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प्रयागराज से संभल तक: निशाने पर मुस्लिम नेतृत्व 

जयप्रकाश नारायण

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार के गठन के बाद से जितने नीतिगत फैसले लिए गए हैं, उनका तटस्थ रूप से विश्लेषण किया जाए तो एक तत्व उसमें कामन दिखाई देता‌  है, वह है कि येन-केन प्रकारेण सरकार की शक्ति का प्रयोग करते हुए उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समाज और उसके नेतृत्व को आर्थिक और राजनीतिक रूप से कैसे कमजोर किया जाए!

पिछले 7 वर्ष से उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में चल रही सरकार की यही बुनियादी दिशा है। योगी आदित्यनाथ भाषणों और विचारों में मुस्लिम विरोधी घृणा से भरे हुए  दिखाई देते हैं। उनकी कार्यशैली, दैहिक भाषा सभी कुछ इसी दिशा को आगे बढ़ाते हुए लगते हैं।

एक चैनल से इंटरव्यू देते हुए योगी आदित्यनाथ ने कहा था, कि भारत  में अकबर रोड या मुजफ्फरनगर की क्या जरूरत है। वह यह कहने में तनिक भी नहीं कर हिचकते की भारत हिदू राष्ट्र है।

इसे इसी रूप में देखना चाहिए और राज्य को इसी दृष्टि से सभी कार्य संपादित करना चाहिए। चाहे शब्दशः वह यह बात न भी कहते हों, तो भी उनके सभी कार्य व्यवहार इसी बात की पुष्टि करते हैं।

दूसरी बातें ध्यान देने की है कि भाजपा ने भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा के दो चुनावों में एक भी मुस्लिम प्रत्याशी  नहीं उतारा। जबकि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी 15% के आसपास अवश्य होगी।

इस निर्णय को अखबारों, टीवी चैनलों और भाजपा के प्रचार माध्यमों में प्रमुखता से प्रचारित और प्रसारित किया गया। जिसका संदेश था कि उन्हें मुस्लिम समाज का वोट नहीं चाहिए। साथ ही वे स्पष्ट संदेश देना चाहते थे कि भाजपा हिंदुओं की पार्टी है।

इसका अर्थ यह था कि मुस्लिम विरोधी माहौल को तेज करो और खुद को हिंदुओं का स्वघोषित प्रतिनिधि बताते हुए हिंदू गोलबंदी के द्वारा विधानसभा का चुनाव जीत लो। इस मामले में  भाजपा ईमानदार है, कि वह अपने सांप्रदायिक और सामाजिक सौहार्द विरोधी इरादे और लक्ष्य को छुपाती नहीं है। (यहाँ उदारवादी सामाजिक न्याय और पहचानवादी राजनीतिक दलों की अवसरवादी चरित्र को आप स्पष्ट देख सकते हैं)।

योगी आदित्यनाथ की कुछ सुनिश्चित शब्दावलियां है। जैसे जिहादियों को बख्सा नहीं जाएगा । हिंदुस्तान में रहकर और हिंदुस्तान का अन्न खाकर पाकिस्तान प्रेम बर्दाश्त नहीं किया जा  साकता। उनके द्वारा लव जिहाद, गौ तस्करी, पशु मांस के कारोबार और गौ रक्षा जैसे सवालों को हल करने की रणनीति पूरी तरह से मुस्लिम विरोधी राजनीति पर ही केंद्रित होती है। इस नीति के शिकार कौन लोग हुए हैं?आंकड़े अपने आप सब कुछ बता देते हैं।

अखबारों में रोज ही गौ तस्कर के नाम पर पुलिस की बर्बरता और क्रूरता की खबरें आपको मिल जाएंगी। गो रक्षा कानून को हथियार बनाकर योगी आदित्यनाथ सरकार ने मुस्लिम कारोबारियों  की आर्थिक रूप से कमर तोड़ने की हर संभव कोशिश की। हालांकि इसके परिणाम बहुत ही भयानक आए हैं।

अब मांस व्यापार  बड़े पूंजी के खिलाड़ियों के हाथ में पहुंच गया है और उन्होंने छोटे मुसलमान विक्रेताओं को  अपना सहयोगी बना लिया है।

सरकार की नीतियों से मांस के व्यापार में अपराधी-पुलिस, राजनीतिक व बड़े पूंजी वालों का नापाक गठबंधन खड़ा हो गया है। जैसी कि खबरें आ रही है उसके अनुसार मांस का व्यापार उत्तर प्रदेश में भी उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। खैर!

