समकालीन जनमत
जनमत

वैज्ञानिक-चित्त की खोज में पूरे जीवन बेचैन रहने वाला एक शिक्षाविद्

कमलानंद झा

(वैज्ञानिक यशपाल की स्मृति-दिवस पर विशेष)

प्रसिद्ध वैज्ञानिक यशपाल एक साल पूर्व चुपचाप इस दुनिया से चले गये, बगैर किसी शोर-शराबे के. जहाँ-तहाँ छिटपुट खबरें भी आईं. संभव है देश के विविध विज्ञान केंद्रों और संस्थानों में उनकी मृत्यु के पश्चात गंभीर विचार-विमर्श और गोष्ठियां  भी हुई हों किंतु देश में विज्ञान के लिये यह चिंता का विषय है कि आमजन यशपाल से परिचित नहीं हो पाये जबकि यशपाल की पूरी जद्दोजहद आमजन में विज्ञान को लोकप्रिय बनाना था, आमलोगों में वैज्ञानिक समझ को विकसित करना था.

पार्टिकल फिजिक्स के विलक्षण ज्ञाता और विज्ञान की समझ को ‘टर्निंग प्वाइंट’ धारावाहिक के जरिये जन-जन तक पहुँचाने का सपना देखने वाले यशपाल का सपना पूरा नहीं हो पाया. यशपाल का जाना सिर्फ एक वैज्ञानिक का जाना नहीं है, बल्कि एक ऐसे शख्सियत का जाना है जो प्रति पल, प्रति क्षण विज्ञान की सामाजिकता और विज्ञान के जन सरोकार के प्रति चिंतित रहता था. यशपाल बराबर इस बात को रेखांकित करते थे कि देश में सभी अपने बच्चों को विज्ञान पढ़ाना चाहते तो हैं किंतु वैज्ञानिक दृष्टि नहीं देना चाहते. बच्चों के आगे समाज की पूरी संरचना विज्ञान के प्रतिकूल है. बगैर दृष्टि और समझ के विज्ञान शिक्षा का मूल्य उनके लिए नहीं था. विज्ञान शिक्षा का मतलब उनके लिये सभी तरह की संकीर्णताओं, कूपमंडूकताओं और क्षुद्रताओं को विज्ञान की कसौटी पर जांचना-परखना है.

देश की विडंबना यह है कि सामान्यतया विज्ञान शिक्षक से लेकर अभिभावक तक यहाँ विज्ञान और कूपमंडूकता दोनों को साथ साधने में महारत हासिल किए हुए हैं. विज्ञान शिक्षा ही नहीं बल्कि शिक्षा का मतलब ही प्रदत्त संकीर्णताओं के बरक्स अर्जित नवीन जीवन दृष्टि का स्वीकार है. इसके लिए कई बार समाज और परिवार से ही नहीं बल्कि खुद से लड़ना पड़ता है, जूझना पड़ता है.

यशपाल स्कूली षिक्षा के प्रति अनवरत चिंतनशील रहते। उन्होंने अपनी समिति (यशपाल समिति ) की सिफारिश में ‘बस्ते के बोझ’ को कम करने की बात तो कही ही साथ ही इसके विकल्प की ओर भी संकेत किया. प्रकृति और आसपास की आबोहवा को उन्होंने विज्ञान का सर्वोत्तम पाठ कहा. विज्ञान की पारंपरिक पाठ्यपुस्तक से उन्हें घोर निराशा थी. यशपाल समिति की रिपोर्ट स्पष्ट षब्दों में कहती है, ‘‘ बच्चे दिन प्रतिदिन के जीवन तथा पाठ्यपुस्तकों की विषय वस्तु के बीच की दूरी भी ज्ञान को बोझ में बदल देती है. पाठ्यपुस्तकों में पाठ्य-सामग्री इस ढंग से प्रस्तुत की जाती है कि बच्चे के संसार में पुस्तकीय ज्ञान बहुत अलग दिखाई पड़ता है. यह विषय को रहस्यमय बना देता है.  सामाजिक विज्ञानों में, इसे उपदेशों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे यह संकेत प्राप्त होता है कि हर प्रश्न  का एक सर्वमान्य उत्तर होता है. बच्चों के परिप्रेक्ष्य तथा जीवन से विषय वस्तु के न जुड़ने का एक सामान्य कारण यह है कि पुस्तकों में केवल उच्च वर्ग की जीवन शैली और जीवन दर्शन के बारे में बताया जाता है।’’ यशपाल का सारा जोर ‘समझ’ पर केंद्रित था. उनके अनुसार बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से ज्यादा बुरा है न समझ पाने का बोझ.

