किताब चाहे कवनो भाषा के होखे, पढ़े के जरूरत हमेशा बनल रहेला। जब जब पढ़ल जाई, कुछ ना कुछ बात जरूर कहे जोग निकल आई। पढ़लको कितबिया से नया कुछ निकल आई। भोजपुरी किताबन के संदर्भ में ई बात अउरी जरूरी आ प्रासंगिक बा। काहे कि भोजपुरी कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध भा वैचारिक किताबन प अपेक्षाकृत कम बात भइल बा। एह कड़ी में 1976 में प्रकाशित कन्हैया सिंह ‘सदय’ के कहानी संग्रह ‘मनसा’ प बात कइल जा रहल बा। कन्हैया सिंह भोजपुरी कहानीकार लोग में अइसन नांव बा जेके अनदेखा ना कइल जा सके।
कन्हैया सिंह ‘सदय’ के कहानी-संग्रह ‘मनसा’ प कुछ बात करे से पहिले सदय जी से कहे में हमरा कवनो गुरेज नइखे कि हम उनकर एह संग्रह के कहानी अब जाके पढ़नी ह। पढ़े में देर जरूर भइल बा। अबले बात ना कर पावे के असल इहे कारन बा। पढ़े में देरी बस अतने जाने के बा कि हो गइल बा। जानबूझ के नइखे कइल गइल। सदय जी भोजपुरी के ओह पीढ़ी के लेखक हवें जे भोजपुरी साहित्य के बढंती खातिर बहुत कुछ कइले बा। संस्था गठन से लेके लिखे, पढ़े, छपावे आ परचार- परसार करे तक। लिखल के छपवावल आ ओकरा के लेखक आ पाठक लोग तक पहुंचावल, आसान ना होला। अपना मेहनत के कमाई से किताब छपावल देखे के होखे त सदय जी सहित भोजपुरी के अनेक लोगन के देखे के चाहीं। आ ई आजो जारी बा। आजो भोजपुरी के कवि-लेखक लोग अपने आग-खर्रे बरत बाड़न। एह बात के महत्व अपना जगह प बा आ कवनो लेखक आ ओकर कृति के मूल्यांकन अपना जगह। एह में कवनो रकम के घालमेल ठीक ना होई।
कन्हैया सिंह ‘सदय’ बीसवीं सदी के आठवां दशक में लिखे शुरू करत बाड़न। भोजपुरी साहित्य परिषद्, जमशेदपुर से मार्च 1976 में उनकर ‘मनसा’ कहानी संग्रह छपल बा । रसिक बिहारी ओझा लेखक के परिचय लिखले बाड़न। एह संग्रह के बारे में कुछ विद्वानन के विचारो छपल बा। डॉ.बच्चन पाठक सलिल, कुमुद कुमार ‘कमल’ आ निर्मल मिलिंद के टिप्पणी बा। संग्रह में कुल सात गो कहानी बा। ई रहल प्रकाशन डिटेल। भोजपुरी कहानी के इतिहास प बात करे खातिर एह कुलि के भी देखे के चाहीं।
मार्च 1976 में ई संग्रह आइल बा। भारत के राजनीति, साहित्य आ संस्कृति प बात विचार करत समय आठवां दशक के सामाजिक राजनीतिक आंदोलन के ख्याल में राखे के चाहीं। आठवां दशक आपातकाल आ जे. पी. मूवमेंट वाला दशक रहल बा। नक्सलवादी आंदोलन के उभार आ ओकर क्रूर दमन के इतिहास वाला दशक ह। कला , साहित्य आ संस्कृति- कर्म के अनेक रूपन प जेपी मूवमेंट आ नक्सलवादी आंदोलन के व्यापक प्रभाव रहल बा। हिंदी सहित देश के अन्य भाषा के साहित्य प एकर प्रभाव देखल गइल बा। एहिजा हम इहो कहल चाहब कि एह आंदोलन के प्रभाव के कई गो रूप आ स्तर बा। कहीं ई मोट रूप में बा त कहीं महीन रूप में, दर्शन के रूप में। कहीं कहीं त अइसन कि पकड़ में ना आई झट दे। गरीबी, बेरोजगारी, सामंती उत्पीड़न, रोजगार के संकट, नारी उत्पीड़न, महंगाई, सत्ता के जन विरोधी चरित्र आ व्यवहार आठवां दशक के जन आक्रोश के वजह रहल बा। आठवां दशक के भोजपुरी कहानी पर भी एकर प्रभाव बा। एह के समझे के होई।
