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उम्मीद की रौशनी दिखाती कविताएँ

दीना नाथ मौर्य

‘सहसा कुछ नहीं होता’ बसंत त्रिपाठी का ज्ञानपीठ से प्रकाशित संग्रह है. ‘स्वप्न से बाहर, सन्नाटे का स्वेटर, हम चल रहे हैं. इन तीन खण्डों में इस संग्रह की कविताएँ संयोजित की गयी हैं.

नयी सदी के दूसरे दशक में समाज और संस्कृति की रूपों में जो बदलाव आ रहे हैं उन स्थितियों पर कवि की पैनी नजर है.

ये कविताएँ एक तरह के संवाद का रास्ता देती हैं जिनके बीच से सांस्कृतिक राग के साथ आत्म का संबंध निर्मित होता चलता है.

इस आत्म की सहज स्वाभाविक छवि इन कविताओं में है लेकिन वह सपाट नहीं है. इन संग्रह की कविताओं को पढ़ जाने के बाद कविता की दुनिया में उम्मीद की रौशनी दिखायी पड़ती है जहाँ केवल नारे नहीं हैं बल्कि उन नारों के पीछे के वह स्वर हैं जिनसे भविष्य के आहट का अनुमान लगाया जा सकता है.

कविता की वह दुनिया जिसमें घटित अमानवीय के खिलाफ कवि के कुछ न कर पाने की पीड़ा है, इस पीड़ा की पहचान हम किसी रचनाकार की अपने समय में रचनात्मक हस्तक्षेप के रूप में कर सकते हैं.

यहाँ अपने समय से कटकर साहित्य रचने की चुप्पी का स्वर नहीं है. स्मृति और आदिमराग की ठेठ अभिव्यक्ति इन कविताओं की आंतरिक ले में गुंथी हुई है.

यादें हैं तो सिर्फ़ नास्टेल्जिया के खुमार के रूप में नहीं.कविताओं में यह संकेत है कि पूँजी और बाजार का व्यापता संकट जहाँ एक ओर समज को दो हिस्सों में बांटता है वहीँ परम्परा और समकालीनता के बीच चलने वाले संवाद को भी बाधित करता है.

सपनों का मर जाना वाकई सबसे ख़तरनाक होता है तो इसलिए कि उसके साथ ही एक पूरी दुनिया डूब जाती है आकार लेने के पहले ही.ये कविताएँ स्वप्न का संसार रचती हैं,सपनों से बाहर होकर भी जिसमें वर्तमान के संकट के बावजूद उजास का तेवर दीखता है- इस तेवर में शामिल है कविकर्म की जिम्मेदारी.

इन कविताओं में दुनिया के दुःख में दुखी कवि का विद्रोह, उसमें तमाम दुखों के निजी हो जाने की पीड़ा है और इन सबके साथ है एक गहरी बेचैनी. अपनी कविता की अधूरी पंक्तियों के सहारे देखे गये सपने को कवि इस तरह व्यक्त करता है कि इनमें कवि का स्वप्न, उसकी जिजीविषा, लाचारी और वर्तमान से निराशा के क्षणों में शराब के नशे की बड़बड़ाहट सब कुछ शामिल है.

‘स्वप्न से बाहर’ में गीत की पंक्तियाँ है –

‘यह उस आदमी की कहानी है/ जो ठूँठ के नीचे खड़ा छाया की आस लगाए है.’ उम्मीद की पूरी दुनिया खुलती है इन कविताओं के उजाले स्वप्न में बशर्ते हम जीवन को प्रवाहमान रूप में देखें उसे क्षणवादी न मान बैंठे.

नयी सदी की महीन मार जिसकी व्याप्ति मानव जीवन से लेकर जड़-चेतन के दूसरे अन्य आयामों तक व्याप्त है- एक कवि की अपनी आवाज है जो सपने के बाहर रहकर नयी सभ्यता की इस मार को पहचानती है.

जड़ों से उखड़ने की टीस के साथ बसंत त्रिपाठी का कविमन स्मृतियों में सहेजकर रखी चीजों से संवाद करते हैं और अपने वर्तमान की नब्ज को पकड़ने की कोशिश करते हैं.