आमजन और विद्यार्थियों में प्रकृति के रहस्य को सरलतम रूप से समझाने के लिए 1991 में यशपाल ने दूरदर्शन पर ‘टर्निंग प्वाइंट’ नाम से अत्यंत रोचक और कल्पनाशील विज्ञान धारावाहिक का प्रसारण करवाया था, जो अत्यंत लोकप्रिय हुआ था। दूरदर्शन के इतिहास में यह धारावाहिक समाज में विज्ञान की समझ को विस्तारित करने के लिए जाना जाएगा. पर्यावरण और खगोल शास्त्र  पर आधारित एपिसोड ‘ मदर अर्थ ’ शीर्षक से, अद्यतन अविष्कारों की जानकारी ‘माइलस्टोन’ शीर्षक से, स्वास्थ और चिकित्सा विज्ञान से संबंधी जानकारी ‘द बाॅडी ’ शीर्षक से, प्राद्यौगिकी संबंधी जानकारी ‘टाइम टेबल आॅफ टेक्नोलाॅजी शीर्षक से, विज्ञान के संभाव्य अनुप्रयोगों पर ‘फ्यूचर वंच’ से और विज्ञान से जुड़े अनुसंधानों पर ‘साइन्स अपडेट’ शीर्षक से प्रस्तुति होती थी.

इस सीरियल का सबसे आकर्षक भाग था ‘ प्रश्न काल ’। इसमें एक से एक जटिल और अनसुलझे विज्ञान के प्रश्नों का उत्तर यशपाल स्वंय देते थे. आज भी लोग इन एपिसोडों से विज्ञान की समझ को दुरुस्त कर सकते हैं.

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 को शैक्षिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण और सार्थक बनाने में प्रो0 यशपाल की अहम भूमिका थी.  इसके आधार पत्र में स्मृति और समझ के रिश्ते को स्पष्ट  करते हुए कहा गया कि, ‘‘हमने समझ के बदले थोड़े वक्त के लिए काम आने वाली जानकरी के अंबार को अपना लिया है. इस प्रक्रिया को उलटना होगा. खासकर इस वक्त जबकि वह सब कुछ जो याद किया जा सकता है, फट पड़ने को तैयार है.हमें अपने बच्चों को समझ का चस्का लगने देना चाहिए जिससे उन्हें सीखने में मदद मिले और जब वे कतरों और बिंबों में संसार को देखें और जिंदगी की लेन-देन में दाखिल हों तो अपने मुताबिक ज्ञान का रूपांतर कर पाएँ. ज्ञान का ऐसा स्वाद हमारे बच्चों के वर्तमान को पूर्णतः सृजनात्मक और आनंदप्रद बना सकेगा.  वे जानकारियों के आधिक्य के उस आघात से मूचर््िछत न हों जिसकी जरूरत सिर्फ थोडे़ वक्त के लिए उस बाधा दौड़ के पहले पड़ती है जिसे हम इम्तहान कहते हैं.’’

प्रो0 यशपाल वैज्ञानिक के साथ अत्यंत सुलझे शिक्षाविद भी थे. विश्वविद्यालय को प्रो यशपाल एक ऐसी जगह मानते है जहाँ नये विचार पैदा होते हैं, जड़ों तक पहुंचते हैं और लंबे और मजबूत होते हैं. यह एक अनूठी जगह है जिसमें ज्ञान का पूरा ब्रह्मांड समाहित होता है. यह वह जगह है जहाँ सृजनात्मक सोच अभिमुख होती है, परस्पर बातचीत करती है और नई वास्तविकताओं की सोच का निर्माण करती है. ज्ञान के अनुसरण में सच्चाई की स्थापित धारणाओं को चुनौती दी जाती है. दुख की बात है कि आज देश का विष्वविद्यालय सर्वाधिक संकटग्रस्त है. उनकी सारी स्वायत्तताएँ छीनी जा रहीं हैं. वे विज्ञान के नाम पर तकनीकी शिक्षा दिये जाने के खिलाफ थे.

