आरा: ‘‘ राकेश दिवाकर चित्रकला के क्षेत्र में एक अच्छे संगठक और कला के गहरे अध्येता थे। वे केवल यथार्थ के नहीं, बल्कि संभावित यथार्थ के कलाकार थे। उनका स्वभाव बहुत मित्रवत था। उन्होंने उन्हें चित्रकला को समझना सिखाया।’’
जनमित्र कार्यालय, पकड़ी में चित्रकार, कला-साहित्य समीक्षक, पत्रकार और रंगकर्मी राकेश दिवाकर के तीसरे स्मृति दिवस पर 18 मई को जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए जसम के राज्य अध्यक्ष कवि-कथाकार जितेंद्र कुमार ने ये बातें कहीं।
इस मौके पर ‘ कला का सामाजिक दायित्व और राकेश दिवाकर का कला-चिंतन ’ विषय पर विचार-विमर्श हुआ। पहले राकेश के कलाकर्म के शुरुआती दौर में लिखे गए उनके लेख ‘ चित्रकला: एक चिंगारी राख में दबी हुई ’ का पाठ किया गया।
उसके बाद विषय-प्रवर्तन करते हुए सुधीर सुमन ने कहा कि राकेश एक सचेत वैचारिक चित्रकार थे। उनका जीवन और कलाकर्म इसकी बानगी है कि किसी भी कलाकार की सामाजिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक भूमिका कैसी होनी चाहिए ? उन्होंने आधुनिक कला के जनवादीकरण और वैकल्पिक संस्कृति के निर्माण की ख्वाहिश के साथ ‘ कला-कम्यून ’ नामक संगठन का निर्माण किया। वे चित्रकला को अमीरों और बाजार की दुनिया से मुक्त करके उसे आम जन की कला बनाना चाहते थे। राकेेश दिवाकर और उनके साथियों ने किस तरह अभावों के बीच जनपक्षीय चित्रकला के विकास के लिए संघर्ष किया, इसके महत्त्व को समझना बहुत जरूरी है। वे स्मृति और मानवीय मूल्यों को बचाने की बात करते थे। वैसे परिवर्तन जो मानवीय करुणा, संवेदना, न्याय और सामाजिक बराबरी के मूल्यों के विरुद्ध हैं, उनके विरुद्ध उन्होंने कला-सृजन किया।
सुधीर सुमन ने कहा कि वे दुनिया की आधुनिक चित्रकला, खासकर जनपक्षीय चित्रकला के इतिहास की गहरी समझ रखने वाले बिहार के महत्वपूर्ण कलाकार थे। अपने छोटे-से जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने समकालीन युवा चित्रकारों की कला पर लगातार समीक्षाएं लिखीं, जिसने राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचा। उनके कई चित्रों में लड़कियां हैं जिनकी उड़ान को हिंसक व्यवस्था रोक रही है, लेकिन वे हर तरह की बाड़ेबंदी को तोड़ आगे बढ़ रही हैं। वे शोषण-दमन पर आधारित राजसत्ता के खिलाफ उम्मीद की किरणों को अपनी कला में चित्रित करते रहे।
समकालीन लोकयुद्ध के संपादक संतोष सहर ने कहा कि यह देखना चाहिए कि चित्रकला अपनी उंचाई पर कब पहुंची या कब वह जनकला बनी। ऐसा अपने देश में बंगाल के अकाल के वक्त हुआ, जब जैनुल आबेदीन, चित्तो प्रसाद, सोमनाथ होर जैसे कलाकारों ने कला-सृजन किया। फासीवादी युद्ध के दौर में भी चित्रकला उंचाई पर पहुंची। आज दुनिया में युद्ध का वातावरण बना हुआ है। फिलीस्तीन और यूक्रेन और अब भारत-पाक इसके उदाहरण हैं। आज अकाल तो नहीं, पर उससे भी बुरी दशा है। आम आदमी की दशा बहुत खराब है। जीने के लिए पहले से बहुत अधिक मशक्कत करनी पड़ रही है। जल-जंगल-जमीन पर आदिवासियों का जो अधिकार है, उसे उनसे छीना जा रहा है। इसके लिए शासकवर्ग द्वारा भीषण दमन और हत्याएं की जा रही हैं। जीवन के लिए जरूरी चीजें बहुत महंगी हो गयी हैं। जाहिर है कलाकारों को आज की जीवन-स्थितियों को चित्रित करना चाहिए।