‘स्मृति’ बसंत त्रिपाठी की इन कविताओं का केंद्रीय स्वर जान पड़ती है. जिसके सहारे वे वर्तमान से संवाद करते हैं. उनकी स्मृतियों में बचपन का शहर है, मुहल्ले की याद है, बचपन का नाम है और घर तथा खेत हैं – इनके जरिए वे आज के बाजार युग और उसमें छीजती मानवीय संवेदना के ताप को महसूस करते हैं और मुखामुखम करते हैं अपाने वर्तमान से इन यादों के सहारे.

स्मृति लोप के इस समय में इन यादों को कवि अपने अनुभव संसार में रचनात्मक पूँजी के रूप में सुरक्षित रख सका है यह मानीखेज है.

राजनीति और वैचारिक प्रतिबद्धता बसंत त्रिपाठी की कविताओं का अनिवार्य हिस्सा है. किसी नारेबाजी और स्लोगन के बजाय कवि की वैचारिकी की तलाश आप कविता के अन्तः सूत्रों के जरिए कर सकते हैं-

“मेरे घर की नींव से /बादलों की सीमा शुरू होती है/आसमान भी वहीँ कहीं पसरा पड़ा है/वहाँ सभ्यता की उड़ान और उसकी गति है./मुझे डर है कि चूहे /घर की चींजें और नींव कुतरते हुए/आसमान को कतरनों में न बदल दें /सभ्यता तार-तार न हो जाए /जाने अजाने.”

सपनों में संवाद की अद्भुत दुनिया रचती ये कविताएँ एक सार्थक दिशा का संकेत करती है. नगरीकरण और तथाकथित आधुनिकता के बीच छोटा होता जा रहा मनुष्य लगातार अपनी बुनियादी चीजों के साथ जुड़ाव में कमी का अहसास करता है.

भविष्य के प्रति आशावान होना ही दरअसल रचनात्मक रूप से भविष्य दृष्टा होना है.आने वाले भविष्य के भयावह रूप को देखना और उसे महसूसना लेकिन फिर भी सपने देखने की प्रक्रिया में दाखिल होते रहना कविता की जिंदगी और जिंदगी की कविता दोनों के लिए एक जरूरी क्रिया है.

कवि का जागरण है तो अपना भी है. कविता में संस्कृति के बदलाव भाव और भाषा के बदलने की आहटों की पहचान भी इन कविताओं में है.

“सूखी पत्त्तियों का जीवन ऐसा/कि पेड़ उनकी याद में मर्सिया नहीं नहीं पढ़ते /जड़ों तक उनकी स्मृति नहीं होती.”

लेकिन कवि की स्मृति उसकी कविता के जरिए मूर्त होती है और इस तरह की बेकार समझी जाने वाली मूल्यवान चीजों के लिए वह अपनी रचना में जगह तलाशता है.-

“सूखी पत्तियों को याद करता /एक कवि देर तक बिसूरता है/फिर उसे तीली दिखा/अपनी कविता में डायरी खोले /कुर्सी में धँस जाता है.”शहरी समाज के अजनबीपन (एलिएशन) की संस्कृति से कवि परिचित है और इसके बरक्स सामूहिक जीवन के आदिम राग की तलाश अपनी पूरी आधुनिकता के साथ करता है.

कवि के लिए आधुनिकता का आशय बिल्डिंग सदके,क्लब तथा शहरी माल कल्चर ही नहीं है वह मनुष्य होने की न्यूनतम शर्त की तलाश अपने आस-पास के जीवन में करता है.

इंसान का बतौर इंसान बचे रहना ही इस पूंजीवादी तथकथित आधुनिक जीवन में प्रतिरोध का एक आख्यान रचना है.यह केवल आत्म की तुष्टि नहीं है यह सभ्यता के विकासक्रम में चीजों को खासतौर से वैसी चीजों को संरक्षित करने का उपक्रम भी है जिनमें मनुष्यता को बचाए रखने की जिम्मेदारी प्राथमिक शर्तों में शामिल है—

“शहर में रहते हुए /मैंने सोचा कि रहना /यानी कीड़े की तरह लौ के ईर्द-गिर्द मंडराना”/मुझे लगा कि न चाहने के बावजूद /एक कीड़े में तब्दील होता जा रहा हूँ./मैं तलाशने लगा एक वाजिब घर /जबकि इस वक्त /मुझे अपना पता भी याद नहीं.”