यूजीसी में रहते हुए उन्होंने उच्च शिक्षा में कई बदलाव की कोशिश की. देश में प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल के वे घोर विरोधी थे. जिंदा रहते हुए उन्होंने यथासंभव उसे रोके रखा. लेकिन आज हम देख रहे हैं कि किस तरह कुकुरमुत्ते की तरह पूरे देष में प्राइवेट यूनिवर्सिटी छा गये हैं. इनकी फीस देश की अधिसंख्य साधारण जनता की सोच के बाहर है. अकूत धनार्जन ही इनका लक्ष्य है.

स्कूली शिक्षा में विद्यार्थियों के मध्य प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा को प्रो0 यशपाल विनाशकारी मानते थे. यशपाल समिति की सिफारिश के अनुसार, ‘‘कई संगठन तथा विभाग जिला, राज्य तथा राश्ट्रीय स्तर पर बच्चों के लिए स्कूली विषयों , प्रदर्शनियों , निबंध लेखन, भाषण जैसे विभिन्न क्षेत्रों में प्रतियोगिताएँ आयोजित करते है. निजी सफलता को पुरस्कृत करनेवाली प्रतियोगिताओं को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए  क्योंकि ये बच्चों को अनन्ददायक शिक्षा प्राप्ति को बढ़ावा देने से दूर रखती हैं.

स्कूलों में सहयोगशील शिक्षा प्राप्ति को बढ़ावा देने के उद्देष्य से सामूहिक गतिविधियों और सामूहिक सफलता को पुरस्कृत और प्रोत्साहित करना चाहिए।’’
यशपाल बच्चों की जिज्ञासु-वृत्ति को बचाना और सहेजना शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानते थे. बच्चे हर चीज के बारे में सब कुछ जानना चाहते हैं. चीजों को उलट-पलट कर देखना चाहते है. हम जिन्हें उनकी नादानियां या बदमाशी समझते हैं, वह उनकी जिज्ञासु वृत्ति का परिचायक है. उनका यह जानना किसी एक दिशा में नहीं होता. वे चीजों या विषयों के बारे में अधिकाधिक जानना चाहते हैं, और उसमें उन्हें आंनद मिलता है. सीखने की प्रक्रिया को इसलिए आनंद की प्रक्रिया भी कहा जाता है.

यशपाल के अनुसार शिक्षक  आनंद की इस प्रक्रिया को सीखने की अनवरत प्रक्रिया में बदल सकता है, उसे सही दिशा दे सकता है.  आनंद की इस प्रक्रिया को शैक्षिक टूल्स बनाया जा सकता है. लेकिन इसके लिए शिक्षकों को धैर्यवान होना होगा. बच्चों की इन्हीं जिज्ञासाओं में कल के वैज्ञानिक, डाॅक्टर, इंजीनियर छिपे हैं, लेकिन विडम्बना यह है कि हमने इसे समझने की कोशिश ही नहीं की.

इस पूरे संदर्भ के दुखद पहलू की ओर संकेत करते हुए यशपाल कहते हैं कि हमसे गलती यह हुई कि हमने जानने और सीखने की प्रक्रिया को अंकों से जोड़ दिया. इससे बच्चे जानने और सीखने की अपेक्षा स्मृति-संग्रह की ओर द्रुत गति से बढ़ने लगे जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि शिक्षा अंक और उपाधि का पर्याय हो कर रह गई. असल में जरूरी अंक नहीं, विषय की जानकारी है. स्मृति-संग्रह और समझ के इसी घालमेल के कारण एक ओर तो सामाजिक और अकादमिक शिक्षा के बीच की दूरी निरंतर बढ़ती चली गई और दूसरी ओर वह जीवन-जगत से भी दूर हो गई. दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताओं और जीवन की मांग से शिक्षा अपने को दरकिनार करती चली गई. जीवन रोज नये सवाल उठाता है, वास्तविक शिक्षा उन सवालों से टकराती है, जूझती है और नित नये-नये रास्ते सुझाती है. रटंत शिक्षा से यह संभव नहीं है. शिक्षा की यह बड़ी पराजय है कि अब शिक्षा हमारे लिए सीखने और समझने पर आधारित दीर्घकालीन प्रक्रिया न होकर अधिकतम अंक प्राप्त करने वाली अल्पकालीन प्रक्रिया बन गयी है.

