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अखिल भारतीय केंद्रीय विश्वविद्यालय सामान्य प्रवेश परीक्षा के मायने

शैक्षणिक सत्र 2022-23 से केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश का पैटर्न बदलने जा रहा है। अब एक सामान्य प्रवेश के माध्यम से केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश होने की संभावना है। स्नातक और स्नातकोत्तर प्रवेश के लिए आयोजित होने वाली इस परीक्षा से बारहवीं बोर्ड की परीक्षा में प्राप्त अंकों की चमक अब कम हो जाएगी। कुछ लोग इस परिवर्तन को शिक्षा में बड़े बदलाव के रूप में ग्रहण कर रहे हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा पूरे देश में एक सी शिक्षा पद्धति लागू करवाने के क्रम में दिनांक 26 नवंबर को देश के 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को एक पत्र भेजा गया -“विस्तृत विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया है कि इस शैक्षणिक सत्र से केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में प्रवेश एक अखिल भारतीय सामान्य प्रवेश परीक्षा के माध्यम से होगा, जिसका आयोजन राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी के माध्यम से होगा।’’

किस दबाव का परीणाम है यह निर्णय?

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के साथ-साथ तमाम शिक्षाविदों एवं सुचिंतित नागरिकों का मानना है कि यह एक सर्वसमावेशी परीक्षा प्रणाली है, इससे कुछ खास शिक्षा संस्थानों में सामान्य विद्यार्थी, जो किसी कारणवश बारहवीं बोर्ड की परीक्षा में अच्छा अंक हासिल नहीं कर पाते थे, यह परीक्षा प्रणाली उन्हें उत्कृष्ट विश्वविद्यालय में प्रवेश का एक और मौका देगी। यही कारण है प्रशंसक पक्ष जहाँ इस फैसले पर लहालोट है, वहीं एक खेमा मान रहा है कि अब विश्वविद्यालय की सामान्य पढ़ाई भी कोचिंगों के हवाले हो जाएगी, जिससे समाजिक न्याय का दायरा कम होगा। इस खेमे के लोग मानते हैं कि इस परीक्षा प्रणाली से कोटा, मुखर्जी नगर, पटना, इलाहाबाद और हैदराबाद जैसे कोचिंग प्रधान शहरों को फिर से पुनर्नवा होने का मौका मिलेगा। साथ ही यह खेमा मानता है कि वंचित और प्रथम पीढ़ी से आने वाले विद्यार्थी के लिए सामान्य शिक्षा अब दूर कौड़ी होने जा रही है।

आहट और प्रयोग

केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सामान्य पाठ्यक्रमों के लिए आयोजित होने वाली यह सामान्य प्रवेश परीक्षा का आयोजन न नया है, न ही मौलिक। हम जानते हैं कि केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 2009 के तहत 12 नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना के एक साल बाद अर्थात सन 2010 में ही ‘केंद्रीय विश्वविद्यालय सामान्य प्रवेश परीक्षा (सीयूसीईटी)’ की शुरूआत हुई, जिसमें पहली बार सात नए विश्वविद्यालयों ने हिस्सा लिया। धीरे-धीरे इस परीक्षा से दूसरे विश्वविद्यालय जुड़ते गए और इस साल कुल 12 केंद्रीय विश्वविद्यालयों ने शिक्षा मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाले एनटीए की सहायता से सीयूसीईटी का आयोजन किया और प्रवेश लिया। सीयूसीईटी समाज के बनते मानस की अंतिम परिणति है। इसका जन्म और विस्तार हाल के वर्षों में हुआ और अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति हमारे सामने हो रही है।

सब मिलाकर, जो किया जाना था, वह किया जा रहा है। गौरतलब है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इस परीक्षा की वकालत की गई है। उसमें उम्मीद की गई है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को देश के सभी विश्वविद्यालयों को इस परीक्षा के अधीन लाने का पावन कार्य करना चाहिए। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इस दिशा में लगातार तत्पर रहा। वह कोविड के समय भी इस दिशा में कार्य करता रहा। उसने पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर आर.पी.तिवारी के नेतृत्व में सात सदस्यीय समीति का गठन करके इसे सन 2021-22 के सत्र में ही लागू करने का रोड-मैप तैयार कर लिया था। वि.वि.अ.आ. ने कोविड के कारण इसे पूरी तरह लागू नहीं किया।

हो सकता है कि इसका विस्तार राज्य विश्वविद्यालयों, मानद विश्वविद्यालयों से होते हुए देश महाविद्यालयों तक में भी हो। इस दिशा तेजी उस समय आई, जब दिनांक 22 नवंबर को यूजीसी ने 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपति के साथ बैठक की और बैठक बाद इस सत्र अर्थात 2022-23 से 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए इस परीक्षा को अनिवार्य बना दिया। इस बाबत इन विश्वविद्यालयों को जो पत्र भेजा गया, उसका जिक्र ऊपर कर दिया गया है।

इस परीक्षा का स्वरूप कैसा है?

