कमलानंद झा
आज हिन्दुस्तान की जनता के सामने सबसे बड़ी चुनौती लोकतंत्र को बचा लेना है। देश की साझी संस्कृति और साझी विरासत को बचा लेना है। सहमति के साथ-साथ असहमति की संस्कृति को बचा लेना है। क्योंकि अब ये सारी चीजें विगत की यादें या कथा-आख्यान की चीजें बनने की सीमा तक पहुंच गई हैं।
आज भारतीय राजनीति भयानक संकट के दौर से गुजर रही है। सत्तारूढ़ पार्टी पूरे देश को एक खास रंग में रंगने की कवायद में एड़ी चोटी का पसीना एक किए हुए हैं। झूठ को एक शैली के रूप में विकसित किया जा रहा है। एक दूसरे के बीच राग और विश्वास को छीनकर, संदेह और भ्रम का माहौल बनाये जाने की पुरजोर कोशिश जारी है। ज्ञान, चिंतन और आलोचनात्मक विवेक की स्थली विश्वविद्यालयों को युद्ध-क्षेत्र में तब्दील करने की कवायद जोरों पर है। जेएनयू, हैदराबाद, बीचयू के बाद अब एएमयू की बारी है। युवा वाहिनी की गुंडागर्दी को जिन्ना विवाद का नाम देकर पूरे देश में विश्वविद्यालय को बदनाम करने की नापाक कोशिश की जा रही है। अलीगढ विश्वविद्यालय विवाद के नाम पर चुनाव पूर्व बहुसंख्यक वोट के ध्रुवीकरण के इस शातिर खेल को देश की जनता अब समझने लगी है।
ऐसे माहौल में कथाकार मंटो की याद स्वाभाविक है। क्योंकि मंटों की कहानियां विभाजक भावों, मनोवृत्तियों, विचारों और विचारधाराओं पर वज्र की तरह गिरती हैं। ऐसे ‘अंधेरे में’ मंटो की कहानियां हमें आलोक प्रदान कर सकती हैं। उनके जन्मदिवस पर हम उनकी कहानियों से साक्षात्कार करते हैं।
अभी तक भारतीय साहित्य का व्यवस्थित और विश्वसनीय इतिहास नहीं लिखा गया है। जब कभी इसका इतिहास लिखा जाएगा उर्दू अफसानानिगार सआदत हसन मंटो का साहित्य बिल्कुल हाशिए के लोगों, जिन पर आम रूप से लोग खुसुर-फुसुर भी नहीं करना चाहते उनकी जिंदगी में घुसकर उनकी तल्ख और तुर्श सचाइयों से रू-ब-रू कराने में सबसे आगे प्रमाणित होंगे। वेश्या कही जाने वाली औरतें, तांगा और ठेला चलाने वाले, गटर और पाइप में जिंदगी बसर करने वालों की दास्तान बयां करती मंटो की कहानियां भला संभ्रांत साहित्य आचार्यों को कैसे रास आती ? इसलिए साहित्याचार्यों ने मंटो की कहानियों पर जितने इल्जामात लगाए जा सकते हैं, लगाए। लेकिन पता नहीं मंटो किस मिट्टी के बने हुए थे कि बावजूद इसके वे बेहतरीन कहानियां लिखने से बाज नहीं आए। तो उनकी कहानियों पर अश्लीलता और नग्नता के मुकदमे ठोंक दिए दिए गए । किंतु आज मंटो की मृत्यु के लगभग पचपन साल बाद उन पर आरोप लगाने वाले कहां हैं और मंटो की कहानियां कहां है, यह बिल्कुल शीशे की तरह साफ है।
आज पाकिस्तान की सरकार भले ही उन्हें ‘निशान-ए-इम्तयाज़’ नाम से पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाज दे लेकिन जिन दिनों उन्हें दो जून रोटी और अफसानानिगार की हैसियत से न्यूनतम सम्मान की आवश्यकता थी, उन्हें इतना जलील किया कि वे अपनी कुल 43 वर्ष की उम्र में न जाने कितने वर्ष अदालतों का चक्कर लगाते रहे और कितने वर्ष मानसिक संतुलन खो जाने के कारण पागलखाने में रहे।