कठिनाई यह है कि जिस देश में वैज्ञानिक, इंजीनियर और डाक्टर सदृश्य  लोग भी कई स्थानों पर तर्क और वैज्ञानिक सोच के उलट कार्य करते हैं, उस देश के बच्चों में वैज्ञानिक-दृष्टि आये तो कहां से आये ? कई अच्छे और गुणी डाक्टर की क्लिनिक में इस तरह का पोस्टर लगा आपको मिल जायेगा, जिसमें लिखा होता है कि ‘हम तो सिर्फ माध्यम हैं, आपका स्वस्थ होना या न होना भगवान की कृपा पर निर्भर है।’ वैज्ञानिक समझ की धज्जियाँ तो तब उड़ जाती हैं जब इसरो जैसे वैज्ञानिक संस्थाओं के वैज्ञानिक भी आलौकिकता में आस्था व्यक्त करने लग जाते हैं.  किसी यान के प्रक्षेपण की कामयाबी के लिए ईश्वर की गुहार लगाने लगते हैं. 24 सितंबर 2014 को भारत के मंगलयान की शानदार कामयाबी इसरो के हमारे तमाम वैज्ञानिकों की काबिलियत की मिसाल है. मगर यह वही मंगलयान है जिसके प्रक्षेपण के पहले 4 नवंबर 2013 को इसरो के अध्यक्ष के राधाकृष्णन ने तिरुपति वेंकेटेश्वर  मंदिर में पूजा अर्चना की और इस अभियान की सफलता की प्रार्थना की. वैज्ञानिकों का यह कर्म विद्यार्थियों और आम लोगों के लिए दृष्टान्त बन जाता है. जिस वजह से वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की सारी संभावनाओं के द्वार बंद हो जाते हैं. प्रो यशपाल इस तरह अंधविश्वासी रवैये के खिलाफ थे.

इस तरह की गैर वैज्ञानिक-दृष्टि सालों की दिन-रात की मेहनत और वैज्ञानिक सोच को खारिज करती हैं, जिनके जरिए कई बार हमारा जिंदा बच पाना मुमकिन होता है. अरविंद शेष अपने एक आलेख ‘विज्ञान बनाम आस्था के द्वंद्व का समाज’ में धार्मिक आस्थाओं और सत्ता केंद्रोें के आपसी गलबांही को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, ‘‘राजनीतिक-सामाजिक सत्ताओं पर कब्जाकरण के बाद इसके विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को रोकने के लिए उन तमाम रास्तों, उपायों को हतोत्साहित-बाधित किया गया, जो पारलौकिक या दैवीय कल्पनाओं पर आधारित किसी प्रभुवाद की व्यवस्था को खंडित करते थे. चार्वाक, गैलीलियो, कोपरनिकस, ब्रूनो से लेकर हाल में नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या जैसे हजारों उदाहरण होंगे, जिनमें विज्ञान या वैज्ञानिक दृश्टि को बाधित करने के लिए सामाजिक सत्ता के रूप में सभी धर्मों में मौजूद ‘ब्राह्मणवाद’ ने बर्बरतम तरीके अपनाए.

यषपाल इसी कड़ी के प्रखर चेतना से लैस वैज्ञानिक थे. चंदन श्रीवास्तव यशपाल के इस विज्ञान-चेतस व्यक्तित्व में एक सचेत नागरिक की तलाश करते हैं. उनके अनुसार, ‘‘पाखंड की पोल खोलने के प्रो0 यशपाल के इस साहस की कहानी तबतक पूरी नहीं होती जबतक आप यह ना याद कर लें कि उम्र के पूरे 35 साल टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ फंडामेंटल रिसर्च में काॅस्मिक किरणों और उच्च-ऊर्जा संबंधी भौतिकी पर काम करने वाले इस वैज्ञानिक के भीतर हमेशा एक सचेत नागरिक मौजूद रहा, ऐसा नागरिक जो लोक-कल्याण की भावना से आस-पास घट रही घटनाओं की परीक्षा करता है और कोई चीज लोक-कल्याण के लिहाज से घातक हो तो संविधान प्रदत्त तमाम उपयों का सहारा लेकर उसे रोकने की कोशिश करता है।’