माना जा रहा है कि यह परीक्षा दूर शिक्षा की तरह साल में दो बार आयोजित होगी और इस परीक्षा में विज्ञान, मानविकी, भाषा, कला और व्यावसायिक विषयों को शामिल किया जाएगा। आइए विचार करें कि इस परीक्षा का स्वरूप कैसा है। जैसाकि ऊपर की पंक्तियों में इस बात का इजहार किया गया है कि अब सीयूसीईटी एक हकीकत है। इस परीक्षा के अंतर्गत प्रश्न-पत्र दो खंडों में बँटा हुआ होगा – प्रथम खंड में प्रतियोगी की भाषा, सामान्य जागरूकता, गणितीय योग्यता और विश्लेषणात्मक कौशल के परीक्षण के लिए सवाल होंगे। भाग दो में विषय से संबंधित सवाल होंगे। गौरतलब है कि दो भागों के प्रश्न बहुविकल्पीय होंगे। साथ ही इस परीक्षा से चिकित्सा और अभियांत्रिकी में प्रवेश नहीं मिलेगा।

कंप्यूटर पर आधारित इस परीक्षा का विस्तार अभी उपलब्ध नहीं है।  भाग एक और भाग दो में प्रश्नों की संख्या का खुलासा अभी नहीं हुआ है, मगर तिवारी समिति के रिपोर्ट से प्राप्त जानकारी के आधार पर उम्मीद की जा रही है कि भाग एक में सामान्य योग्यता परीक्षा होगी जिसमें कुल 50 प्रश्न होंगे, जबकि भाग दो विषय पर आधारित होगा, जिसमें 30 प्रश्न होंगे। समिति ने यह भी सिफारिश की है कि स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए उम्मीदवार को सीयूसीईटी स्कोर का न्यूनतम 50% प्राप्त करना जरूरी होगा। तिवारी रिपोर्ट की मानें तो इस परीक्षा को अब विश्वविद्यालय सामान्य प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी) कहा जाएगा। इसके साथ ही तिवारी समिति का मानना है कि इस परीक्षा में विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित विषय संयोजन का सम्मान किया जाएगा।

इस परीक्षा का हासिल क्या है?

तमाम अच्छाई बताने के बाद भी तमाम लोग इस परीक्षा प्रणाली पर संदेह कर रहे हैं। दिशा नवानी, प्रोफेसर, शिक्षा संकाय, टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई एक जुदा राय रखते हैं। उनका मानना है माना कि विभिन्न राज्यों की बोर्ड द्वारा आयोजित परीक्षाएं विद्यार्थियों को बेहतरीन विश्वविद्यालयों में दाखिला लेने से रोकती हैं, लेकिन इस सामान्य प्रवेश परीक्षा से कुछ विशेष लाभ नहीं होगा। प्रोफेसर नवानी का स्पष्ट मानना है कि “इन विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए परीक्षा देने वाले बच्चे बहुत अलग सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं। सारे बच्चे एक सीयूसीईटी द्वारा निर्धारित प्रश्न-पत्र को एक समान तरीके से हल नहीं कर पाएंगे। निश्चित ही अब उन बच्चों पर इस परीक्षा के लिए जरूरी तकनीकी कौशल को हासिल करने के लिए कोचिंगों का रूख करना पड़ेगा। मानना ही होगा कि यह एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था है।” कई लोग मानते हैं कि इससे एक ओर समाज में शैक्षिक असमानता बढ़ेगी, वहीं दूसरी ओर बाजार और शिक्षा के रिश्ते मजबूत होंगे, जिससे लोक कल्याणकारी राज्य की भूमिका का स्पेश कम होगा।

हम जानते हैं कि भारत संघ-राज्यों (union of states) से बना राष्ट्र है, जिसमें संघ का कार्य राज्यों की निजता और उनकी विशिष्टता का सम्मान करना है। भारत जैसे बहुभाषी-और बहुसांस्कृतिक समाज पर एक तरह के पाठ्यक्रमों को लागू करना उस समय तक जायज नहीं ठहराया जा सकता, जब तलक समाज में असमानता स्थापित करने वाले कारकों का पूर्ण निवारण नहीं हो जाता है। जरूरत है कि स्थानीय ज्ञान को विस्तार दिया जाए क्योंकि इसी से स्थानीय हुनर को निखरने का मौका मिल सकेगा। संविधान का स्वर भी यही है। इस लागू करने के पहले इस अखिल भारतीय परीक्षा प्रणाली पर एक अखिल भारतीय रायसुमारी की जरूरत है।

 

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