योगी आदित्यनाथ ने अपनी छवि अपराध विरोधी गढ़ने की कोशिश की है। वह खुलेआम कहते हैं कि अपराधी या तो प्रदेश छोड़ दे या अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहे। ‘ठोक दो’ जैसी नीतियां कानून के राज के प्रति उनके हिकारत को दिखाती है।

उत्तर प्रदेश के अखबारों में प्रशंसा के भाव के साथ छपता है कि पुलिस का ‘लंगड़ा करो’ अभियान  जारी है। योगी आदित्यनाथ जब सांसद थे, तो  आज़मगढ़ से लोकसभा का उपचुनाव लड़ रहे पूर्व सांसद और विधायक रमाकांत यादव की चुनावी सभा (जो सिविल लाइन इलाके में रिखदेव यादव के कैंपस में आयोजित थी) को संबोधित करते हुए कहा था, कि “अब योगी का माला और रमाकांत का भाला आज़मगढ़ की दशा और दिशा को बदल देगा”। ( आलेख का लेखक उस सभा में मौजूद था)।

इस प्रसंग की चर्चा इसलिए करना जरूरी था कि अपराध उन्मूलन के बारे में योगी आदित्यनाथ सरकार की वास्तविक प्रतिबद्धता पाखंड के अलावा कुछ नहीं है!

योगी आदित्यनाथ हिंदू धर्म के त्योहार, परंपराओं को भी मुस्लिम विरोधी बनाने की हर संभव कोशिश करते हैं। आपको याद होगा कि कांवड़ यात्रा के समय किस तरह से दुकानदारों, फल विक्रेताओं को अपने और अपने कर्मचारियों के नाम मोटे अक्षरों में लिखने का निर्देश दिया गया था। उसके पीछे तर्क था कि त्योहारों में हिंदुओं की पवित्रता और आस्था की रक्षा की जा सके।

आज महाकुंभ की पवित्रता को पीछे करते हुए सबसे बड़े पर्व को मुस्लिम विरोधी अभियान में बदलने के हर संभव प्रयास में योगी आदित्यनाथ लगे हुए हैं।

भाजपा ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी उत्तर प्रदेश के चुनाव में नहीं उतारा। फिर भी अच्छी संख्या में विपक्षी पार्टियों के अलावा स्वतंत्र उम्मीदवार के  मुस्लिम सांसद और विधायक चुने जाते रहे हैं।

यह बात योगी आदित्यनाथ सहित भाजपा को जरूर  खटकती  होगी। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे जिले हैं, जहां अपनी संख्या और सामाजिक समीकरणों, मुस्लिम नेताओं की लोकप्रियता तथा सामाजिक भूमिका के चलते उन्हें लोकसभा और विधानसभा में जनता द्वारा भेजा जाता रहा है।

कुछ ऐसे‌ इलाके हैं, जहां पिछले 30-35 वर्षों से संघ और भाजपा के ‌हर संभव प्रयास करने के बाद भी लोकसभा और विधानसभा में मुस्लिम नेताओं को जाने से नहीं रोका जा सका। पूर्वांचल,  काशी, प्रयागराज, अवध, रुहेलखंड क्षेत्र में मुस्लिम राजनीतिक कार्यकर्ताओं‌ व सामाजिक सम्मान प्राप्त हस्तियों का होना शायद भाजपा और योगी आदित्यनाथ को नागवार लगता है ।

इसलिए जहां से मुस्लिम  नेताओं का चुनाव जीतना सुनिश्चित रहा है। वहां इन्होंने लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं को ताक पर रखकर या तो दंगाई माहौल बनाया या वहां के नेताओं को विभिन्न तरह से मुकदमों में फंसा कर जेल में सड़ाने की योजना ली।

2013 के मुजफ्फरपुर में हुए दंगे का अनुभव उनके पास पहले से ही‌ था। जिससे दिल्ली और उत्तर प्रदेश की गद्दी तक पहुंचना आसान हुआ था।