‘थक हारकर बैठ जाना’ एक मुहावरा है जिसमें स्थिर हो जाने का भाव निहित है कविता में नदी का स्वप्न है. जहाँ जड़ता नहीं है, स्थिरता भी नहीं है.शोर में डूबती हुई एक शाम के साथ जहाँ थक हार कर नदी अपने स्वप्न स्वप्न में चली जाती है.

थक हार कर सपने की यात्रा करना एक गहरा संकेत है उस दौर में जहाँ मौसम की उदासी को स्थायी भाव साबित करने की कोशिश बदस्तूर जारी है. नदी का सपना जो अपने प्रवाह में अपने आस-पास पूरी दुनिया बुनती है और जीवन जहाँ आकार पाता है उस जीवन के आदिमराग की सुरक्षा कविता की पहली जिम्मेवारी है और शायद आखिरी भी.

‘नदी के स्वप्न’ को दर्ज करते हुए कवि को इसकी परख है कि-

“ नदी के स्वप्न में /शाश्वत और तात्कालिकता के द्वन्द की/खौफ़नाक चीत्कारें हैं ./और है एक कवि /स्वप्न की फैंटेसी को लिपिबद्ध करता हुआ /स्वप्न से बिलकुल बाहर.”

पलायन और अलगाव एक दूसरे के साथ जुड़े हुए शब्द ही नहीं क्रियाएं भी हैं. अपनी जड़ों से बढ़ती हुई दूरी की सटीक पहचान पलायन के कारकों को समझने में मददगार होती है .

बचपन के नाम और बचपन के शहर के अलावा बस में सफ़र जैसी कविताएँ –समय की गति के साथ चीजों के छूट जाने की पीड़ा को व्यक्त करती हैं.

इनमें एक तीस है जो अपनी पहचान को खो देने के डर से उपजती है. पहचान का खो जाना, मतलब अस्तित्व का मिट जाना. कवि पलायन के संदर्भ में कहता है कि –

“बचपन का शहर ऐसे छूट जायेगा /एक जीवन जैसे बीत गया हो /एक उम्र अचानक ख़तम हो गयी हो /बचपन के शहर को छोड़ /हम अधेड़ ही पैदा होंगें किसी और शहर में”

भागते हुए समय में व्यक्ति की संभावित नियति के खतरे से बाखबर ये कविताएँ इस बात की भी पड़ताल करती हैं कि बतौर इंसान उसकी क्या भूमिका होनी चाहिए जबकि रेत के मानिंद बंद मुठ्ठी से चीज़ें फिसल रही हैं.

‘बस में सफ़र’ की पंक्तियाँ हैं-

“कहीं कोई ठहराव नहीं/जहाँ गति है,वहाँ नींद है /और नींद से बचे हुओं की आँखों में डर है /और डर/वीडियो पर चल रही फिल्म के आगे आज समर्पण करता है.”

जीवन की सत्य की खोज में दुनिया की लगभग सभी दार्शनिक प्रणालियाँ विकसित हुई हैं,कविता का दर्शन भी इसकी खोज करता रहा है.कवि की आशा में जिंदगी की एक मुकम्मल तस्वीर आकार पाती है.

वह जीवन की बहुविध स्थितियों से गुजरता है उनके बीच अर्थवान की खोज करता है. उसका यह अर्थ निर्माण और अर्थवान की खोज करना दरअसल अपने सामायिक सन्दर्भों की बतकही से उपजे चिंतन का परिणाम होता है.

मनुष्य की शक्ति में विश्वास को व्यक्त करते हैं हमारे सपने. सपने हैं तो कल है. कविता का भविष्य के प्रति आस्थावान होना मनुष्य होने की बुनियादी शर्तों को  बचाना है.

 

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.)

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