आज भी लोगों को अदालत के नाम से कंपकंपी छूट जाती है, वे पागलखाने पहुंचे तो क्या आश्चर्य ? इस अदालत ने उनकी क्या गति की, उन्हीं के शब्दों में “पहले तीन अफसानों में तो मेरी खलासी हो गई- ‘काली सलवार’ के सिलसिले में मुझे दिल्ली से दो-तीन बार लाहौर जाना पड़ा, ‘धुआं’ और ‘बू’ ने मुझे बहुत तंग किया, इसके लिए मुझे बंबई से लाहौर जाना पड़ता था। लेकिन ‘ठंडा गोस्त’ का मुकदमा सबसे बाजी ले गया। इसने मेरा भुरकस निकाल दिया। यह मुकदमा गो यहां पाकिस्तान ही में हुआ, मगर अदालतों के चक्कर कुछ ऐसे थे जो मुझ जैसा हम्मास (संवेदनशील) आदमी बर्दाश्त नहीं कर सकता था, कि अदालत एक ऐसी जगह है जहां हर तौहीन बर्दाश्त करनी ही पड़ती है। खुदा न करे किसी को, जिसका नाम अदालत है, से वास्ता पड़े, ऐसी अजीब जगह मैने कहीं भी नहीं देखी।”
कहानियों में अश्लीलता और नग्नता चस्पा करने का आरोप उन पर लगता रहा और इसी आरोप में उनकी कहानियों पर मुकदमे भी चलते रहे किंतु आश्चर्य होता है कि उनकी कहानियों पर अश्लीलता का आरोप कैसे लगता रहा ? मंटो की सर्वाधिक विवादास्पद कहानी ‘ठंडा गोस्त’ दम तोड़ती मानवता की करुण गाथा है। कथा नायक इसर सिंह का पौरुष, अपने किए कृत्य के कारण चला जाता है। सांप्रदायिक दंगे में कई लूटपाट और खून खराबा कर अंत में वह एक लड़की को बलात्कार के लिए उठा लाता है। वह उसे एक जंगल में ले जाता है। कंधे से उतारकर जब वह उसे नीचे उतारता है और बलात्कार के लिए झुकता है तो अचंभित रह जाता है। वह लड़की भय और दहशत से दम तोड़ चुकी होती है। यह घटना उसे इतना विचलित कर देती है और अंदर तक झकझोर देती है कि उसकी मर्दानगी चुक जाती है। वह नपुंसक हो जाता है। उसके हृदय में छुपी हुई मानवता ने उसके पौरुष को बरबाद कर दिया था। इंसान बनने की बहुत बड़ी सजा उसे भुगतनी पड़ी। पता नहीं किस तरह के पाठकों को इस दारुण दशा में अश्लीलता नजर आती है। इसर सिंह की उद्दाम यौनिकता को दर्शाने के लिए कुलवंत के साथ उसके शारीरिक सबंध की चर्चा भी कहीं से कुत्सित नजर नहीं आती। उसके पौरुष के खो जाने के दंश को मार्मिक और प्रभावशाली बनाने के लिए उसके पूर्व के पौरुष को दिखाना अनिवार्य था।
मंटो के लिए ऐसे आरोपों का कोई मायने नहीं था। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है, “ मेरी कहानियां पढ़कर किसी बीमार मन पर ही गंदा असर पड़ता है, पर जिन लोगों के मन तंदरुस्त होते हैं, उनके लिए ही कवि कविता करता है, कहानीकार कहानी लिखता है और चित्रकार चित्र बनाता है। मेरी कहानियां नार्मल इंसानों के लिए है जो स्त्री की छाती को स्त्री की छाती ही समझते हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं। स्त्री पुरुष के संबंध को आश्चर्य से नहीं देखते ।’’