प्रयागराज से लेकर गाजीपुर, रामपुर, कैराना, कानपुर होते हुए संभल तक जो घटनाओं की श्रृंखला  दिखाई देती है। उसे देखकर ऐसा लगता है कि एक ठोस योजना लेकर योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में मुस्लिम नेतृत्व के सफाये का अभियान शुरू किया है।

उत्तर प्रदेश में कई ऐसे इलाके हैं, जहां मुस्लिम परिवार और नेता आजादी के समय से ही बहुत प्रतिष्ठित रहे हैं। जिनके पूर्वजों का आजादी के संघर्ष और उसके बाद लोकतांत्रिक भारत के विकास में  महत्वपूर्ण योगदान रहा है। (एक दो परिवार तो ऐसे हैं कि आजादी के संघर्ष में उनके योगदान के बराबर पूरी आरएसएस और भाजपा भी खड़ी नहीं हो सकती)

इस संदर्भ में यूसुफपुर मोहम्मदाबाद गाज़ीपुर के डॉक्टर अंसारी परिवार को देखा जा सकता है। ऐसे मुस्लिम परिवारों को ‌हिंदू और मुस्लिम समाज में समान रूप से लोकप्रियता और सम्मान प्राप्त है। इसलिए ऐसे घरों, नेतृत्व और ऐसी जगह को योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सचेतन रूप से चुना।

मुख्तार अंसारी निश्चय ही वाराणसी में बृजेश सिंह, त्रिभुवन सिंह, सुशील सिंह,  कृष्णानंद राय गिरोह के खिलाफ संघर्ष करते हुए एक माफिया के रूप में स्थापित हुए। ऐसी जानकारी मिलती है चंदासी कोयला मंडी और बालू के ठेके के कारोबार सहित विकास योजनाओं में मिलने वाले ठेके, अवैध शराब के कारोबार आदि को लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपराधी-माफिया गिरोह के बीच में टकराव होता रहता है ।

यह वर्चस्व की लड़ाई थी। जिसमें दोनों गुट एक दूसरे से टकराते रहे । अपराध की दुनिया पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष और जाति निरपेक्ष होती  है। इसलिए मुख्तार अंसारी के पास भूमिहार, ठाकुर, यादव सभी तरह के कार्यकर्ता या बाहुबली थे। ठीक यही बात उनके प्रतिद्वंदियों पर भी लागू होती है।

अपनी उच्च सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण मुख्तार अंसारी इन नये उभरते अपराधी गिरोहों पर भारी पड़े।  माफियाओं और अपराधी  गिरोहों की राजनीतिक प्रतिबद्धता बदलती रहती है।

एक समय ऐसा था कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के अधिकांशतः क्षत्रिय,  यादव, मुस्लिम, ब्राह्मण अपराधी और दबंग बसपा के मंच से विधानसभा और लोकसभा में पहुंच गए थे ।जिसमें में से आज कई भाजपा के खेमे में है।

सत्ता समीकरणों को पहचान कर अपराधियों की राजनीतिक प्रतिबद्धता बदलती रहती है। पूर्वांचल में सबसे पहले गोरखपुर से ही बाहुबली और माफियाओं की चर्चा उत्तर प्रदेश की राजनीति में आई थी और पूरा उत्तर प्रदेश जानता है कि वहां दो‌ खेमें कौन थे। जिनके इर्द-गिर्द  जाति और संबंधों के आधार पर गोरखपुर और आसपास के इलाके के संभ्रांत और अपराध जगत के लोग गोल बंद होते थे ।

वहां चले गैंगवार में कई महत्वपूर्ण उभरते हुए नेताओं को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। आज यह परिघटना प्रदेश ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर विस्तारित हो चुकी है और धर्म और जाति के छतरी के नीचे इसने सामाजिक, राजनीतिक वैधता हासिल कर ली है।

मुख्तार अंसारी इसी परिघटना के एक बड़े आईकान थे। भाजपा के लिए मुस्लिम अपराधी माफिया केंद्रित राजनीति हर समय फायदेमंद होती है। इसलिए मुख्तार अंसारी को योजनाबद्ध  ढंग से टारगेट किया गया।प्रशासनिक तंत्र का प्रयोग कर घेरा गया और अंत में उन्हें जेल में मर जाने की स्थिति तक पहुंचा दिया गया।

