नई दिल्ली. कमेटी एगेंस्ट एसॉल्ट ऑन जर्नलिस्ट (काज) द्वारा दिल्ली के कांस्टीट्युशन क्लब ऑफ इंडिया में 22 और 23 सितम्बर को पत्रकारों पर हमले के ख़िलाफ़ दो दिवसीय राष्ट्रीय कन्वेंशन आयोजित किया गया हुआ. इस दो दिवसीय कार्यक्रम में दोनों दिन पूरे समय कार्यक्रम हॉल खचाखच भरा रहा. कार्यक्रम में दूर-दराज के गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों के पत्रकारों का शामिल होना इस कार्यक्रम की अभूतपूर्व सफलता कहा जा सकता है. सम्मेलन में पत्रकार सुरक्षा कानून, पत्रकारों को लीगल सहायता और प्रेस आयोग के गठन की माँग उठी.
उद्घाटन सत्र
कार्यक्रम का पहला सत्र उद्घाटन सत्र रहा जिसमें अभिनेता प्रकाश राज, देशबंधु अख़बार के चीफ एडिटर ललित सुरजन बतौर वक्ता शामिल हुए. पंकज श्रीवास्तव के संचालन में कार्यक्रम की अध्यक्षता समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने किया. ललित सुरजन ने कहा कि पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के लिए मीडिया के स्वामित्व का विकेन्द्रीकरण (Evolution of ownership) करने की कोशिश करनी होगी. मीडिया संस्थान चलानेवाले पूंजीपति संपादक के पद पर न बैठने पायें . मीडिया के विकेंद्रीकरण करने का पहला कदम ये हो सकता है कि हमें इस दिशा में अब सोचना चाहिए कि पत्रकारों द्वारा मिलकर कोई सहकारी मीडिया संस्थान बनाया जा सकता है क्या ? दूसरा कदम ये हो सकता है कि हम गुरिल्ला पत्रकारिता करें. हम चाहे जहाँ काम कर रहे हों उसके अलावा हमें छोटे छोटे अखबार कम संख्या में में भी छपवाकर दूर-दराज के इलाकों में बाँटकर लोगों को जागरुक करने का काम किया जा सकता है. दूसरी बात कि हमें एकजुट होकर प्रेस कमीशन बैठाने की माँग करनी चाहिए. उन्होंने कहा कि पत्रकारिता ग्लैमर का नहीं बल्कि जोखिम लेने का काम है. युवा पत्रकारों को चाहिए कि छोटे-छोटे प्रयासों के ज़रिए बड़े-बड़े सत्य का उद्घाटन करने का जोखिम लें.
अभिनेता/एक्टिविस्ट प्रकाश राज ने पत्रकार गौरी लंकेश और उनके पिता के बहाने जनपक्षधर पत्रकारिता और ग्लैमरस पत्रकारिता के अंतर को स्पष्ट करते हुए ग्लैमरस पत्रकारिता को नागरिकों के साथ धोखा बताया. उन्होंने कहा कि मैं यहां एक पत्रकार के हैसियत से नहीं किसी अभिनेता के तौर पर नहीं बल्कि एक नागरिक के तौर पर आया हूँ. उन्होंने बताया कि कर्नाटक चुनाव के कार्यक्रम में शामिल होने गए थे. वहां किसी पत्रकार ने उनसे कोई सवाल नहीं किया. सिर्फ एक आदमी था जो सवाल पर सवाल किए जा रहा था. बाद में पता चला कि वो भाजपा विधायक का ड्राईवर था. मैंने कहा मैं यहाँ वो बोलने नहीं आया हूँ जो आप चाहते हैं. मैं यहाँ वो बोलने आया हूँ जो मैं देखता हूँ. आप मेरे मुँह में अपनी जबान नहीं डाल सकते. तमिलनाडू चुनाव में पीएम नरेंद्र मोदी ने सारे मीडिया हेड की मीटिंग बुलाई थी लेकिन अगले दिन पेपर में उसके रिगार्डिंग कोई खबर कोई तस्वीर नहीं आई. नागरिक के तौर पर लोगों ने सवाल किया किय ऐसा क्यों किया गया तो मीडियावालों ने जवाब दिया मीटिंग में सिर्फ ये जानने के लिए बुलाया था कि मेरी गवर्नमेंट कैसा काम कर रही है. इसलिए हमनें कोई न्यूज नहीं बनाई.
अध्यक्षीय वक्तव्य से पहले उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के नेता शमशेर सिंह विष्ट के निधन पर शोक जताते हुए दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई.