सदय के कहानियन में राजनीतिक आंदोलन के सीधा असर त नइखे लउकत ना, ना ओकर कवनो सीधा अभिव्यक्ति बा बाकी ओह समय के सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति आ बहस के स्वर बेशक दर्ज बा। ‘मनसा’ इनकर पहिलका कहानी संग्रह ह। एहिजे से ऊ कहानी लेखन में सक्रिय होत बाड़न। सदय के एह संग्रह के कहानियन में समय के धड़कन बा आ प्रस्तुति आ भाषा के गढ़न में नयापन बा। एह लिहाजे ‘ना’ शीर्षक कहानी ध्यान खींचेले। ‘ना’ कहानी में उच्च जाति के समिलात परिवार में औरत के यातना भरल जिनगी बा। बाकी अतने से कवनो कहानी कहानी ना हो सके, नीमन त बेलकुल ना। सदय के कहानी में अपना के पढ़ा लेवे आ नया कुछ देखावे के कूबत बा। अंत में जवन ‘ना’ बा, नारीपात्र के मन के भीतर से परिस्थिति के पेंच से निकलल, ओह में नयापन बा। ई ‘ना’ अनसोहाते नइखे निकलत। पति-पत्नी रात में एक कमरा में एक बिछवना प बाड़न , बिछवना बहुत पुरान बा, पत्नी के सुनरई भी बिला चुकल बा, ठोकच बइठ गइल बा। पति साल भर बाद बहरा से आइल बाड़न। साल भितरे पत्नी के अइसन दसा हो जाता। ऊ एकर वजह से नावाकिफ बाड़न। ओने पति के भी बहरा में हालत ठीक नइखे रहल। नोकरी छूट जाता। ऊ साल भर के आखिरी कमाई दू सौ रोपेया आ डिस्चार्ज लेटर लेके आइल बाड़न । पत्नी घर में आपन अनदेखी आ उत्पीड़न के बात बतावत बाड़ी आ पति परदेस के आपन जीवन के। पति के मन में उमेद रहे कि उनकर आपन तनाव आ दुख के बात सुन के पत्नी उनका से सहानुभूति देखाई। बाकी ना, ऊ सहानुभूति का देखाई , डिस्चार्ज के बात सुनते ओकरा मुंह से ‘ना’ निकलत बा। ‘ ई का भइल ?’ – निकलत बा। ऊ एह स्थिति के, नोकरी छूटे के स्थिति के कबूल नइखे पावत। वजह ई बा कि आर्थिक स्थिति डांवाडोल बा, समिलात परिवार अब रहे लायक नइखे आ जवन उमेद नोकरी से रहे, उहो छूट गइल । एह नकार में ई सब शामिल बा आ भोजपुरी कहानी खातिर ई नया बा।
कहानी, रात के जब परिवार के लोग खा-पी के सूते -परे जाला, ओह समय शुरू होले आ भोर में जब चुचुहिया बोले ले, तवना समय पूरा होत बिया। तब, खासकर आठवां दशक में, समिलात परिवार में पति-पत्नी के भेंट के इहे समय होत रहे। आ कहानी में जवन ‘ना’ गूंजत बा, तवन भोर के बेरा में गूंजत बा। सूते के बेरा से शुरू होके जागे के बेरा तक कहानी चलत बिया। एह के देखल जरूरी बा आ एही बेरा में ‘झुरकि पुरवा रस बेनिया डोलावे’ जइसन श्रृंगारिक गीत के गूंज बा।
केहू कह सकेला कि सदय के समूचा कहानी कर्म प बात करे के जगहा प महज एगो संग्रह, जवन 1976 में छपल बा, प बात करे के का मतलब! एह संदर्भ में हमार आपन बात ई बा कि एह तरह के अध्ययन के जरिए हमरा समूचा अध्ययन तक पहुंचे में मदद मिली। अच्छा त ई होइत कि आठवां दशक में छपल कहानी आ कहानी संग्रह सब के एक जगे रख के ओकर मूल्यांकन कइल जाए।