‘खोल दो’ कहानी का सर्वाधिक मार्मिक क्षण वह है जब दंगाइयों के दहशत से पिता-पुत्री भागते हैं, सकीना का दुपट्टा गिर जाता है जिसे शाहबुद्दीन उठाना चाहता है लेकिन सकीना कहती है, जाने दो अब्बू मत उठाओ, भागो। लेकिन फिर भी पिता का मन नहीं मानता, वह रुककर सकीना का दुपट्टा उठा ही लेता है। जिस पुत्री की आबरू की इतनी चिंता पिता को है उसी पुत्री का बलबाइयों द्वारा इतनी बार बलात्कार होता है कि डाक्टर द्वारा नर्स को खिड़की खोल दो कहने को सुनकर सकीना अपने कपड़े खोलने लगती है। इस क्षोभपूर्ण हरकत से भी पिता प्रसन्न होता है क्योंकि उसे यह जानकर प्रसन्नता होती है कि बेटी अभी मरी नहीं है बल्कि जीवित है।दुपट्टे उठाने से लेकर ‘खोल दो’ घटना तक का जो कंट्रास्ट है, वह कहानी को उंचाई प्रदान कर जाता है। साथ ही कहानी यह भी कह जाती है कि बलात्कार अत्यंत बुरा है, लेकिन जीवन अत्यंत महत्वपूर्ण है। बलात्कार हो जाने पर जीवन समाप्त नहीं होता और न होना चाहिए। इसे महज एक दुर्घटना समझकर फिर से जीवन चलाने की आवश्यकता है न कि अवसाद में जाने की।
मंटो की कहानियां ‘मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहने का दर्द ’ बयां करती है। उनकी लगभग प्रत्येक कहानियां मनुष्य को मनुष्य का दर्जा दिए जाने की जद्दोजहद की कहानियां हैं। उनकी कहानी ‘तलाश’ लुप्त होती इंसानियत की तलाश है। मनुष्य की स्वाभाविक और प्राकृतिक अच्छाइयों का विरोध जहां कहीं भी दिखता है मंटो की कहानियां फन काढ़े सांप की तरह फुफकारती नजर आती हैं। इसलिए उनकी कहानियां कई बार कहानी की सीमा रेखा तोड़कर मनुष्य की नियति का सुदीर्घ दस्तावेज बन जाती हैं।
सआदत हसन मंटो किसी भी तरह के प्रभुसत्ता के खिलाफ थे, चाहे वह सत्ता राजसत्ता हो, समाजसत्ता हो, धार्मिकसत्ता हो या फिर बौद्धिक सत्ता ही क्यों न हो। फलस्वरूप मजहबी आधार पर बने पाकिस्तान में सत्ता और मुल्ला दोनों ही के कोप का शिकार उन्हें बनना पड़। सामान्यतया लोग उन्हें कट्टर कम्युनिस्ट समझते हैं, लेकिन वे किसी भी तरह की कट्टरता के विरोधी थे। प्रगतिशील लेखक संघ से यद्यपि उनका गहरा जुड़ाव था लेकिन वे यह भी कहने में संकोच नहीं करते थे कि “मुझे तथाकथित कम्युनिस्ट जबर्दस्त नापसंद हैं। मैं उन लोगों का सम्मान नहीं कर सकता जो आरामकुर्सी में धंसकर ‘ हंसिए हथौड़े ’ की बात करते हैं।’’
सआदत हसन मंटो ने कृत्रिम विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी यह अस्वीकारोक्ति मित्रों को लिखे उनके पत्रों से ज्ञात होती है। यह अनायास नहीं है कि उनकी बेमिसाल कहानी टोबाटेक सिंह का कथा नायक बिसनसिंह विभाजन को स्वीकार नहीं कर पाता है। पागल बिसनसिंह भारत पाकिस्तान की सीमा रेखा पर अपनी जान दे देता है। मंटो भी विभाजन के कुछ ही वर्ष बाद दुनिया को अलविदा कह जाते हैं। और वे जिस तरह मरते हैं, लगता है जानबूझ कर उन्होंने अपने आप को मारा। विभाजन की पीड़ा ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया था। टोबाटेक सिंह के अतिरिक्त बंटबारे तथा हिंदू मुस्लिम फसादों पर लिखी गयी उनकी अविस्मरणीय कहानियां टेटवाला का कुत्ता, यजीद, गुरूमुख सिंह की वसीयत, खोल दो और शरीफन बकौल नीलाभ ‘यह कहानियां हमें एहसास दिलाती हैं कि बंटवारा मंटों की जिंदगी में कैसे हादसे के रूप में टूटा था।’