वरिष्ठ पत्रकार एवं समकालीन दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा ने पहले सत्र के अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि प्रशासन से लेकर राजनेता, पुलिस, माफिया और पत्रकारों का गिरोह मिलकर एक नेक्सस बनाए हुए हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया का कोई भी तानाशाह सिर्फ पुलिस और सेना के बल पर नहीं नहीं हो सकता जब तक कि उसे पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के एक हिस्से का सहयोग न हासिल हो. तानाशाह आरडीएक्स और एके-47 से नहीं किताबों, अख़बारों और पत्रिकाओं से डरते हैं. गौतम नवलखा का अपराध क्या है यही न कि उन्होंने सच का आवाज़ दी. आज वह नज़रबंद हैं. ऐसा करके वो एक क्लाइमेट तैयार करते हैं ताकि कोई उनके खिलाफ अपनी बात न कह सके. आज वैकल्पिक मीडिया खड़ा करने के लिए टूल्स बदलना होगा. वैकल्पिक रणनीति बनाकर वैकल्पिक सूचना व्यवस्था बना सकते हैं.
उन्होंने कहा कि सच को सामने लाने के लिए बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के लिए ब्रेख्त ने पांच वाक्यों का सूत्र दिया था – सच कहने का साहस, सच को पहचानने की क्षमता, हथियार के रूप में सच का इस्तेमाल करने , पहचान करना कि सच किसके हात में अच्छा हथियार हो सकता है और व्यापक जनसमुदाय में सच को फैलाने का हुनर। आखिर में उन्होंने मुक्तिबोध के हवाले से कहा कि जब हर ओर झूठ और अँधेरा हो तो सच बोलना ही क्रांतिकारी कर्म है और इसके लिए हमें कृतसंकल्प होना होगा.
केस स्टडीज
दूसरा सत्र पत्रकारों की हत्या की केस स्टडीज पर था. इस सत्र के सारे वक्ता हत्या कर दिये गये किसी पत्रकार के सहयोग संबंधित या दोस्त थे. पत्रकार राजदेव रंजन की जीवनसंगिनी आशा रंजन, पत्रकार देवेंद्र पटना की मां, पत्रकार नवीन गुप्ता के भाई नितिन गुप्ता व उनकी मां ने मंच से अपनी बात रखी. पत्रकार संदीप शर्मा की ओर से पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने उनके परिवार की व्यथा कथा सुनाई. इन लोगों ने अपने निजी दुख के आधार पर बताया कि किसी पत्रकार के मारे जाने की कीमत पूके परिवार को किस तरह चुकानी पड़ती है. संदीप शर्मा के पिता का भिंड में अपना घर होने के बावजूद इंदौर विस्थापित होकर किराये के मकान में रहने को विवश होना पड़ा है.
लंच के बाद का दूसरा सत्र भी पत्रकारों पर हमले के केस स्टडीज पर ही था पर इसके वक्ता पत्रकार थे. सबसे पहले शिलांग टाइम्स की पत्रकार पैट्रीसिया ने बताया कि किस तरह माइनिंग माफिया पत्रकारों की जान के सबसे बड़े दुश्मन बने हुए हैं. वहीं गल्फ न्यूज और आकाशवाणी काश्मीर के पत्रकार ज़लील ने बताया कि आज पत्रकारिता आसान नहीं है. हिजबुल मुजाहिदीन के हेड का इंटरव्यू करने के बाद किस तरह से उन्हें आतंकवादी घोषित करके प्रताड़ित किया गया, उसका उन्होंने बयान किया। जलील साहेब ने बताया कि काश्मीर में पत्रकार होना किसी दूसरे प्रदेश का पत्रकार होने से ज्यादा मुश्किल है. सरकार और आतंकवादियों के बीच पत्रकार बनकर रहना हर पाल जान जोखिम में डालकर रखने जैसा है.
वरिष्ठ पत्रकार संतोष गुप्ता ने अमर उजाला और दैनिक जागरण जैसे मीडिया संस्थाओं की आलोचना करते हुए बताया कि इन संस्थानों के लिए रिपोर्टिंग करनेवाले पत्रकारों की हत्या के बाद मीडिया संस्थान उनके परिवारों की कोई खबर तक नहीं लेता उलटे पत्रकारों की हत्या करने करवाने वाले को ही अपने पेपर में बड़ा स्पेस देकर उन्हें समाजसेवी और धार्मिक बताकर छापता है.
ट्रोल्स, थ्रेट एंड इंटीमिडेशन
लंच के बाद के दूसरा सत्र सोशल मीडिया पर ट्रोल संस्कृति को लेकर था. सबसे पहले मशहूर टीवी पत्रकार और एनडीटीवी प्राइमटाइम के एंकर रवीश कुमार ने मंच को संबोधित करते हुए कहा कि लोग पूछते हैं कि मोदी ने देश को क्या दिया. तो मोदी ने देश को मां बहन की गाली देने वाली संस्कृति देश को दिया. बेरोजगार युवाओं को लिंचिंग करने वाला हत्यारा बना दिया. प्रधानमंत्री बताते हैं कि वो 24 घंटे काम करते हैं सोते भी नहीं. कहां से सोएंगे ट्रोल्स को फॉलो करेंगे देर रात तक तो कहाँ से से सोएंगे. प्रधानमंत्री चौबीसों घंटे बस यही काम करते हैं ट्रोल्स को फॉलो करने का. प्रधानमंत्री मोदी ने देश के लिए कुछ नहीं किया, ऐसा नहीं है। उन्होंने भारतीय गणतंत्र को गालियों के गणतंत्र में बदला है.
