भाषा सिंह की किताब ‘अदृश्य भारत: मैला ढोने के बजबजाते यथार्थ से मुठभेड़’ का प्रकाशन 2012 में पेंगुइन बुक्स से हुआ। किताब को एकाधिक अर्थों में नायाब कहा जा सकता है। सबसे पहले यह हिंदी में छपी है। भविष्य में इसी किस्म की किताबों के बल पर हिंदी को याद रखा जायेगा।
किताब के शीर्षक के अंतर्विरोध से अधिक जोरदार तरीके से इसकी विषयवस्तु को नहीं पेश किया जा सकता था। जो यथार्थ है, वह भी बजबजाता हुआ, वही अदृश्य है ! असल में तो उसे अदृश्य बना दिया गया है। बहुतेरे लोगों ने ध्यान दिलाया है कि असुविधाजनक को परे हटा देने की इसी बाजीगरी पर हमारी सभ्यता टिकी हुई है। भाषा की यह किताब इसे अनावृत करने की गम्भीर कोशिश है। कहने की जरूरत नहीं कि इस पूरे मामले का एक जातिगत पहलू है। इस मामले में सचमुच उलटा आरक्षण का तंत्र काम करता है। इस पेशे में शायद ही कोई सवर्ण शामिल होगा इसके बावजूद बेशर्म ढंग से आरक्षण समाप्त करने की मांग की जाती है।
वैसे तो सभ्यता का इतिहास ही बर्बरता का भी इतिहास रहा है लेकिन हमारे देश में विशेष रूप से इसे संस्थाबद्ध कर दिया गया है। इसे देखने के लिए जिस निगाह की जरूरत है वह केवल डी-क्लास होने से ही हासिल नहीं होगी, उसके लिए डी-कास्ट होना भी लेखिका ने जरूरी माना है। यह बात वे वामपंथ का विरोध करने के लिए नहीं कहतीं। यह सीख देने वाले भी वामपंथी कार्यकर्ता ही रहे हैं।
भाषा पेशे से पत्रकार हैं इसलिए उनके लेखन में सूक्ष्म पर्यवेक्षण के साथ ही संवेदनशील प्रस्तुति भी है। लेखिका की भूमिका के अतिरिक्त बेजवाड़ा विल्सन और मैत्रेयी पुष्पा की सम्मतियों को भी किताब में शामिल किया गया है। लगभग प्रत्येक अध्याय निजी स्पर्श के साथ लिखा गया है और कोई न कोई ऐसी कहानी सुनाता है जो आम तौर पर पता नहीं होती। कथा के बीच-बीच में खुद की खींची तस्वीरें भी लेखिका ने लगायी हैं जिनसे कथा की व्यथा दोगुनी हो जाती है। एक अंग्रेजी मुहावरे का हिंदी अनुवाद करें तो वे कमरे में हाथी की मौजूदगी दिखा देती हैं। इसे हाथी कहना भी सच पर परदा डालने की तरह है। मैला कहें तो कमरे में उसकी मौजूदगी की बात ही अरुचिकारक मान ली जायेगी ।
भूमिका में ही लेखिका ने दो ऐसी बातों का उल्लेख किया है जिसके लिए भरपूर निगाह की जरूरत होती है। सबसे पहली बात कि मैला ढोने वाले इन लोगों में स्त्रियों की बहुतायत होती है। इनकी जिंदगी में दाखिल होना तभी सम्भव है जब आप साथ पानी पीने और खाने की हिचक दूर कर लें। खाने के सिलसिले में पहली बात कि खूब तीखा और चटपटा स्वाद जीवन की नीरसता को भगाने में मदद करता है। न केवल इतना बल्कि सिर पर खूब सुगंधित तेल लगाने का चलन भी इन स्त्रियों में होता है। लगभग सभी स्त्रियों के बारे में पान खाने और पुरुषों के बारे में शराब पीने के बाद ही यह काम कर पाने का जिक्र है। यह उनके जीवन का रागरंग है।
दूसरी ओर सिर पर मल उठाने की कठिनाइयों का असर इतना गहरा होता है कि मैले की दुर्गंध उनके दिमाग में घुसी रहती है। ढेर सारी स्त्रियों का बयान है कि स्नान के समय चमड़ी खुरचकर निकाल देने की इच्छा होती है। गर्भस्थ शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास पर इस काम के असर को जिस वेदना के साथ भाषा ने दर्ज किया है वह हिला देने वाला है। सपने तक में नाली और बदबू ही आते हैं। किताब की यह बड़ी विशेषता है कि रुदन और सहानुभूति के मुकाबले संघर्ष और विकल्प खोजने की चाहत को उकेरा गया है। दूसरा पहलू यह कि इनके भोजन में हल्दी का इस्तेमाल न के बराबर होता है। लेखिका से भी उन्होंने अपना काम न देखने की गुजारिश की ताकि पीली दाल और कढ़ी खाने की उनकी भी इच्छा मर न जाये ।
