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महिलाओं की लड़ाई घर में भी है, सड़कों पर भी

पूँजीवाद और पितृसत्ता की जड़ हिलाये बिना समाज में महिलाओं की स्थिति नहीं बदलेगी
महिलाओं की लड़ाई घर में भी है, सड़कों पर भी : शहनाज़ परवीन

(मुक्तिबोध पुस्तकालय, सोरांव में ‘भारतीय समाज में महिलाओं की भागीदारी’ विषय पर परिचर्चा और कविता-पाठ कार्यक्रम)

जन संस्कृति मंच (जसम) द्वारा सोरांव (प्रयागराज) में संचालित मुक्तिबोध पुस्तकालय की सामाजिक-विमर्श शृंखला की पहली कड़ी के रूप में शनिवार, 30 मार्च 2024 को ‘भारतीय समाज में महिलाओं की भागीदारी’ विषय पर एक परिचर्चा और कविता-पाठ कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

परिचर्चा की शुरुआत करते हुए प्रतियोगी छात्रा प्रतिष्ठा ने कहा कि आज के समय में महिलाओं को जो अधिकार मिलने चाहिए वो नहीं मिलते हैं। महिलाएं आज भी पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं हैं, गांव में महिलाओं की स्थिति ये है कि शाम को घर से बाहर अकेले नहीं निकल सकती हैं। प्रतिष्ठा ने सवाल उठाते हुए कहा कि आज जो महिला दिवस मनाने के नाम पर दिखावा हो रहा है, अगर इतना सच होता तो अखबारों में बलात्कार, यौन हिंसा की खबरें भरी नहीं रहतीं। महिलाओं की शिक्षा पर बात करते हुए उन्होंने ज्योतिबा फुले के कथन को याद किया “जब लड़का पढ़ता है तो अकेले वही शिक्षित बनता है, लेकिन जब लड़की पढ़ती है तब पूरा परिवार शिक्षित बनता है।” सत्यम ने अपनी बात रखते हुए कहा कि आज तक जो विकास हुआ है उसमें महिलाओं का विकास नहीं हुआ है। उन्हें बस वोट बैंक की तरह प्रयोग किया जा रहा है। महिलाओं को इसे समझना होगा। उन्हें अपनी भागीदारी स्वयं तय करनी होगी।

परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता शहनाज़ परवीन ने कहा कि समाज में महिलाओं की भागीदारी की बात बहुत पुरानी हो चुकी है। यह कोई प्रतियोगिता नहीं है जिसमें महिलाएं भाग ले रही हैं और उन्हें अपना स्थान बनाना है। ज़रूरत इस बात की है कि समाज में महिलाओं के स्थान पर काबिज पुरुष उनका स्थान छोड़ दें, भागीदारी अपने आप दिखने लगेगी। अन्यथा पितृसत्तात्मक समाज या सरकार दाता की हैसियत में और महिलाएं याचक की हैसियत में बने रहेंगे। सरकार का बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान भी ऐसा ही है। उन्होंने उपस्थित लोगों से पूछा कि अगर बेटियाँ इतना बढ़ रही हैं, पढ़ रही हैं तो बेटे और बेटी के जन्म में इतना अंतर क्यों है? बेटे और बेटी के जन्म और मृत्यु में जो भेद है वह हमारे व्यवहार में है, इसे ही हम लिंग भेद कहते है। लिंगानुपात में इतना अंतर क्यों है? क्या बेटियाँ पैदा ही नहीं हो रही हैं? ऐसा नहीं है, उन्हें जन्म से पहले या जन्म के बाद किसी न किसी तरीके से मार दिया जा रहा है। इस स्थिति को उन्होंने अमर्त्य सेन के महिलाओं के जीवन पर केंद्रित अध्ययन के आँकड़ों और बुंदेलखंड का उदाहरण देकर स्पष्ट किया। महिला रोजगार पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि सस्ते श्रम की सबसे सीधी मार महिलाओं पर ही पड़ती है। महिलाओं का रोजगार बाजारवाद ने छीन लिया है। विश्व स्तर पर भी जो सबसे सस्ता काम है, सबसे निकृष्ट कोटि का काम है, ज्यादा घंटे का काम है वह महिलाओं से करवाया जाता है। जब तक कोई काम महिला करती है, उसके काम का कोई मूल्य नहीं होता लेकिन जब उसी काम के लिए भुगतान करने की स्थिति आती है तब उसी काम को पुरुष करने लगते हैं। शेफ का कार्य इस श्रेणी का स्पष्ट उदाहरण है।