स्वतंत्र पत्रकार नेहा दीक्षित ने बताया कि संघ पर ‘ बेबी उठाओ ऑपरेशन’ करने के बाद उन्हें किसी किस तरह की मुसीबत और सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग से गुजरना पड़ा. आउटलुक में वो रिपोर्ट छपी थी पर कोर्ट से नोटिस आने के बाद पत्रिका ने मेरा फोन उठाना बंद कर दिया. मैं घर उनसे ये पूछने के लिए फोन करूं कि तारीख कभी लगी है है मेरे नाम पर कोई सम्मन आया है क्या तो भी वो फोन नहीं उठाते. दस हजार शब्द की रिपोर्ट छापने के बावजूद पत्रिका ने कोई पेमेंट नहीं दिया.
पत्रकारों के खिलाफ़ कानून, राज्य मशीनरी और मानहानि के दुरुपयोग
पत्रकारों पर हमले के खिलाफ दो दिवसीय राष्ट्रीय काज कन्वेंशन के दूसरे दिन के पहले सत्र का विषय “पत्रकारों के खिलाफ़ कानून, राज्य मशीनरी और मानहानि के दुरुपयोग” पर केंद्रित था। इस सत्र में बतौर वक्ता कमल शुक्ला (छत्तीसगढ़), रचना खैरा (पंजाब), अलोका (झारखंड), प्रभात सिंह (छत्तीसगढ़), शिव दास (यूपी), शाहिना केके (केरल) थे। जिसकी अध्यक्षता सुमित चक्रवर्ती ने की। पहले वक्ता के तौर पर शाहिना केके ने बताया कि कैसे अब्दुल मसद मदनी जिसे कि गलत तरीके से बंग्लोर बम ब्लास्ट में फँसाया गया था और कैसे मार-पीटकर एक मात्र मुस्लिम गवाह के रूप में रफीक को अब्दुल मसद मदनी के खिलाफ प्रत्यक्षदर्शी गवाह बनाकर पेश किया गया था। फर्जी गवाहों के आधार पर कैसे अब्दुल मदनी को 9 साल की सजा करवाई गई थी उस पूरे प्रकरण के फर्जी गवाहों के कैमरा पर बयान रिकार्ड करके स्टोरी करने और पूरे केस को एक्सपोज करने के बाद उन्हें पूरी मशीनरी द्वारा परेशान किया गया। और फिर उनके एक लेख के किस तरह कॉपी-पेस्ट करके आतंकियों ने इस्तेमाल किया। जिसके बिना पर शाहीना के खिलाफ प्रशासन ने 505, 120 बी और यूएपीए के तहत केस किया गया। उनसे क्या आप मुस्लिम हो जैसे बेहूदे सवाल पूछे गये।
जबकि बस्तर छत्तीसगढ़ के स्थानीय पत्रकार संतोष यादव ने अपने खिलाफ हुए बर्बर और अमानवीय पुलिसिया यातना को साझा किया। उन्होंने बताया कि पुलिस उनसे पूछती थी कि आप दूसरे गाँव क्यों जाते हो। और फिर उस गाँव के स्त्रियों, युवकों व अन्य लोगों पर ढाये गए पुलिसिया बर्बरता की रिपोर्टिंग करने पर रात में उठा ले जाती और नंगे करके लॉकअप में डाल देती। संतोष यादव ने बताया कि एक रात उन्हें पुलिस उठाकर ले गई और बोली कि इसका एनकाउंटर कर दो। लेकिन फिर उन्हें कहीं से फोन आया कि संतोष के उठाने की बात मीडिया में के जरिए कुल फैल चुकी है, एनकाउंटर मत करना। और फिर पुलिस संतोष को लॉकअप में डाल दिया। नंगे किया और बहुत मार मारा। बेहोश होने पर पानी डालकर होश में लाते और फिर बेहोश होने तक मारते। अदालत में पेशी के लिए जाते और जज पूछता कि यों डजी तुम नकस्लियों को खाना कपड़ा और पैसा पहुँचाते थे। तो पता चलता कि मेरे ऊपर केस क्या है और कौन कौन सी धारा लगी है। संतोष बताते हैं कि कैसे जेल में उन्हें खाने और मेडिकल सुविधाओं से वंचित रखा जाता। जेल में बंद कैदियों के मेडिकल, शिक्षा और खाने की सुरक्षा को लेकर उन्होंने जेल में ही 2 अक्टूबर 2016 को हड़ताल किया। उन्हें रात में पुलिस और पिटाई के डरावने सपने बार बार आते हैं। दो साल की भयावह यातना के बाद जमानत पर छूटे संतोष बताते हैं कि किस तरह उन्हें किसी दूसरे गाँव में जाने से पहले पुलिस थाने में में सूचना देती है और पुलिस कहती है उस गांव के सरपंच या चौकी प्रभारी से फोन पर बात करवाना।