प्रत्येक अध्याय किसी न किसी इलाके की खूबी को उजागर करता है। कश्मीर संबंधी पहला ही अध्याय ढेर सारी नयी जानकारियों से भरा हुआ है। यह बात शेष भारत में लोगों को शायद ही पता होगी कि कश्मीर में सीवर न होने की वजह से वहां फ़्लश वाले शौचालय न के बराबर हैं। शहरी इलाकों में भी सेप्टिक टैंक में मल को जमा किया जाता है। रोज रोज जिन शौचालयों को साफ किया जाता है उनके मुकाबले इन्हें बहुत समय बाद साफ करना होता है लेकिन खतरा अधिक होता है। सफाई का काम रात भर में पूरा कर लेना होता है क्योंकि दिन होते ही पड़ोसी शोर मचाने लगते हैं। कश्मीर की अपनी विकराल समस्याओं के भीतर इस समुदाय की मांग पर ध्यान देने का समय न सरकार के पास है न आंदोलनकारियों के पास।
इस काम में लगे अधिकतर लोग इसे किस्मत मानकर किये जाते हैं लेकिन बच्चों को स्कूल में जिस तरह से कलंकित किया जाता है उसका दर्द सबकी जुबान से सुनायी पड़ा। अधिकतर स्त्रियां विवाह के लिए ऐसे घर पसंद करती हैं जहां यह काम न होता हो। इन चाहतों और शिकायतों की राह बदलाव की सम्भावना को लेखिका ने लक्ष्य किया है। प्रत्येक प्रांत की बात करते हुए लेखिका ने इस बात का जिक्र जरूर किया है कि इस काम को नाम क्या दिया गया है। कश्मीर में इसे टच पाजिन कहा जाता है और करने वाले समुदाय को वातल। मल को सीधे खेत में ले जाकर डालने की प्रथा भी शायद वहीं चलन में है। कानपुर में उन्हें ऐसे शौचालय के लिए कमाई वाली लैट्रिन नाम का पता चला ।
प्रत्येक प्रांत की स्थिति के बयान में कोई न कोई नयी बात है लेकिन कश्मीर के बाद पश्चिम बंगाल और गुजरात की हालत सबसे हाहाकारी नजर आती है। गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ही आज देश के प्रधानमंत्री हैं। उनके मुताबिक इस काम में कोई आध्यात्मिक अनुभव जरूर शामिल है वरना सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी इस काम को एक ही समुदाय न जारी रखता। उनके इस नजरिये पर किसी कार्यकर्ता की टिप्पणी ध्यान देने लायक है कि इसी परम आध्यात्मिक सुख का अनुभव खुद मोदी क्यों नहीं लेते। इसी तथ्य के साथ जाति प्रथा के साथ इसका रिश्ता खुल जाता है। यदि यह भी अन्य कामों की तरह का काम होता तो क्यों एक ही जाति इस काम को किये चली जा रही है।
इसी तरह पश्चिम बंगाल के मामले में पिछली वाम सरकार और उसके विपक्षी तृणमूल के नेताओं का एक समान रुख नजर आता है। लेखिका ने सत्ता और राजनीति की दुनिया में इस समुदाय की चिंता की अनुपस्थिति को अच्छी तरह से रेखांकित किया है। बंगाल में उन्हें शौचालयों की सफाई के लिए बाजार में बिकता हुआ खास तरह का उपकरण दिखा जिसे कामवालियां खरीदती हैं। मल को सिर पर उठाकर ले जाने वाली बाल्टी नगरपालिका की ओर से उपलब्ध करायी जाती है। अदालत में झूठा हलफ़नामा लगाने के लिए ऐसे शौचालयों को तोड़ दिया जाता है। देश की लगभग सभी सरकारें इस प्रथा की मौजूदगी से इनकार करती हैं। इन कर्मियों के पुनर्वास के लिए आवंटित धन कागज में खर्च हो जाता है लेकिन संबंधित समुदाय के लोगों को ऐसी किसी योजना की कोई भी जानकारी नहीं दिखी ।
लेखिका ने इन सफाई कर्मियों के एक ऐसे रुख का सबूत दिया है जो उनकी मानवीयता को भद्रलोक की मानवता से बहुत ऊपर उठा देता है। सीवर बिछाने के मामले में आम तौर पर दलित बस्तियों और मुस्लिम इलाकों के साथ भेदभाव बरता जाता है। सफाईकर्मी स्त्रियों ने प्राय: लेखिका से बताया कि इन घरों में फ़्लश वाले शौचालय लगाने से सुविधा तो हो जायेगी लेकिन इनकी आर्थिक अवस्था ऐसी नहीं कि वे ऐसे शौचालय लगवा सकें। इसलिए ऐसे घरों के साथ उनका रिश्ता भिन्न किस्म का होता है। वे सभी अपना काम छोड़ना चाहती हैं, उनमें से बहुतेरी स्त्रियों ने टोकरी को जला दिया और फिर कभी मैला न उठाने की कसम खायी लेकिन कोई अन्य काम उन्हें करने का सुभीता हासिल नहीं होता। एक बार एक स्त्री ने कुछ दूकान या होटल जैसा चलाना चाहा तो जातिगत कारणों से उद्यम चल न सका। कई बार तो नगरपालिका से आवंटित आवास की सुविधा को जारी रखने के लिए भी ये अपने परिवार के किसी न किसी सद्स्य को इस पेशे में डाल देते हैं। कानूनन यह पेशा अपराध है लेकिन इस अपराध का दंड बहुतेरा सरकारों के मुकाबले इन सफाईकर्मियों को ही भुगतना पड़ता है । इस तरह जो कानून उन्हें मुक्त करता वही उन्हें अपराधी बना देता है ।