प्राकऐतिहासिक काल से ही जब मानव ने अपने परिवेश को देखना समझना शुरू किया तो उसे प्रकृति को लेकर एक कौतूहल जागा होगा। सूरज, चाँद, तारों का उगना, अस्त होना, अलग-अलग स्थान बदलते रहने ने उसे अचंभित किया होगा और इसे सृष्टिकर्ता, ईश्वर का चमत्कार मानते उनमें से कुछ लोगों ने इसके पीछे छुपे सिद्धान्त को तलाशना भी आरंभ किया होगा और विज्ञान की दिशा में पहला कदम बढ़ाया होगा।
पूरे विश्व में ही प्राकऐतिहासिक मानवों की सभ्यता के ऐसे अवशेष प्राप्त होते हैं जिनका निर्माण खगोलीय अध्ययन के लिए होता था; उदाहरण के लिए इंग्लैंड के स्टोन हेंज (Stone Henge) जो Solstice के अध्ययन के लिए निर्मित किए गए थे ।
भारत की धरती भी इस वैश्विक विरासत से अछूती नहीं रही है जो यहाँ भी एक समृद्ध प्राकैतिहासिक सभ्यता के अस्तित्व की पुष्टि करती है। झारखण्ड की राजधानी रांची से लगभग 90 km की दूरी पर हजारीबाग जिला स्थित है, जो अपनी प्राकृतिक सुन्दरता की वजह से काफी चर्चित रहा है। यहीं से 25 km की दूरी पर बड़कागांव प्रखंड में स्थित है – पंखरी बरवाडीह गांव। यहाँ ऐसे विभिन्न स्थलों में एक स्थल है जहाँ बड़े-बड़े पत्थरों से बनी वो संरचना संभवतः तब से खड़ी है जब मानव धरती के रहस्यों को समझने का प्रयास आरंभ कर रहा था।
यह Megalithic स्थल संभवतः Equinox के अवलोकन के लिए प्रयुक्त होता था। ईक्विनौक्स वह दिन है जब सूर्य भूमध्य रेखा के ठीक ऊपर होता है। Equinox शब्द लैटिन के Aequus, यानि ‘बराबर’ और Nox, यानि ‘रात’ से मिलकर बना है, अर्थात जब दिन और रात की अवधि बराबर होती है।
आज भी यहाँ 20/21 मार्च व 22/23 सितम्बर को 2 विशाल पत्थरों के बीच बनी ‘V’ आकृति से सूर्य को उगते देखा जा सकता है। जाहिर है कि इस पॉइंट से सूर्य की उत्तरायण व दक्षिणायन गति भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
Equinox को देखने की लगभग लुप्त हो चुकी परम्परा को पुनः स्थापित करने वाले अन्वेषक श्री शुभाशीष दास मानते हैं कि यह स्थल कई और खगोलीय रहस्यों को उजागर कर सकता है। यह संभवतः भारत का एकमात्र स्थल है जहाँ आम लोग सिर्फ़ Equinox के अवलोकन के लिए जुटते हैं।
यह अलग बात है कि अपने धरोहरों की उपेक्षा और दुर्दशा करने में भी हमारा कोई सानी नहीं है। यह स्थल भी इस स्थिति से गुजर रहा है। स्थानीय स्टार पर उपेक्षा, संरक्षण का अभाव, असामाजिक तत्वों से खतरा के साथ ही अब यह खनन परियोजना के कारण भी अपने अस्तित्व को खोने की ओर अग्रसर है। एक दुर्लभ विरासत जिसे देखने विदेशों से भी लोग आते रहे हैं और जिसपर कई शोध हो सकने की संभावना थी अब अपना अस्तित्व और प्रभाव खो देने की ओर खामोशी से बढ़ रही है। मगर फिर भी जब तक शेष है एक प्राचीन खगोलीय परम्परा से जुड़ने की अनुभूति तो पा ही सकते हैं हम लोग.
(अभिषेक कुमार मिश्र भूवैज्ञानिक और विज्ञान लेखक हैं. साहित्य, कला-संस्कृति, विरासत आदि में भी रुचि. विरासत पर आधारित ब्लॉग ‘ धरोहर ’ और गांधी जी के विचारों पर केंद्रित ब्लॉग ‘ गांधीजी ’ का संचालन. मुख्य रूप से हिंदी विज्ञान लेख, विज्ञान कथाएं और हमारी विरासत के बारे में लेखन. Email: abhi.dhr@gmail.com , ब्लॉग का पता – ourdharohar.blogspot.com)
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