1943 में न्यूयार्क में जन्मीं और फिलहाल येल युनिवर्सिटी में अंग्रेजी की प्राध्यापिका, नोबल कवयित्री और निबंधकार लुई ग्लुक के दर्जन भर कविता संग्रह प्रकाशित हैं। उनका पहला कविता संग्रह फर्स्टबोर्न 1968 में प्रकाशित हुआ था और उन्हें उनके 2006 में प्रकाशित ग्यारहवें कविता संग्रह एवर्नो पर यह नोबल मिला है। अपने जीवन में लुई ने तमाम उतार-चढ़ाव देखे हैं। कवि जेम्स लोंगेन बैच का मानना है कि – परिवर्तन लुई का उच्चतम मूल्य है। लुई लिखती हैं –
आप मर जाते हैं
जब आपकी भावनाएँ मर जाती हैं …।
कवि सत्यार्थ अनिरुद्ध ने उनकी कविता Afterword का अंग्रेजी से अनुवाद किया है –
और अंत में दो शब्द
लुई ग्लुक
हड़बड़ी में रुक गई मैं
अब लगता है पढ़कर
अभी अभी जो लिखकर खत्म किया है
कि शायद इसलिए
कि मेरी कहानी का अंत थोड़ा बिगड़ गया सा लगता है
अंत जैसा हुआ
हठात नहीं
बल्कि जैसे हर मोड़ पर कहानी के
तयशुदा,लेकिन मुश्किल,तब्दीलियों के चारो ओर
कोई सम्मोहक कुहरा रच दिया गया हो
क्यों रुकी ही मैं कहते कहते ?
क्या कोई नक्श उभर आया था अचानक
मेरी अपनी ही फितरत का ,
मानों मेरे अन्दर का कलाकार बीच रास्ते खड़ा
रुकवा रहा हो ट्रैफिक .
रूप कोई. या शायद जैसा कि कवि कहते हैं ,
उन चंद घंटों में अंतःकरण का यही था आभास
कि शायद किस्मतन.
मुमकिन हो मैंने खुद ही ऐसा सोचा हो .
और बावजूद इसके मुझे यह लफ्ज़ पसंद न आ रहा हो .
मुझे लगता है कोई थामने को एक सहारा जैसे
कि जैसे एक मन के चन्द्रमा की एक कला
शायद शैशव आत्मा कि मंजुल अनुगूंज.
बहरहाल जो भी हो
मैंने ही तो इस्तेमाल किया इसे
अक्सर अपनी विफलताओं को बखानने में.
नियति और भाग्य
उनकी चेतावनी,उनके चक्र-दुष्चक्र,
और है ही क्या
सिवाय भयानक भ्रम और गड़बड़झाले के बीच
चंद सजावटी उपमाएं और अलंकार .
सब अस्त व्यस्त था मगर
जो मैंने देखा
जिसे उकेरते मेरा ब्रश थम गया
मैं नहीं कर पाई उसका चित्रांकन.
घुप्प अन्धेरा
अनंत चुप्पी :
बस इतना सा एहसास— मुख़्तसर
तो क्या नाम दें इसे फिर ?
मुझे लगता है
“दृष्टि का एक संकट”
ठीक उन पेड़ों की तरह
जो मेरी माँ और पिता से भिड़ गए थे.
हालांकि वे विवश थे उस बाधा से टकराने को –
मैं या तो भाग उठी या पीछे हट गई .
अब मेरे जीवन के रंगमंच पर धुंध ही धुंध थी
पात्र आए और आकर चले गए
बस चोला बदलता रहा उनका
कैनवास से दूर
ब्रश लिए मेरे हाथ
बस चलते रहे इधर से उधर
जैसे सामने कार के शीशे पर चलता हुआ वायपर
यही थी वो काली रात
और यही रेत का सहरा था
(हालांकि वास्तव में वह लन्दन की एक खचाखच भरी गली थी
जिसमे सैलानी अपने अपने रंगीन नक़्शे लहराए जा रहे थे )
किसी ने कहा : मैं.
इस धाराप्रवाह से
कुछ महान आकार लेता है—
मैंने एक गहरी सांस खींची . और मुझे पता चला
जिस शख्स ने वो गहरी सांस ली थी
मेरी कहानी में मौजूद नहीं था,
उसके नाज़ुक कमसिन हाथ
क्रेयोन की पेन्सिल से पूरे आत्मविश्वास से कुछ रचे चले जा रहे थे .
काश मैं वो होती ? एक बच्चा लेकिन खोजी ,
जिसे अचानक मिल जाता है रास्ता ,
जंगल खुल जाता है जिसके सामने
छिटककर दे देता है रास्ता .
और उन सबके परे
पुलों की तरफ जाते हुए
कांट ने जिस समृद्ध एकांत का अनुभव किया था
उस दीप्त अनुभूति के साक्षात से भी कोई नहीं रोकता उसे.
(हमारे जन्म की तारीख एक ही थी ).
बाहर की दुनिया में—
जनवरी के इन आखिरी दिनों में
क्रिसमस के उजड़े फानूस
गलियों में यहाँ से वहाँ तक टंगे हुए थे .
अपने प्रेमी पुरुष के कन्धों पर झुकी
एक औरत छेड़ रही थी अपनी पतली आवाज़ में
जेक्स ब्रेल की तान
पंचम सुर में .
शाबास ! बंद है दरवाज़ा.
अब न कुछ निकल कर जा सकता है ,न आ सकता है —–
मैं हिली नहीं हूँ .
लेकिन लगता है मेरा सहरा थोड़ा और आगे तक फ़ैल रहा है,
रेत और फैलती ही जा रही है (अब लगता है)
चारों ही तरफ, मेरे बोलते ही थोडा और …
कुछ इस तरह कि
उदात्त कुल के सौतेले शिशु—शून्य के
आमने सामने हूँ लगातार.
वह तो मेरा ही विषय निकला
और माध्यम भी .
क्या कहते वे
अगर मेरे उन जुड़वा छौनों को पता लग जाते
मेरे विचार .
मेरे मामले में शायद उसने कहा होता
कि कोई रुकावट ही नहीं
(बस बतौर दलील भर )
जिसके बाद मुझे धर्म के मठों में भेजा गया होता
उन कब्रिस्तानों में जहां आस्था के सवालों के जवाब दिए जाते हैं.
कुहरा छंट गया
खाली कैनवस दीवारों की तरफ औंधे मुड़ गए हैं
(तो गाना इस तरह चल रहा था कि )
मर गयी वो छोटी बिल्ली
क्या मृत्यु से बचा लिया जाएगा मुझे
(आत्मा पूछती है )
सूर्य हाँ कहता है
मेरा मरुस्थल प्रत्युत्तर देता है—
तुम्हारी आवाज़ हवा में रेत की मानिंद बिखर रही है .