रांची झारखंड के पत्रकार विनोद कुमार ने बताया कि किस तरह आजादी के बाद से ही झारखंड को पब्लिक सेक्टर की प्रयोगशाला बना दी गई तभी से आदिवासी विस्थापन को अभिशप्त हैं क्योंकि समृद्धि के द्वीप में आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं है। बार-बार सरकारों द्वारा वहाँ पेशा कानून का उल्लंघन किया जाता है। जैसे नक्सली का सामान्यीकरण करके एक राष्ट्रविरोधी कांसेप्ट में ढाला गया वैसे ही पत्थलगढ़ी को देशद्रोह की शक्ल में ढाला जा रहा है जबकि पत्थलगड़ी उनके लिए परिवार में किसी मरे हुए सदस्य को दफनाने की अस्मिताबोधक रीति रिवाज है। पत्थलगड़ी आंदोलन अंग्रेजों के टाइम भी हुआ था। आदिवासी कहते हैं कि हमें आधार की ज़रूरत नहीं पत्थलगड़ी ही हमारी पहचान है।
वहीं आधारकार्ड से जुड़ी सूचनाओं के अनऑथराइज एक्सेस पर स्टोरी करने वाली द ट्रिब्यून की पंजाब शाखा की क्राइम रिपोर्टर रचना खैरा ने बताया कि कैसे इस स्टोरी के बाद उनकी हेल्प लेकर लूपहोल को सही करने के बजाय आधार से जुड़े मंत्रालय ने उनके और सहयोंगियों अनिल कुमार सुनाल कुमार व राज के खिलाफ यूआईडीएआई ने एफआईआर कर दिया आपराधिक षडयंत्र के तहत अनाधिकृत तरीके से आधार सिस्टम में घुसपैठ करने का आरोप लगाकर। बता दें कि “Rs. 500, 10 miutes, & you have access to billion Aadhar details” नाम से एक स्टोरी की थी जिसके तहत आधार के सुरक्षित होने के तमाम दावों की पोल खुल गई थी। रचना खैरा ने मंच से कहा कि रिपोर्ट पर फर्जी एफआईआर किया जाता है। 88 प्रतिशत जर्नलिस्ट गाँव से आते हैं। उन्हें लीगल सपोर्ट दिया जाना चाहिए। हमारी कोई ऑर्गेनाइजेशन या कमेटी होनी चाहिए। एफआईआर से पहले जाँच के लिए कोई एजेंसी होनी चाहिए। जूडिशरी फ्रेमवर्क करे कि पत्रकारों को पीड़ित या क्रिमिनल न बनाया जाय।
प्रभात खबर के पत्रकार पुष्यमित्र ने बताया कि बिहार में लगभग सात हजार पत्रकार काम करते हैं। जिसमें से साढ़े छः हजार पत्रकारों की मासिक आय 500-8000 रुपए के बीच है। इसमें भी दो वर्ग है। एक वो जिनकी मासिक इनकम 500-1500 के बीच है। इनकी संख्या लगभग पाँच हजार है। जबकि दिहाड़ी न्यूनत राष्ट्रीय वेज 176 रुपए प्रति दिन से भी कम। आखिर अपना घर-परिवार चलाने क लिए भी तो इन्हें रुपया चाहिए। हाँ इन्हें विज्ञापन लाने होते हैं जिसपर इन्हें 10 प्रतिशत कमीशन मिलता है। ये विज्ञापन इन्हें देता कौन है। जाहिर है जिले का टुटपुंजिया सेठ, गुंडा विधायक, खनन माफिया, छुटभैया टाइप नेता। तो जाहिर है उनसे इनके संबंध विकसित हो जाते हैं। खबरों और विज्ञापने के बीच संतुलन साधने के फेर में जहाँ ये लोग चूक जाते हैं वहीं इनकी हत्या कर दी जाती है। जबकि दूसरे वर्ग के पत्रकारों को 5000-8000 रुपए मासिक मिलता है। इनकी संख्या डेढ़ हजार के करीब है। वहीं 15 हजार से ज्यादा कमाई करनेवाले पत्रकारों की संख्या महज चार सौ है। पुष्यमित्र ने कहा कि न्यूनतम मजदूरी अदृश्य हिंसा है। जो मीडिया संस्थानों द्वारा पत्रकारों पर की जाती है। ओक सर्वे बताता है कि भारतीय मीडिया 1 लाख 35 हजार करोंड़ की हो गई है लेकिन जब मीडिया संस्थानों से मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने को कहिए तो ये कहेंगे कि इसके लागू होने से अखबार खत्म हो जाएगें।
