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इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला स्तब्धकारी

दिनांक 17 मार्च को इलाहाबाद हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश राम मनोहर नारायण मिश्र के द्वारा नाबालिग बच्ची के खिलाफ यौन शोषण के मामले में अपने फैसले में कहा गया है कि बच्ची के निजी अंग को पकड़ना बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता तथा दुष्कर्म के प्रयास का आरोप लगाने के लिए अभियोजन पक्ष को साबित करना होगा कि मामला केवल ‘तैयारी’ से आगे बढ़ चुका था।
इसको लेकर इलाहाबाद के नागरिक समाज, उत्तर प्रदेश के विभिन्न महिला संगठनों और स्त्रियों के अधिकार को लेकर लड़ने वाले सामाजिक- राजनैतिक कार्यकर्ताओं और अधिवक्ताओं में गहरा आक्रोश है।
यह दुख की बात है कि उपभोक्तावादी जीवन शैली के द्वारा विभिन्न माध्यमों से महिलाओं के बारे में अंतरदृष्टि पूरी तरह भोगवादी बनाई जा चुकी है। वहां पर इस तरह के फैसले से महिला सम्मान को लगातार ठेस पहुंचती है।
नागरिक समाज, इलाहाबाद ने इस फैसले को घोर आपत्तिजनक बताते हुए इसे अन्यायपूर्ण माना है और कहा कि यह फैसला पितृसत्तात्मक व्यवस्था को आगे बढ़ने वाला है।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर बेंच का एक फैसला पलटते हुए कहा था कि किसी बच्चे के अंग को छूना या यौन इरादे से शारीरिक संपर्क से जुड़ा कोई भी कृत्य पाक्सो एक्ट की धारा 7 के तहत यौन मामला माना जाएगा। इसके बावजूद आईपीसी की धारा 376 (दुष्कर्म) को इस फैसले देने के क्रम में हटा दिया गया है, जो पूरी तरह अस्वीकार्य है।
स्त्रियों के अधिकारों के लिए सजग कार्यकर्ताओं- अधिवक्ताओं ने कहा कि इस फैसले में कहा गया है “बच्ची के स्तन को दबोचना और नाड़ा तोड़ना दुष्कर्म की कोशिश नहीं है।” जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्र ने इसे व्याख्यायित करते हुए इसे “अपराध की तैयारी” कहा है, न कि “वास्तविक प्रयास”। उन्होंने कहा है कि “हमें दोनों के बीच का अंतर समझना चाहिए।”
वास्तव में जस्टिस मिश्र ने शब्दों के अकादमिक जाल में उलझाकर बच्ची पर यौन हमले करने वाले आरोपियों को बचाने का प्रयास किया है। साथ ही बलात्कार कानून की यह व्याख्या महिलाओं की गरिमा पर हमला करने वाला है।
2021 की इस घटना में उत्तर प्रदेश के कासगंज क्षेत्र में 11 साल की बच्ची पर आकाश और पवन नाम के व्यक्तियों ने हमला किया, उन्होंने उसका स्तन दबोचा, उसकी सलवार का नाड़ा तोड़ दिया और धकेल कर पुलिया के नीचे ले जा रहे थे, तभी राहगीरों के हस्तक्षेप से लड़की उनके चंगुल से छूट गई। बच्ची की मां ने आरोपियों के खिलाफ दुष्कर्म का मामला दर्ज कराया। इसके खिलाफ आरोपी इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचे, जहां जस्टिस मिश्र ने अपने फैसले में कहा कि “बच्ची का स्तन दबाना और नाड़ा तोड़ना दुष्कर्म की कोशिश नहीं, अपराध का प्रयास या तैयारी है।”
जबकि सुप्रीम कोर्ट स्पष्ट तौर पर कहता है कि “किसी बच्चे के यौन अंगों को छूना या यौन इरादों से शारीरिक संपर्क से जुड़ा कोई भी कृत्य पॉक्सो एक्ट की धारा 7 के तहत यौन हमला माना जाएगा।”
इलाहाबाद हाई कोर्ट से आया यह फैसला न्याय के सिद्धांत को ही पलटने और उल्टी दिशा में मोड़ने वाला है, जब पुराने कानून में केवल “पेनेट्रेशन” को ही यौन हमला माना जाता था, और औरतें, बच्चियां लगातार बगैर पेनेट्रेशन वाले यौन हमले का शिकार होती रहती थीं। महिला आंदोलन के लंबे प्रयास के बाद महिलाओं, बच्चों पर किसी भी तरह के यौन हमलों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराना और दोष साबित किया जाना संभव हो सका है, लेकिन इस आदेश ने एक झटके में सबकुछ पलट दिया .

प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (एपवा) ने कहा कि 11 वर्षीया एक लड़की के मुकदमे के संदर्भ इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला स्तब्धकारी है। एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार की कोशिश करने वाले दो अपराधियों के पक्ष में जो तर्क कोर्ट के न्यायाधीश ने दिया है, वह बहुत ही निंदनीय है।
ऐपवा महासचिव मीना तिवारी ने कहा कि यह फैसला न केवल बलात्कारियों का बचाव करता है बल्कि बलात्कार और पाक्सो कानून की मान्यताओं के भी खिलाफ है। यह कहना कि लड़की के पायजामे के नाड़े को खोलना, उसके अंगों को पकड़ना बलात्कार की कोशिश नहीं माना जाएगा। यह फैसला पाक्सो कानून को भी महत्वहीन बना देता है। इस तरह के फैसले से बलात्कारियों, यौन अपराधियों का मनोबल बढ़ेगा। बलात्कार की कोशिश या मंशा को सिद्ध करने की जवाबदेही भी अपराधियों के बदले पीड़ित पक्ष पर डालना भी बलात्कार कानून के प्रावधानों के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने पूर्व के फैसलों में माना है कि पाक्सो कानून के तहत किसी बच्चे के अंगों को छूना भी यौन हमला है। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को एक उदाहरण के रूप में लिया जाता है लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की भी अनदेखी की है।
कुसुम वर्मा (सचिव, एपवा उत्तर प्रदेश) ने कहा कि दिल्ली में निर्भया मामले पर चले लंबे आंदोलन के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों को भी पूरी तरह लागू नहीं किया गया है, जिसमें पॉक्सो एक्ट में भी बदलाव किए गए थे।
अभी जो कानून है उसमें नाबालिग से भी पेनेट्रेशन को ही बलात्कार रखा गया है,इस लिहाज से जज ऐसे ही भाषा बोलेंगे।
इसलिए हमें पुरजोर ढंग से जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की बात करनी चाहिए.

नागरिक समाज, इलाहाबाद ने उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से मांग की है कि

1.उपरोक्त न्यायाधीश महोदय को न्यायिक कार्य से अलग किया जाए ।
2.उपरोक्त फैसले को नई बेंच में भेजा जाए, ताकि उचित सुनवाई तथा जांच से निष्पक्ष फैसला आ सके।

फीचर्ड फोटो गूगल से साभार

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