एक तो विभाजन की असह्य पीड़ा, दूसरा घोर आर्थिक तंगी, तीसरा सत्ता का क्रूर दमन चक्र और ऊपर से साहित्याचार्यों की धुर उपेक्षा ने उनके मदिरापान की गति को इतना अधिक तीव्र कर दिया कि वह उनकी जान लेकर ही गया।
विश्वप्रसिद्ध कथा लेखक सलमान रुश्दी ने मंटो को कथा लेखन में भारत पाकिस्तान का निर्विवाद बादशाह कहा है। वास्तव में कथा लेखन पर उनकी गहरी और मजबूत पकड़ थी। उन्होंने अपनी पहली ही कहानी ’तमाशा’ में इस बात का आगाज कर दिया था कि एक बड़े अफसानानिगार की पैदाइश हो गयी है। आठ वर्ष के बच्चे की आंखों देखा जलियावाला बाग नरसंहार की घटना पर आधारित यह एक बेहतरीन कहानी है। दिल को दहला देनेवाली यह वीभत्स दुर्घटना जब घटी थी मंटो की उम्र सिर्फ आठ वर्ष की थी। कहानी अद्भुत रूप से विश्वसनीय इसलिए बन पड़ी है कि मंटो के बालचित्त पर जलियांवाला बाग घटना की जो छाप पड़ी, उन्होंने बाद में उसे अपने अफसाने में ढाल दिया। कदाचित उन्होंने अपनी पहली ही कहानी से तय कर लिया था कि वे हवाई कहानी नहीं लिखेंगे।
अधिकांश कहानियों में मंटो स्वयं किसी-न-किसी रूप में उपस्थित रहते हैं। एक वेश्या की मनोदशा और दारुण दशा पर लिखी गई उनकी कहानी ‘हतक’ विश्व साहित्य में स्थान पाने योग्य है। दलाल के द्वारा जब सुगंधी एक सेठ ग्राहक से नापंसद कर ली जाती है तो उसका स्त्रीत्व अद्भुत रूप से जगता है। उस क्षण वह एक वेश्या नहीं सिर्फ एक औरत होती है और किसी पुरुष द्वारा किसी स्त्री को नापंसद करने से अधिक अपमान की बात कुछ हो ही नहीं सकती है। मंटो ने अपमान से आहत और घायल एक स्त्री का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एक स्त्री के धरातल पर उतरकर किया है। स्त्री के इस एहसास को ठीक-ठीक समझ पाना बगैर परकाया प्रवेश के संभव ही नहीं।
मंटो के इस कायांतरण को हम उनके एक वक्तव्य से भली भांति समझ सकते हैं। यह वक्तव्य उनकी पैनी आलोचना दृष्टि का भी परिचायक है। मंटो कथालेखक मोपांसा के फैन थे। एक दिन उनके मित्र और प्रसिद्ध अहमद नदीम कासमी ने कहा ‘मोपांसा की एक कहानी के संदर्भ में टाल्सटाय ने कहा कि मोपांसा ने नायिका को नग्न होकर स्नान करता बताया है, उसकी जगह उसने मात्र यह लिखा होता कि वह स्नान कर रही थी। और मानो यह काफी नहीं था तो लिख देता कि जब वह नहा रही थी उसके शरीर पर पानी की बूंदे दिखाई देती थी। इतने में ही जो चाहते हैं- कह सकते हैं। तब फिर मोपांसा को ये कहने की क्या जरूरत आन पड़ी कि पानी की उन बूंदों का रंग नायिका के तन जैसा सुनहरा या गुलाबी था।’