वहीं सोनभद्र में संस्कृत शिक्षकों की नियुक्ति में आरएसएस द्वारा प्रभावित किए जाने की साजिश का भंडाफोड़ करनेवाले बनारस के पत्रकार शिवदास पैर में फैक्चर होने के बावजूद स्टेज तक गए और अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि शोषण और दमन पत्रकारिता जगत में भी होता है। मीडिया संस्थान पत्रकार को पैसा, नौकरी, सपोर्ट, सुरक्षा कुछ भी तो नहीं देते है। जेपी समूह द्वारा संचालित गोयनका पुरस्कार शहरी पत्रकारों को दिया जाता है जिनका खतरों से कोई वास्ता तक नहीं होता।
नेचर वॉच के संस्थापक और आरटीआई एक्टीविस्ट सलीम बेग़ ने बताया कि मुरादाबाद पुलिस भर्ती घोटाले का पर्दाफाश करने के बाद मे कैसे उन्हें एसएचओ पंकज त्यागी द्वारा गिरफ्तार करने के बाद उनके खिलाफ एफआईआर लिखा गया और जिस जज के सामने पेश किया गया वो कैसे एसएचओ के सामने नतमस्तक था।
राजस्थान पत्रिका के आवेश तिवारी ने बताया कि किस तरह छत्तीसगढ़ शिक्षामंत्री केदार कश्यप द्वारा अपनी पत्नी की जगह पर किसी और को बैठाकर कॉपी लिखवाने की रिपोर्टिंग के बाद, मंत्री तथा रायगढ़ के डीएम अमित कटारिया, और आई जी एसआरपी कल्लूरी द्वारा मिलकर उन्हें और उनके रिपोर्टर को परेशान किया गया। और 2000 लोगों की भीड़ को इकट्ठा करके उनके खिलाफ मार्च निकालकर उनके ऑफिस का घेराव किया गया।
छत्तीसगढ़ के पत्रकार कमल शुक्ला ने काज के मंच से बोलते हुए कहा कि यदि आप सच की पत्रकारिता करने जा रहे हैं तो यकीन मानिये कि अपने आत्महत्या के दस्तावेज, अपने आपको फांसी दिए जाने के दस्तावेज, जेल भेज दिए जाने और कहीं भी पीट दिए जाने के दस्तावेज पर दस्तखत करके आ रहे हैं। सबसे पहले तो ये जान लीजिए की आजादी के बाद से लोकतंत्र को लेकर दो नाटक किया गया पर लोकतंत्र कभी रहा नहीं। हमारे देश में लंकतंत्र इसलिए भी नहीं रहा क्योंकि हमारे यहाँ की मीडिया कभी लोकतांत्रिक नहीं रही। जो कुछ बचा-खुचा लोकतंत्र है हमारे पास मीडिया संधान के जो प्रावधान हैं उन्हीं की रक्षा के लिए जब हम पत्रकारिता करते हैं तब हमारे ऊपर खतरा होता है। जह हम आदिवासियों के अधिकार की बात करेंगे, जब अल्पसंख्यकों के अधिकार की बात करेंगे तब हमारे ऊपर खतरा होगा। तीन साल से पत्रकारों को लीगल सुरक्षा मुहैया कराने की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता नहीं करने दिया जाता। जैसे ही वो कहीं के लिए निकलते हैं उन्हें पकड़कर किसी कैंप या थाने में बैठा दिया जाता है। पीयूसीएल और बड़े बड़े चिंतकों और नागरिक समाज के लोगों ने मिलकर पत्रकार सुरक्षा कानून का ड्रॉफ्ट बनाया है। संतोष यादव जी अपनी पत्रकारिता के लिए जेल नहीं गए हैं ये दिल्ली से आनेवाले समाजसेवी जो इनका इस्तेमाल शोध के लिए करते हैं ये उसके कारण प्रताड़ित किए गए हैं। पत्रकार के स्त्रोत और इस लोकतंत्र को बचाने के लिए जो लोग भी अपना योगदान दे रहे हैं उन सबकी सुरक्षा का ख्याल किया रखा जाना चाहिए।
पत्रकार और एक्टीविस्ट सीमा आजाद ने कहा कि यूएपीए कानून का होना ही उसका मिसयूज है। टाडा और पोटा के हटने के बाद यूएपीए के दाँत और नाखून पैने करके इसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग एक्टीविस्टों के खिलाफ हुआ। लेकिन उस समय बहुत से पत्रकारों ने इसके खिलाफ नहीं लिखा बोला। जि,का नतीजा ये है कि आज सबसे ज्यादा यूएपीए कानून पत्रकारों के खिलाफ इस्तेमाल हो रहा है। यूएपीए का ढांचा अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है। इसका इस्तेमाल सिस्टम के