मुख्तार अंसारी के पहले  अंसारी परिवार का गाजीपुर से बाहर राजनीतिक प्रभाव उस तरह से नहीं  था । जैसा मुख्तार अंसारी ने मऊ, बलिया और आज़मगढ़ में राजनीतिक, आर्थिक ताकत को विस्तारित कर लिया । जिससे दो विधायक और एक सांसद की सीट अंसारी परिवार  जीतता रहा है।

अतीक अहमद परिघटना

’80 के दशक के मध्य से भारत में ठेकेदार-अपराधी-राजनीतिज्ञ गठजोड़ ठोस आकार लेने लगा था । इस गठजोड़ के बाई प्रोडक्ट के रूप में अतीक अहमद जैसे लोग  राजनीति में आए। इलाहाबाद  में माफिया से राजनीतिज्ञ बने संभ्रांत लोगों का गढ़ है। आज भी कई माफिया अपराधी सत्ताधारी दलों से लेकर विपक्षी पार्टियों के अंदर सक्रिय हैं। अतीक अहमद जो सांसद  विधायक तथा मंत्री पद सुशोभित कर रहे थे। प्रयागराज क्षेत्र में अकेली शख्सियत  नहीं थे।  ऐसे दर्जनभर लोग हैं जो प्रतापगढ़,  सुल्तानपुर, इलाहाबाद, कौशांबी, मिर्जापुर, भदोही तक फैले हुए हैं।

इनमें अतीक अहमद का परिवार एक बड़ी आर्थिक और राजनीतिक ताकत के रूप में उभरा  और विधानसभा लोकसभा तक का सफर का पूरा किया। उनके भाई असरफ भी विधायक होते रहे हैं।

इलाहाबाद में माफियाओं के बीच टकराव  पुरानी परिघटना है । इसमें जवाहर यादव से लेकर पाल और नंदी तक की हत्या या हमले हो चुके है। इस दौड़ में अपनी आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के बल पर अतीक अहमद बहुत चर्चित हुये ।

मीडिया जैसे-जैसे मुस्लिम विरोधी और हिंदुत्व के प्रचारक के रूप में बदलता गया । वैसे-वैसे ही मुस्लिम नेताओं के दानवीकरण की प्रक्रिया भी बहुत तेज हो गई।

अतीक अहमद पहले निर्दलीय विधायक हुए। बाद में बसपा और अन्य पार्टियों से जुड़ गए। इलाहाबाद से अतीक अहमद के उपस्थिति कम से कम विधानसभा में एक विधायक भेजने की गारंटी थी । जो योगी आदित्यनाथ और भाजपा के लिए बड़ी चुनौती थी।

अतीक के खिलाफ कार्रवाई को जिस तरह से इवेंट  बनाया गया। उनके गुजरात से इलाहाबाद तक की यात्रा को पल-पल प्रचारित किया गया। हफ्तों अखबारों और मीडिया में पल-पल की खबरें दिखाई गई और अंत में सरेआम पुलिस की कस्टडी में उनकी हत्या की गई। यह अपने आप में एक संदेश है।

यह घटना राज्य  मशीनरी और पुलिस के सांप्रदायिक और अपराधीकरण की एक मिसाल है। यह अकेली घटना नहीं है, जहां  पुलिस और ज्यूडिशल कस्टडी में  हत्याएं न हुई हो। योगी राज  कानून  का राज्य कायम करने में असफल होने में  एक मिसाल बनता जा रहा है।  शायद सरकार कुछ ऐसा ही राज्य बनाना चाहती है। जहां जेल, पुलिस, न्यायालय तक में भी लोगों का जीवन सुरक्षित न हो। शायद यही हिंदुत्व का अपराध मुक्त मॉडल है। जिसका प्रचार योगी आदित्यनाथ करते रहते हैं।

आजम खां अपने साहस, समझ और वेबाक विचारों के लिए 90 के दशक से ही हिंदुत्व वादियों को खटकते रहे हैं। पिछले 35 वर्षों से उनके खिलाफ लगातार भारत और  हिंदुत्व विरोधी होने का अभियान संघ परिवार द्वारा चलाया जा रहा है।