सन् 1995 में जब सारा देश गणेश को दूध पिलाने के लिए मतवाला हो रहा था, ऐसा लग रहा था कि यह मिथ्या-चेतना घर-घर में फैल जाएगी, प्रो0 यशपाल ने पूरे दमखम के साथ इस भ्रांति का निराकरण कर देष की जनता को अंधविश्वास की खाई में गिरने से बचा लिया था. उन्होंने बताया था कि मामला किसी तरल-पदार्थ पर स्वाभाविक रूप से काम करने वाले एक बल ‘सरफेस टेंशन ’ का है, इसी बल के कारण पानी की बूंद बहुधा नलके से सटी रहती है और हाथ से छूते ही नीचे टपक पड़ती है। इनके इस प्रयास से लोगों पर से गणेश को दूध पिलाने का भूत दूर हुआ।

प्रो0 यशपाल विज्ञान और कला को एक दूसरे का पूरक मानते थे। उनके अनुसार विज्ञान हो या कला दोनों के लिए अंतर्दृष्ट और कल्पनाशीलता की आवश्यकता होती है. कल्पनाशील हुए बगैर वैज्ञानिक नहीं हुआ जा सकता है, चंदन श्रीवास्तव प्रो0 यशपाल  की खुद की अंतर्दृष्टि  की पड़ताल करते हुए लिखते हैं कि उनकी मानें तो कविता करते हुए विज्ञान तक पहुंचा जा सकता है और विज्ञान तक पहुंचना वैसा ही है जैसे किसी अच्छी कविता को रचना. दोनों सबकुछ में सबकुछ को मिलाने की एक कीमियागरी है. उनकी नजर में कल्पना और ज्ञान आपस में विरोधी नहीं बल्कि जिज्ञासा के दो अलग-अलग छोर हैं। इसी नजरिए से वे कहते थे कि शिक्षा का उद्देश्य अलग से कुछ सिखाना नहीं बल्कि जिज्ञासा को बचाए रखने का होना चाहिए क्योंकि मनुष्य स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु होता है. प्रयोग करते हुए सीखता है और प्रयोग करते हुए सीखने के क्रम में जान लेता है कि सूरज, चांद, सितारे या यह पूरी कायनात आपस में अलग-अलग नहीं, बल्कि सबकुछ बड़े विचित्र तरीके से एक-दूसरे से गूंथा-बिंधा हुआ है.

26 नवंम्बर 1926 को यशपाल कपूर का जन्म पंजाब प्रांत के झांग शहर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। इनका लालन-पालन व प्रारंभिक शिक्षा हरियाणा के कैथल में हुई. उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से 1948 में फिजिक्स में उच्च शिक्षा प्राप्त की. सन् 1958 में मैसेचुएट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी से फिजिक्स में पीएचडी की उपाधि हासिल की. भारत को अंतरिक्ष विज्ञान में वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित करने में यशपाल की अग्रणी भूमिका रही है.  वर्ष 1972 में जब भारत सरकार ने पहली बार अंतरिक्ष विभाग का गठन किया था तो स्पेस एप्लिकेशन सेंटर का अहमदाबाद के डायरेक्टर की जिम्मेदारी प्रोफेसर यशपाल को सौंपी थी. काॅस्मिक किरणों पर उनके अध्ययन को विज्ञान के क्षेत्र में बड़े योगदान के रूप में देखा जाता है. पद्मभूशण और पद्मविभूशण से नवाजे गए प्रोफेसर यशपाल बच्चों में अत्यंत लोकप्रिय थे. किसी स्कूल के बुलावे पर वे आवश्यक  कार्य छोड़कर भी जाते. सहजता और सरलता के प्रतिमूर्ति प्रो यश पाल का पूरा जीवन वैज्ञानिक टेम्परामेंट के बेहतर समाज की परिकल्पना में संघर्ष  करते बीता। 24 जुलाई 2017 को वे हम लोगों के बीच से जुदा हो गए।

[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]लेखक कमलानंद झा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय , अलीगढ़ के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर हैं. उनकी कई किताबें-पाठ्यपुस्तक की राजनीति, मस्ती की पाठशाला, तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध, राजा राधिकारमण की श्रेष्ठ कहानियां-प्रकाशित हो चुकी हैं [/author_info] [/author]

Related posts

2 comments

Comments are closed.

Fearlessly expressing peoples opinion