बीतर की खामियों को उजागर करने वाले पत्रकारों और सिस्टम को ही गलत मानने वाले आंदोलनों पर लिखनेवाले पत्रकारों के खिलाफ। क्या किसी काश्मीरी आंदोलन पर रुचि लेकर लिखने, किसी माओवादी आंदोलन पर रुचि लेकर लिखने, अलगाववाद पर लिखने पर सरकार सेंसरशिप लगा देती है। पी चिंदबरम ने खुला बयान देकर कहा था कि जो भी लालगढ़ आंदोलन पर लिखेगा, बोलेगा धरना प्रदर्शन करेगा उसके ऊपर यूएपीए लगाया जाएगा। नागालैंड में असम राइफल का ऐलान था कि जो भी एनएसीएन खपलान की खबर लिखेगा छापेगा उस पर यूएपीए लगेगा जिसके विरोध में नागालैंड के अखबारों ने एक दिन का अपना एडीटोरियल कॉलम ब्लैंक छोड़ दिया था। जब भी कोई पत्रकार किसी संगठन की एक्टीविटी की रिपोर्ट के लिए जाता है तो उसका भी संबंध उस संगठन से जोड़ दिया जाता है जो अनलॉफुल एक्टीविटीज में इनवाल्व हैं या जो सरकार द्वारा बैन संगठन है।
दिल्ली से सिद्धार्थ वर्दराजन को भी शामिल होना था लेकिन वो किन्ही कारणों से न आ सके तो उन्होंने अपना लिखित मेसेज भेजा जिसे पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव ने मंच से पढ़कर सुनाया। सिद्धार्थ वर्दराजन ने कहा कि आज क्रिमिनल मानहानि के मुकदमे सत्ता व कार्पोरेट द्वारा सामने वाले को चुप कराने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। जो बाद में जांच और जूडिशरी में गिर जाता है। लेकिन इसमें समय और पैसा तो बर्बाद होता ही है। परेशानी होती है। उन्होंने अपील की कि मानहानि के मुकदमों के खिलाफ पत्रकारों को एकजुट होना चाहिए।
वहीं अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए सुमित चक्रवर्ती ने मीडिया काउंसिल के जरिए पीड़ित पत्रकारों को एडवोकेट मुहैया करवाने, पत्रकार सुरक्षा कानून और पत्रकारों के लिए मीडिया काउंसिल क्लब बनाने की मांग की जिसमें न्यू वेबमीडिया भी शामिल हो। उन्होंने मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों का लागू करवाने की लड़ाई आगे बढ़ाने की अपील की।
सर्विलांस और सेंसशरशिप
दूसरा सत्र सर्विलांस और सेंसशरशिप पर था। इस सत्र के मुख्य वकता ओम थानवी पुण्य प्रसून बाजपेयी जोसी जोसेफ, विश्वदीपक, सीमा आजाद, मनोज कुमार सिंह, शिव इन्दर सिंह थे. अध्यक्षता हरतोष सिंह बल ने की।
पहले वक्ता के तौर पर बोलते हुए ओम थानवी ने कहा कि आज मीडिया संस्थानों मीडिया मैनेजमेंट पढ़ाया जाता है। मीडिया मैनेजमेंट की पढ़ाई का मतलब चोर-सिपाही की ट्रेनिंग साथ साथ दे रहे हैं। रिपोर्टर का काम है खबरे ले आना और रिपोर्टर का काम है खबरों को संपादित करके रोकना। इसीलिए बड़े बड़े राजनेता और पूँजीपति संपादकों से संबंध प्रगाढ़ करके रखते हैं। सरकार के साथ विदेशी दौरों उनकी प्लेन में सवार होकर रिपोर्टर नहीं संपादक जाता है। वो संपादक विदोशों में रिपोर्टिंग करने जाता है जो अपने डेस्क से उठकर कभी अपने यहाँ रिपोर्टिंग के लिए नहीं जाता।
अगले वक्ता के तौर पर जोसी जोसेफ ने कहा कि हमने एक फ्रेमवर्क क्रिएट किया आर्टिकल्स और आईडिया को सेंसरशिप करने के लिए। विज्ञापनों को एक टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है। हालाँकि इसके लिए पत्रकार ज्यादा जिम्मेदार है कि उनकी स्टोरी सेंसरशिप होने के बाद भी वो चुप रहा। सैलरी सपने और नौकरी का ख्याल करके चुप रहा। वो आपको डराते हैं और ऐसा करके आप अपने डर को रिफ्लेक्ट करते हैं। आप ये सोचकर डर रहे होते हैं कि कोई आप पर नजर रख रहा है। आज पत्रकारिता को प्रोफेशनली ईमानदार और फियरलेस होने की ज़रूरत है।