आप किसी भी आरएसएस कार्यकर्ता के मुंह से यह बात सुन सकते हैं, कि आजम खान ने भारत मां को डायन कहा था। बातों को परिपेक्ष और संदर्भ से काटकर दुष्प्रचार करने में हिंदूत्ववादियों  को महारत हासिल है।

आजम खान एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार से निकल कर अलीगढ़ विश्व विद्यालय की छात्र राजनीति में आए। रामपुर में राजनीति की शुरुआत से ही उन्हें कांग्रेस नेता रामपुर के नवाब के खिलाफ लड़कर स्थापित होना था। आजम खां ने बेख़ौफ़ आवाज और साहसिक पहल कदमी से नवाब रामपुर को पराजित कर अपनी राजनीतिक शख्सियत बहुत ऊंची कर ली। एक समय में रामपुर में  नवाब परिवार को सामाजिक राजनीतिक चुनौती देना  असंभव सा था । लेकिन एक सामान्य छात्र नेता ने जिस बहादुरी और कुशलता के साथ नवाब परिवार को राजनीतिक शिकस्त दी, वह‌‌ एक मिसाल है।

वे राजनीतिक सवालों पर स्पष्ट रूप से अपनी बात कहने में दक्ष हैं । आप उनसे असहमत हो सकते हैं ।उनके विरोधी भी हो सकते हैं। लेकिन आप‌ उन्हें नकार नहीं सकते। बाबरी मस्जिद के विरोध में  विहिप और संघ द्वारा चलाए गए अभियान के मुखर विरोधी थे। कई बार हम लोगों ने उस समय एक साथ मंच साझा किया था।

आजम खां का रहना उत्तर प्रदेश में आरएसएस और भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती रही है ।इसलिए उन्होंने अनेक षडयंत्रों के माध्यम से उनके ऊपर कई दर्जन मुकदमे लाद कर जेल में डाल दिया और उनके परिवार को तबाह करने की हर संभव कोशिश की।

आज खुद आजम खान की बातों में एक टूटे हुए राजनेता की आवाज सुनाई देती है । आजम खां जब तक राजनीति के अग्रिम कतार में थे। वे सपा में नंबर दो की हैसियत रखते थे। रामपुर, बिजनौर, मुरादाबाद  आदि इलाके में भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती  थे। इसलिए  उनको निपाटने के लिए योगी आदित्यनाथ और आरएसएस ने  लंबा जाल बुना ।

पुलिस और सरकार का नग्न प्रयोग कर वैचारिक और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को कैसे तबाह और बदनाम किया जा सकता है, आजम खान का केस उसका एक नमूना है।

रामपुर में जिस तरह से विधानसभा और लोकसभा चुनाव में प्रशासनिक गुंडागर्दी और बल प्रयोग किया गया। वह भविष्य का एक खतरनाक संकेत है। इसे लोकतंत्र के पक्षधर व्यक्ति को अवश्य समझना चाहिए।

आज के दौर में हिंदुत्व फासीवाद का जो भी  व्यक्ति या संस्था विरोधी है, वे चाहे  किसी धर्म और जाति के हों, उन्हें  भाजपा  की  षड्यंत्रकारी नीतियों को जरूर समझना चाहिए!

हमें ख्याल रखना चाहिए कि जेएनयू, भीमा कोरेगांव, दिल्ली दंगों में वर्षो से दर्जनों लोग जेल में है। जिन्हें जमानत तक नहीं मिल पा रही है। उनमें अधिकांश गैर मुस्लिम है।

यहां  एक बात तो बहुत साफ है कि रामपुर में आजम खां के खिलाफ राज्य सरकार द्वारा लागू योजना वस्तुत: यूपी विधानसभा और  लोकसभा से मुस्लिम नेतृत्व के सफाए अभियान का अभिन्न अंग है।

कुछ वर्ष पहले कैराना को लेकर एक अभियान चलाया गया था कि यह मिनी पाकिस्तान बन गया है। जहां से बड़े पैमाने पर हिंदुओं का पलायन हो रहा है। यह पलायन मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार के कारण हो रहा है।

बाद में इसकी सच्चाई का पता चलने के बाद यह गुब्बारा फूट  गया। जबकि सच्चाई यह थी कि पलायन का हौआ खड़ा कर वहां के मुस्लिम समाज को बदनाम कर उनकी राजनीतिक, सामाजिक हैसियत को कमजोर करना था।

