जेएनयू में एक हमदर्द सीनियर (1972-75), दोस्त और बाद में वहां के प्रोफेसर डॉ. कलीम बहादुर का शनिवार रात में दिल्ली के एक अस्पताल में निधन हो गया, वे कोरोना से ग्रसित हो गये थे।
85 वर्ष के डॉ कलीम लंबे समय से उम्रजनित बीमारी से भी जूझ रहे थे। वे एक बेहतरीन इंसान और मध्य एशिया के मामलों के विश्व विख्यात जानकार थे जिन्होंने बहुत पहले इस सच को उजागर किया था की अमरीका किस तरह जिहादी इस्लाम का निर्माण कर रहा है और अफ़ग़ानिस्तान को किस तरह भारी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है।
उन्होंने जीवन भर इस बात का बखान नहीं किया और न ही किसी प्रकार के राजकीय सम्मान या सहायता की मांग की कि वे 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के महानतम नायकों और शहीदों में से एक, खान बहादुर खां के पौत्र थे जिन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के राज से आज़ादी की मई 11, 1857 की घोषणा के बाद रोहिलखंड इलाक़े का शासन प्रधानमंत्री के तौर पर संभाला था । उनके नायब पंडित ख़ुशी राम थे। खान बहादुर खां और पंडित ख़ुशी राम बरेली में एक बड़ी जंग ग़द्दारों के कारण हारने के बावजूद इन्होंने 1859-1860 तक आज़ादी की जंग जारी रखी। खान बहादुर खां और पंडित ख़ुशी राम की गिरफ्तारी के बाद उन्हें 243 इन्क़िलाबियों के साथ बरेली में मार्च 20, 1860 में फांसी दी गयी।
कलीम बहादुर का विवाह शहर के जाने माने वकील मुंशी प्रेमनारायण सक्सेना की पुत्री किरण सक्सेना से हुआ था। इस अंतर्धार्मिक वैवाहिक रिश्ते की उस समय काफ़ी चर्चा रही थी। उनकी पत्नी किरण सक्सेना जो खुद भी जेएनयू में प्रोफेसर के पद से रिटायर हुयी थीं का डेढ़ वर्ष पूर्व निधन हो गया था।
अलविदा कलीम बहादुर साहब!