पत्रकार और एक्टीविस्ट सीमा आजाद ने कहा कि यूएपीए कानून का होना ही उसका मिसयूज है। टाडा और पोटा के हटने के बाद यूएपीए के दाँत और नाखून पैने करके इसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग एक्टीविस्टों के खिलाफ हुआ। लेकिन उस समय बहुत से पत्रकारों ने इसके खिलाफ नहीं लिखा बोला। जि,का नतीजा ये है कि आज सबसे ज्यादा यूएपीए कानून पत्रकारों के खिलाफ इस्तेमाल हो रहा है। यूएपीए का ढांचा अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है। इसका इस्तेमाल सिस्टम के बीतर की खामियों को उजागर करने वाले पत्रकारों और सिस्टम को ही गलत मानने वाले आंदोलनों पर लिखनेवाले पत्रकारों के खिलाफ। क्या किसी काश्मीरी आंदोलन पर रुचि लेकर लिखने, किसी माओवादी आंदोलन पर रुचि लेकर लिखने, अलगाववाद पर लिखने पर सरकार सेंसरशिप लगा देती है। पी चिंदबरम ने खुला बयान देकर कहा था कि जो भी लालगढ़ आंदोलन पर लिखेगा, बोलेगा धरना प्रदर्शन करेगा उसके ऊपर यूएपीए लगाया जाएगा। नागालैंड में असम राइफल का ऐलान था कि जो भी एनएसीएन खपलान की खबर लिखेगा छापेगा उस पर यूएपीए लगेगा जिसके विरोध में नागालैंड के अखबारों ने एक दिन का अपना एडीटोरियल कॉलम ब्लैंक छोड़ दिया था। जब भी कोई पत्रकार किसी संगठन की एक्टीविटी की रिपोर्ट के लिए जाता है तो उसका भी संबंध उस संगठन से जोड़ दिया जाता है जो अनलॉफुल एक्टीविटीज में इनवाल्व हैं या जो सरकार द्वारा बैन संगठन है।
गोरखपुर के स्थानीय पत्रकार मनोज सिंह ने बताया कि कैसे ‘गोरखपुर में रहना है तो योगी योगी कहना है’ के जुमले के साथ अनुकूलन किया गया। जो कुछ भी वो बोले वही लिखना है प्रतिकार नहीं करना है। और पत्रकारों ने इसे मान लिया। योगी ने विधानसभा में बोला कि इस साल इसेंफिलाइटिस से होने वाली मौंतों में कमी आई है और दैनिक जागरण के हेडलाइन ‘ गोरखपुर में इंसेफिलाइटिस से होने वाली मौतों में चमत्कारिक कमी’ हेडलाइंस के साथ खबर बना दी जिसे कई हिंदी अंग्रेजी अखबारों ने छाप दिया। जबकि किसी ने भी ये जानने कि कोशिश नहीं कि जहाँ 500-600 बच्चों की मौंते हर साल हो जाती तीं वहां अचानक से इतनी कमी कैसे आ गई। जबकि बीआरडी कालेज में अगस्त महीने में ही 42 बच्चों की मौत हुई हैं और ये आँकड़ा अब तक 161 पहुँच गया है।
वहीं मुसहर समाज में तीन दिन में दो घटनाएं घटी। दो बच्चे व एक महिला भूख से मर गए। और इसके ठीक तीसरे दिन एक विधवा के दो बेटे महज बारह घंटे के भीतर भूख से मर गए। बिना किसी जांच के ही मुख्यमंत्री योगी ने कह दिया कि ये मौतें टीवी से हुई हैं और अखबारों ने छाप दिया। जबकि सरकारी अस्पताल द्वारा जारी डेथ सर्टिफिकेट में टीवी का कहीं जिक्र ही नहीं है। टीवी क्लीनिक में पहले हुई जाँच में भी डॉक्टरों ने लिखा है कि उसे टीवी नहीं थी। आजकल डीएम, एसपी के बयान और उनकी फोटो छाप देना ही पत्रकारिता हो गई है। उसमें सच कितना है इसकी कोई खोज खबर नहीं की जाती है। मजीठिया बोर्ड का मामला अभी लेबर कोर्ट तक नहीं पहुँचा। पत्रकार यूनियन के बजाय प्रेस क्लब बना रहे हैं कहीं कहीं तो दो तीन प्रेस क्लब एक जगह एक साथ बन रहे हैं. सरकार, सासंद, मंत्री सब इन प्रेसक्लबों के लिए जमीन पैसा और बिल्डिंग उपलब्ध करवा रहे हैं लेकिन ये प्रेस क्लब पत्रकारों के सवाल पर खामोश रहते हैं.