कैराना विधानसभा और लोकसभा हिंदू बहुल है। जहां हिंदू-मुस्लिम आपस में सौहार्द्र बनाये हुए है। नाहिद हसन  के पिता भी विधायक रहे थे।  बाद में नाहिद हसन खुद उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गये। जो आज जेल में हैं ।

लेकिन कैराना कि जनता ने असलियत  समझ लिया तो भाजपा के षड्यंत्रकारी अभियान को चकनाचूर करते हुए नाहिद हसन की छोटी बहन उच्च शिक्षित इकरा हसन को सांसद चुना है।

अब संभल। जहां तक मुझे जानकारी है। 1984 के विधानसभा चुनाव से ही शफीकुल रहमान वर्क वहां से विधायक होते रहे हैं। वह एक लोकप्रिय नेता  थे। बाद में वे लोकसभा के भी सदस्य हुए। वर्क साहब की शख्सियत बड़ी थी और मुरादाबाद,  संभल संभाग में उन्हें बहुत सम्मान प्राप्त था।

इस बार उनके पौत्र जियाउर रहमान वर्क संभल से लोकसभा के सदस्य हैं। इस  स्थायित्व को योगी सरकार कैसे बर्दाश्त कर सकती थी? इसलिए नौकरशाही के उस समूह को जिसने रामपुर में आजम खान को तबाह करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी ।

उसे मुरादाबाद मंडल में लाया गया । तथ्य तो इसी बात की गवाही देते हैं। एक विचित्र घटनाक्रम के तहत संभल की जामा मस्जिद को निशाना बनाया गया और यह स्थिति पैदा की गई कि संभल में दंगा हो जाए ।

लेकिन वहां हिंदू-मुस्लिम ने आपसी सौहार्द बनाए रखा। इसलिए प्रशासन ने खुद  कमान संभाल ली और मुस्लिम समाज को उत्तेजित कर टकराव की स्थिति पैदा कर दी गई। जिसमें  चार लोग मारे गए हैं और प्रशासन  प्रतिदिन नई कहानी गढ़ने में लगा है।

सांसद जियाउर रहमान वर्क के ऊपर नए-नए   मुकदमें लादे जा रहे हैं। उनके घर की बिजली चोरी के नाम पर जांच की गई। एफ आई आर दर्ज हो चुका है।

अब अवैध निर्माण बता कर घर का कुछ हिस्सा तोड़ दिया गया है। खुद उनके ऊपर दंगा के लिए उकसाने की एफ आई आर  दर्ज हो गई है। जबकि वह उस समय एक मीटिंग के संदर्भ में बैंगलोर में थे।

अब मुख्यमंत्री संभल के मुसलमानों के खिलाफ प्रचार अभियान में उतर आए हैं। इतिहास और मिथक की गलत व्याख्या कर तनाव पैदा किया जा रहा है।

यहां आप रामपुर में  आजम खां के खिलाफ हुई घटनाओं के साथ समानता देख सकते हैं। अब तो योगी आदित्यनाथ ने कह दिया है कि विवादित स्थल को मस्जिद कहना पूर्णतया गलत है। आगे-आगे देखिए होता है क्या?
कानपुर में इरफान सोलंकी और भदोही के एक विधायक की कहानी तो अभी चल ही रही है। यानी स्थिति स्पष्ट है । एक-एक करके सभी मुस्लिम केंद्रों और नेतृत्व पर हमले होंगे।

उन्हें प्रचार माध्यमों और सरकार  के संयुक्त अभियान द्वारा बदनाम किया जायेगा। संघ की योजना के तहत मुसलमानों को समाज की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक धारा में  दूसरे दर्जे के शहरी बनकर ही रहना  होगा।

जब से उत्तर प्रदेश में योगी सरकार बनी है तभी से मुसलमानों के बहिष्करण की परियोजना को लागू करने के लिए सरकार कटिबद्ध है। प्रयागराज में महाकुम्भ को सफल बनाने के अभियान में योगी आदित्यनाथ की भाषा और चेतावनी तथा संभल में राज्य सरकार के अत्याचार की घटना से यह बात स्वयंसिद्ध हो जा रही है।

फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार 

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