तीखे स्वर में मंटो ने प्रत्युत्तर में जो कुछ कहा , वह कथा लेखन की रचना प्रक्रिया को बहुत सलीके से उद्घाटित करता है, ‘ स्त्री के शरीर के रहस्य की समझ तुम्हें कैसे आएगी? तू ने अब तक शादी नहीं की। मोपांसा की बात तुम्हें कैसे समझ आएगी? जल बिन्दुओं के रंग का वर्णन उसे क्यों योग्य लगा, वह तुम कैसे समझ सकते हो? उसने अगर ऐसा रोमांटिक वर्णन नहीं किया होता तो स्त्री कितनी सपाट लगती? गुलाबी जल बिन्दु तो उसके जीवन को प्रफुल्लता प्रदान करते हैं। किसान स्त्री के बारे में कहानी लिख दी तो ये जरूरी नहीं कि उस किसान स्त्री का मनोविज्ञान भी आप समझें। ये मैं तुम्हें नहीं टाल्सटाय को कह रहा हूं। स्त्री के लिए लिखते समय स्त्री बनना पड़ता है।’
मंटो मुख्यरूप से कथाकार हैं, लेकिन समय-समय पर लिखी गयी उनकी आलोचनाएं, फिल्मसमीक्षाएं एवं व्यंग्यलेखन भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। यह दूसरी बात है कि उनके इन पक्षों पर यथोचित ध्यान नहीं दिया गया है। चाचा सैम को लिखे कई पत्रों में व्यंग्य का पैना पन ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ की याद दिला जाता है। आज हम जिस अमरीकी वर्चस्व, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की बात करते हैं, पचास साल पूर्व मंटो अपने व्यंग्य लेखन में इसका पूर्वाभास हमें दे जाते हैं। आज अमरीकी बाजार का विस्तार हम देख ही नहीं भोग भी रहे हैं। मंटो ने उन्हीं दिनों लिखा, ‘‘हमारी बसें अमरीकी औजारों से लैस होंगीं। हमारे इस्लामिक पायजामे अमरीकी मशीनों से सिले जाएंगे। हमारा मिट्ठी का ढेला अमरीकी मिट्ठी से बना होगा। कुरान को रखने वाले फोल्डिंग स्टेंट अमरीकी होंगें। और नमाज पढ़ने की चटाइयां भी अमरीकी होंगी। देखते जाओ चाचा, सब तुम्हारी शान में कसीदे पढेंगे।’’
मंटो पर कई आरोप लगते रहे। यहां तक कि उन पर देश-द्रोह का आरोप भी लगा। पाकिस्तानी सत्ता तथा शासन व्यवस्था की आलोचना करने से भी वे नहीं चूकते थे किंतु उनकी अमरीकी आलोचना की पैनी दृष्टि को देखकर कुछ अमरीकी एजेंटों ने उनसे अमरीका के पक्ष में लिखने का अनुरोध किया। ये मंटो को मुंहमांगी कीमत देने को तैयार थे। यहां तक कि पांच सौ रूपया प्रति लेख देने की पेशकश की। ध्यान देने की बात यह है कि उन दिनों उन्हें एक कहानी के सिर्फ पच्चीस रूपये मिलते थे और दूसरी तरफ फाका मस्ती का कोई अंत नहीं था। बावजूद इसके उन्होंने इस तरह के लेख लिखने से साफ मना कर दिया।
मंटो ने कहा था ‘‘मंटो शराबी हो सकता है, नशेड़ी हो सकता है तथाकथित अश्लील कथाकार हो सकता है, बदजबान हो सकता है लेकिन देशद्रोही नहीं हो सकता।’’
(आलोचक कमलानंद झा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं। सद्यः प्रकाशित आलोचना पुस्तक ‘तुलसीदास का काव्यविवेक और मर्यादाबोध’ चर्चित हुई। मो0-085219909)