प्रवासी पत्रकार शिवेंद्र ने आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार के सत्तासीन होने के पीछे प्रवासी मीडिया की भूमिका बताते हुए बताया कि किस तरह दूतावासों के जरिए प्रवासी मीडिया पर प्रेशर बनाकर कनाडा जैसे देश में खबरों को रुकवाया और सेंसर किया जाता है। यहाँ से चुनाव के समय प्रवासी मीडिया में विज्ञापन जाता है। उन्होंने बताया की किस तरह तीस्ता सीतलवाड़ के कनाडा यात्रा का बायकाट करने का हमें दूतावास से आदेश जारी हुआ था।
अगले वक्ता के रूप मास्टर स्ट्रोक कार्यक्रम के मशहूर एंकर और हाल ही में एबीपी न्यूज से निकाले गए पुण्य प्रसून बाजपेयी ने कहा कि जब पत्रकारों पर इतना कुछ हो रहा है तो प्रेस क्लब ऑफ इंडिया क्यों चुप है। इतनी निराशा नहीं है जितनी हम ओढ़े बैठे हैं। कोई किसी को काम करने से नहीं रोक रहा है। जी न्यूज में था तो मैंने राडिया टेप और कोयला घोटाले के पेपर दिखाए मनमोहन सरकार ने नहीं रोका-टोका। सहारा पेपर्स की स्टिंग करवाई उसमें शीला दीक्षित से लेकर लेफ्ट और भाजपा तक के लोग पैसे लेते दिखे। पर स्टिंग रिपोर्ट कहीं नहीं चलाई गई। दरअसल मीडिया एक प्रोफिट बिजनेस हाउस में तब्दील हो गई है। हम पोलिटिसियन से सवाल क्यों पूछें जबकि ये हमारा काम नहीं है हम राजनेता नहीं हैं। हमारा काम जनता के बीच जाना और वहाँ की रिपोर्ट उनके सवाल को सबके सामने लाकर रखना है। मीडिया प्रोफिट के रास्ते तलाशता है। जैसे कि आपको भेजा गया गाँव की रिपोर्टिंग के लिए उसके बाद बारगेनिंग होती है कि रिपोर्ट दिखाएं की न दिखाएं। दूसरी स्तर की बारगेनिंग होती है कि रिपोर्ट दिखा तो दिया पर बात आगे बढ़ाएं कि न बढ़ाएं।
अध्यक्षीय वक्तव्य में ‘द कैरवन’ के संपादक हरतोष सिंह बल ने कहा 2014 के बाद बहुत कुछ बदल गया है। इस एक आदमी के आने के बाद बहुत फर्क पड़ा है. बहुत नुकसान हुआ है। हर एक डिस्ट्रिक्ट स्तर के रिपोर्ट के पीछे सीआईडी लगे होते हैं। जब से मोबाइल आया है सबका ट्रैकिंग किया जा रहा है। अगर मेरा कोई सोशल मीडिया देख रहा है तो मुझे कोई दिक्कत नहीं. मैं सरकार के खिलाफ लिख रहा हूँ तो इसमें छुपाने जैसी क्या बात है। अगर पत्रकार सही और ईमानदार पत्रकारिता कर रहा है तो उसे सर्विलांस से डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन जब सर्विलांस का इस्तेमाल खबरों को रोकने के लिए किया जाता है तो वो खतरनाक है। पत्रकार को पत्रकारिता छोड़कर नौकरी की चिंता न करनी पड़े इसके लिए हमें एकजुट होकर जर्नलिस्ट को इकोनोमिक और लीगल सहायता मुहैया करवानी चाहिए।
सबसे आखिर में निष्कर्ष सत्र था जिसे हर सत्र के मॉडरेटरों द्वारा हर सत्र-सार प्रस्तुत किया गया और फिर खुला सत्र चला। पहले सत्र के मॉडरेटर ने बताया कि हम एक्स्ट्रऑर्डिनरी समय में हैं। जहां एंटीनेशन केस, धमकी सामान्य बात हैं। हत्या, हमला, फेक न्यूज, सांस्कृतिक जबर्दस्ती और विज्ञापन, पत्रकारों में विचलन पत्रकारिता को प्रभावित करते हैं। वहीं दूसरे सत्र के मॉडरेटर अटल तिवारी ने बताया कि आज नागरिक समाज पत्रकारों के साथ नहीं खड़ा होता इसलिए भी पत्रकारों को खतरा बढ़ा है। कई अपराधी न्यूज हाउसेस को सूचना स्त्रोत हो गए हैं। जो पुलिस लाइन से प्रप्त होता है मीडिया हूबहू छाप देता है और नागरिक समाज स्वीकार कर लेता है। पत्रकार जमीन पर जाकर छानबीन की जहमत उठाता है। मीडिया हाउस पैसा नहीं देते जिससे पत्रकार गिरोह में शामिल हो जाता है।
वहीं तीसरे सत्र के मॉडरेटर नित्यानंद गायेन ने कहा कि ये सिर्फ पत्रकारों पर हमला नहीं है एक खास विचारधारा का दूसरे विचारधारा पर भी हमला है। ऐसे मीडियाघराने जो अपने पत्रकारों का साथ नहीं देते उन्हें भी धिक्कारने की ज़रूरत है।