों को इस ख़ालीपन को भरने की भरसक कोशिश करनी चाहिये।’’
हमख़्यालों की कमी नहीं है
जिस ‘लगभग अकल्पनीय मोड़’ का जिक्र उन्होंने किया है वह वास्तव में ‘निस्सन्देह कल्पनीय’ था। 2010 में एक सेमिनार में उन्हें और प्रखर बुद्धिजीवी शेख़ शौकत हुसेन द्वारा कश्मीर पर की गयी एक टिप्पणी के लिये दिल्ली के उप-राज्यपाल वी0के0 सक्सेना द्वारा उनके खि़लाफ़ ग़ैर कानूनी गतिविधियाँ निवारण अधिनियम (यू0ए0पी0ए0) के अन्तर्गत मुकदमा चलाये जाने के लिये पुलिस को अनुमति दिये जाने के बमुश्किल दो हफ्तों के अन्दर ही इस पुरस्कार की घोषणा हुयी थी।
लेकिन दूसरे सामाजिक सरोकारों की तरह इस बार भी उन्हें समर्थकों की कमी नहीं पड़ी। 200 से अधिक विद्वानों और पत्रकारों द्वारा एक खुले ख़त के ज़रिये सरकार के इस कदम की निंदा और इसके खि़लाफ़ अपील जारी करते ही, ‘‘कि स्वतंत्र रूप से और निर्भय होकर किसी विषय पर अपने विचार व्यक्त करने के मूलाधिकार से किसी को वंचित नहीं किया जा सकता’’ एक आन्दोलन इसी भारत में खड़ा हो जाता है।
पुणे के राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग एवं संयुक्त किसान मोर्चा ने भी उनके समर्थन में अपनी आवाजें बुलन्द कीं। उनके समर्थन का सीधा मतलब यह था कि एक लेखक की सीमाओं सम्बन्धी अवधारणा से वह आगे निकल चुकी हैं।
यह लोकप्रियता बड़ी मुश्किल से कमाई गयी है। मुझे दिसम्बर 2019 की हाड़कँपाती शाम में इंडिया गेट के लाॅन पर जे0एन0यू0 और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों/छात्राओं से राॅय का घुलना-मिलना याद है।
वे लोग नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे और इससे उनका कोई सीधा सम्बन्ध न होने के बावजूद उन्होंने युवाओं से सम्बन्ध बना लिया। बुकर पुरस्कार पाने और एक लेखिका होने की ठसक से बहुत दूर, उन्होंने फोटो खिंचवाई और पर्चियाँ भी बाँटी।
उन्होंने एक हफ्ते बाद फिर यही किया जब उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में जाकर छात्रों को सावधान किया कि,‘‘एन0पी0आर0 (राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी) एन0आर0सी0 (राष्ट्रीय नागरिकता पंजी) के लिये डाटाबेस का काम करेगी।’’
उन्होंने दहाड़ लगायी कि, ‘‘हमलोग लाठी गोली खाने के लिये नहीं पैदा हुये हैं,’’ औेर जवाब में छात्रों ने नारा बुलन्द किया, ‘‘इंक्लिाब ज़िन्दाबाद’’। एक लेखिका एक कार्यकर्ता में जज़्ब हो चुकी थी।
‘‘ हम मोहब्बत के मुकाम से बोलते हैं ’’
अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिये वक़्त के मुताबिक़ ज़बान का बेहिचक इस्तेमाल करने वाली राॅय ने राज्य को विकास के अदृश्य परिणामों एवं अल्पसंख्यकों और दलितों के उत्पीड़न के प्रति आग़ाह करने के लिये छद्म उदारवाद के छल से दो-दो हाथ करते हुये सन्तुलित परन्तु मारक भाषा का प्रयोग किया।
नर्मदा बचाओ आन्दोलन के दौरान मेधा पाटकर के कन्धे से कन्धा मिलाना हो, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों या कश्मीरियों के अधिकारों की लड़ाई हो या शाहीन बाग की महिलाओं के साथ खड़ी होना हो, राॅय ने, बग़ैर इस बात की परवाह किये कि वह तनहा हैं या किसी जुलूस में, हमेशा ही हुकूमत को आईना दिखाया है।
एक बार उन्होंने कहा था,
‘‘हम नफ़रत के नहीं बेपनाह मोहब्बत के मुकाम से बोलते हैं। और यही वज़ह है कि हम दिलोजान से जूझ जाते हैं।’’