संग्रह के कहानी ‘मिरिगजल’ में यूनियन आ हड़ताल के संदर्भ बा।कुछ राजनीतिक गंध बा। बाकी ओह तरह के कवनो तनाव नइखे जवन ‘ना’ में बा। बेतनाव के कवनो कहानी ना मार्मिक हो सके आ ना ऊ कहीं ले जा सके। ‘मिरिगजल’ में सोना के सुंदर-सलोना रूप बा आ ओकरा लेके आकर्षण। सोना के पति के नोकरी से बेदखली के वजह सोना के सुग्घड़ रूपे बा। सोना के पति जीतू के कहां त प्रोमोशन होखे वाला रहे, हाकिम के बात ना मनला के चलते, नोकरियो गंवावे पड़त बा। कहानी में कामगार यूनियन के जिकिर बा, बाकी ओकर कवनो रंग-ढंग, कवनो ऐक्टिविटी के ब्योरा नइखे। जीतू के चरित्र लड़ाकू होइयो के बहुत सपाट बा आ सोना के चरित्र के भी कवनो खास पहलू नइखे उभरत। खाली सुंदर भइला के सूचना से कहानी ना बने। जीतू के नोकरी छुटला के बाद होटल खोले आ चलावे के वर्णनो सपाट बा।
‘बूंद से सागर ले’ पढ़े लायक कहानी बा। गंवई चरित्र आ संस्कृति के गज्झिन बुनावट मिली एह में। कथा में जे मुख्य चरित्र बा, अइसन चरित्र कमबेसी हर गांव देखे-सुने के मिल जालें। अनपढ़, सोझिया। कुछ- कुछ अल्बटाह। अल्बटाह रामरूप के कहानी के प्रमुख किरदार बनावे में सदय के कल्पनाशीलता के भी योगदान बा। लोककथा के टेकनीक अपनवला के चलते पठनीयता बरकरार बा। रामरूप के चरित्र में जवन बदलाव देखावल बा, ऊ आरोपित ना होके, परिस्थिति आ घटना के स्वाभाविक विकास क्रम में सृजित बा। रामरूप जहां तक सोझिया भा अल्बटाह बाड़न उहां तक हर गांव में मिलेलें। जहां से बदलत मिलत बाड़न, कहानीकार के सृजन बाड़न आ ई एह कहानी के हासिल कहाई । रामरूप के साथे साथ विधवा फुलमतिया भी गतिशील चरित्र बिया।
गांव में पहिले लइका होखे भा लइकी, ओकर बिआह के एगो आपन सिस्टम रहे। देखनहरू आ अगुआ के भूमिका प्रमुख होत रहे। एकरा संगे बिआह कटवा भी होत रहलें। बिआह कटवा आन जाति के कम, जाति भितरे के जादे होत रहलें। अगुआ के ठीक उल्टा भूमिका होत रहे बिआह कटवा के। रामरूप के बिआह एक त उनका अनपढ़ आ गंवार भइला के चलते भइल मुश्किल रहे, ऊपर से बिआह कटवा भी तत्पर रहलें। एह के मूल में रहे उनकर जमीन जे पर पट्टीदार लोग के नजर रहे। बाकी, माई आ बाबू के मुअला के बाद, अकसरुआ रामरतन के सोच के प्रक्रिया बदल जाला आ तीस पैंतीस के उमर में पढ़े शुरू करत बाड़न । जब सब रहे तब ना पढ़लें। बाकी जब अपना प परल आ कुछ समझ में आवे लागल त बदल गइलें। गांव के केवल साह के विधवा पत्नी फुलमतिया से बिआह कर लेत बाड़न। गांव के जीवन के कुलि दाव पेंच के सजीव अभिव्यक्ति के चलते भी ई पठनीय कहानी बिया।