कहानीकार और कवि सिद्धनाथ सागर ने कहा कि प्रायः कलाकारों का ध्यान अपनी कला पर केंद्रित रहता है, पर राकेश का ध्यान कलाकारों को संगठित करने पर था। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था।
चित्रकार कमलेश कुंदन ने कहा कि राकेश दिवाकर के काम में विविधता थी। बाद के उनके चित्रों रंगों का सुंदर प्रयोग है। वे निर्भीकता के साथ कला-सृजन करते थे। किसी सत्ता से नहीं डरते थे। राकेश होते तो बेहतर कला-समीक्षक होते।
चित्रकार रौशन राय ने कहा कि राकेश ने मानव जीवन की बेहतरी के लिए चित्रकला को माध्यम बनाया। उन्होंने भोजपुरी में लिखने की जरूरत पर भी जोर दिया। ऐसे जमीनी सोच वाले कलाकार बहुत कम हैं। नियोजित शिक्षकों के अधिकारों के लिए जो दस साल तक संघर्ष चला, राकेश उसमें सक्रिय रूप से शामिल थे। चित्रकार कौशलेश ने बताया कि वे जो कला-समीक्षाएं लिख रहे थे, उसने विनोद भारद्वाज, अशोक भौमिक और प्रयाग शुक्ल जैसे कला-समीक्षकों का भी ध्यान आकर्षित किया।
कवि अरुण शीतांश ने कहा कि राकेश एक ईमानदार और सीरियस कलाकार थे। उनके चित्रों में हरा के साथ काला रंग दिखाई देता है। यह पूछने पर कि उन्होंने उदासी के रंग क्यों इस्तेमाल किये हैं, उन्होंने जवाब दिया कि समाज ही उदास है, जो चित्र के रंगों में प्रतिबिंबित है। वे एक अच्छे कवि भी थे। ‘बाजार’ शीर्षक से उनकी एक उल्लेखनीय कविता है।
वकीलों के संगठन आईलाज के अमित कुमार बंटी ने कहा कि आजीविका के लिए उन्होंने कई नौकरियां की, पर उसमें उनका मन नहीं लगता था। वे चित्रकला में ही रमे रहना चाहते थे।
कवि सुमन कुमार सिंह ने कहा कि राकेश सामान्य जीवन में जितने अव्यवस्थित थे, कला में उतने ही व्यवस्थित थे। छात्र जीवन में ही उन्होंने विश्व कविता की पढ़ाई शुरू कर दी थी। उन्होंने चित्रकला और साहित्य के बीच तालमेल बनाया। लेकिन मूलतः वे कला के अच्छे विद्यार्थी ही रहे। ‘ साइकिल चलाती लड़कियां ’ उनकी चर्चित सीरिज थी। उन्होंने आजीविका के लिए बहुत संघर्ष किया, लेकिन कभी समझौता नहीं किया। चित्रकला उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य बनी रही। कवि ओमप्रकाश मिश्र ने कहा कि वे संघर्षरत जीवन के जीवंत चित्रकार थे। कवि सुनील चौधरी ने एक कुशल रंगकर्मी और नाट्य-निर्देशक के रूप में राकेश की भूमिका से जुड़े संस्मरण सुनाये। चित्रकार विजय मेहता ने कहा कि वे सामाजिक कुरीतियों और विकृतियों से संघर्ष करते हुए कलाकार थे।
कार्यक्रम में संपादक और शायर रामयश अविकल, ज्ञानपीठ पब्लिक स्कूल के संचालक नीलेश कुमार गोलू, युवानीति के रंगकर्मी धनंजय ने भी अपने विचार रखे। इस अवसर पर माले नेता राजू यादव, पूर्व विधायक मनोज मंजिल, माले कार्यालय सचिव दिलराज प्रीतम, नगर सचिव सुधीर कुमार, जितेंद्र विद्रोही, युवानीति के अमित मेहता, पत्रकार शमशाद प्रेम और प्रशांत कुमार बंटी, कवि रविशंकर सिंह, विक्रांत, मधु कुमारी और नीता कुमारी भी मौजूद थे।
कार्यक्रम के अंत में हाल ही में दिवंगत हुए भोजपुरी के वरिष्ठ कथाकार तैयब हुसैन पीड़ित को एक मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दी गई।