ऊपर जवन तीन गो कहानी के जिकिर बा, ओह के देखत ई समझ में आवत बा कि नारी पात्र आ जीवन देने कहानीकार के खास ध्यान बा। तीनों कहानियन में नारी पात्र के प्रमुखता से उपस्थिति बा । नारी के उपस्थिति के बिना कवनो कहानी ना हो सके, ई तय बा। बाकी सवाल ई बा कि उपस्थिति कवना रंग ढंग के बा। ओकरा के देखे के आंख कइसन बा। कतना न्याय हो सकल बा। देखे में आवत बा कि रूप के बखान से लेके बेलाउज के अगिला खुलल बटाम तक के कवनो ना कवनो विधि देखा देल बा। ना खाली रूपलोभी पुरुष आंख के देखल गइल बा, बलुक रूपलोभी पुरुष आंख से देखल गइल बा। ‘ना’ कहानी में त समिलात परिवार के भीतर यौन उत्पीड़न पर फोकस त बा बाकी ‘मिरिगजल’ में रूप के ही केंद्र में राखल बा। ‘ना’ में त थोरिका नारी प्रतिवाद जगह पवले बा, ‘मिरिगजल’ में त ओकर कवनो गुंजाइश तक ना बा।
विषय-वस्तु के लिहाज से ‘धरकोसवा’ एगो अलग कहानी बिया। छोट लइका-लइकिन के लोग डेरवा के राखत रहे। भूत के, बुढ़िया के डर देखा के लोग सुतावे, खिआवे, दूध पिआवे। कवनो बात के जिद के इहे इलाज रहे। बाल मनोविज्ञान प परे वाला असर के कवनो खेयाल ना रहत रहे। हमनियो के अपना लरिकाईं में अइसन कुलि सुने के मिलल बा। ओह डर के स्मृति आज ले बा। साइत , एह के केहू समुझ ना पावत रहे। एह के लेके कवनो बहस भा जागरूकता के अभाव रहे। कहानी के छोट कलेवर में एह जरूरी बात के उठावल गइल बा। धरकोसवा के जवन भेयावन रूप बालमन में टंका जाता, ऊ एगो छोट लइकी खातिर जानलेवा साबित होता। आ अतने ले ना, दोसरो खातिर खतरनाक साबित होता। एगो कुष्ठ रोगी के जान चल जाता। छोट लइकी कुष्ठ रोगी के देख के, जवन झोरा लेले रहे, मइल कुचइल कपड़ा में रहे, ‘धरकोसवा’ समुझ के मारे डर बेहोसे ना, मर जात बिया आ लोग ओह रोगी के भी पीट-पीट के मुआ देता बेबूझले – समुझले। भीड़ हिंसा के ऊ शिकार हो जाता । भोजपुरी में एह विषय के कहानी के अबहियो जरूरत बा।
कवनो सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के प्रभाव कला, साहित्य आ संस्कृति प जरूरी ना होला कि सीधे पड़े । एकदम सीधे अभिव्यक्त होखे। ओकर प्रभाव तनी घूम-घुमा के भी होला। युगबोध समूचा कृति में होला। एक रूप में ना, कई रूप में। एह के समझे के समझ चाहीं । कहीं कही त भाषिक संकेत में होला। जाति के जकड़न प चोट होखे भा यथास्थिति के लेके स्त्री के नकार, धार्मिक आडम्बर के आलोचना, युगबोध के ही अभिव्यक्ति ह। सदय के कहानियन में ई बहुत मद्धिम रूप में बा।
सदय के कहानी के भाषा प भी बात जरूरी बा। कुछ लोग तारीफ में कहेला कि भाषा ठेठ भोजपुरी बा। खांटी भोजपुरी बा। हमरा समझ से भोजपुरी कहानी के भाषा के बारे में ई कहल जरूरी नइखे । ओकरा त अइसन होखहीं के चाहीं । ना त भोजपुरी कहानी भइला के का अर्थ रह जाई। भाषा हमेशा कथ्य तय करेला, कथा के पात्र आ परिस्थिति से तय होला। सदय के भाषा एह लिहाजे बढ़िया बा , रचनात्मक बा। रेवंथत भोजपुरी नइखे, ई नीमन बात बा। सदय के अउरो संग्रह छपल बा। पहिले संग्रह से भोजपुरी कहानी में उनकर हस्तक्षेप सार्थक रहल। एह आलेख के कन्हैया सिंह ‘सदय’ के बहाने भोजपुरी कहानी के अध्ययन के प्रक्रिया के तहत समझल जाए, आग्रह बा।