उन्होंने रूसी राष्ट्रपति पुतिन के हालिया बयान ‘अब फेमिनिस्ट नहीं, फैमिलिस्ट होने की जरूरत है’ को डीकोड करते हुए बताया कि इसका मतलब यह है कि अब दुनिया भर की सरकारों के पास महिलाओं को देने के लिए रोजगार नहीं है। बाजारवाद की मार, भूख की मार, अशिक्षा की मार, स्वास्थ्य-सुविधाओं की कमी की मार, बेरोजगारी की मार जब पड़ती है तो सबसे पहले महिलाओं पर पड़ती है। इसका कारण यह है कि इसकी जड़ में पूंजी और पितृसत्ता बैठी है। इस सत्ता को हिलाए बिना किसी भी समाज में महिलाओं की भागीदारी नहीं हो सकती है। उन्होंने उपस्थित लोगों के साथ प्रश्नोत्तर शैली में सीधा संवाद करते हुए महिलाओं के सम्पत्ति पर अधिकार, विवाह व्यवस्था पर हिन्दू समाज और इस्लाम की व्यवस्था में विस्तार से तर्कपूर्ण चर्चा की और अन्य प्रतिभागियों के विचार और उदाहरण भी परिचर्चा में शामिल किए। अंत में उन्होंने  कहा कि पितृसत्ता और पूंजीवाद जब तक है, तब तक महिलाएं आगे नहीं बढ़ सकतीं, उनकी भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो सकती है। महिलाओं को घर में भी लड़ना होगा और सड़कों पर भी।

पत्रकार सुशील मानव ने सम्पत्ति में स्त्रियों के अधिकार और विवाह तथा यौन आजादी के विषयों को चर्चा में शामिल करते हुए इससे जुड़ी रूढ़ियों, परम्पराओं और इस समस्या के कानूनी पहलुओं पर बात की। उन्होंने बताया कि जिन स्थानों पर पहले कभी मातृसत्तात्मक व्यवस्था रही है, वहाँ बहुत-सी अच्छी परम्पराएं भी हैं जिन्हें आज समानता के नाम पर कानून के माध्यम से समाप्त करने की साजिश की जा रही है। उदाहरण के लिए मातृसत्तात्मक समाजों में यौन-शुचिता की अवधारणा नहीं थी क्योंकि वहाँ सम्पत्ति भी नहीं थी। वहाँ औरतें अपना अधिकार लेती थीं। वहाँ बच्चों का पालन-पोषण केवल माँ की जिम्मेदारी नहीं थी, माँ अपनी इच्छा से पति को छोड़ सकती थी और बच्चों को भी पति के पास छोड़ सकती थी। अब कानून इन अच्छी चीज़ों को समाप्त कर रहा है, आज का कानून हमारी संस्कृतियों पर भी हमला कर रहा है। हालांकि अब ये चीज़ें केवल निचली जातियों के समाज में ही बची हैं। इसी नुक्ते पर बहस को आगे बढ़ाते हुए जसम की प्रदेश उपाध्यक्ष रूपम मिश्र ने कहा कि यह केवल कानून तक सीमित नहीं है बल्कि आज जो नव हिंदूवादी ताकतें हैं, वे इन परम्पराओं को निचली जातियों के समाज में भी घृणित कार्य के रूप में स्थापित कर रही हैं। अब पहले की तरह विवाह-विच्छेद आसान नहीं रहा। कानून भी एक बड़ी बाधा है क्योंकि खेत, सम्पत्ति स्त्रियों के नाम पर नहीं हैं। किसान सम्मान निधि भी आती है तो पुरुष के हाथ में आती है, पुरुष जब चाहे अचल सम्पत्ति को बेच सकता है। ये सब चीज़ें महिलाओं के लिए बड़ी चुनौती हैं।

युवा सामाजिक कार्यकर्ता और प्रतियोगी छात्रा आरती ने परिचर्चा को लिंग-आधारित जैविक प्रश्नों से जोड़ते हुए कुछ तीखे सवाल उठाए। उन्होंने भारतीय समाज में चीज़ों को दबा-छिपाकर रखने वाली प्रवृत्ति पर हमला करते हुए कहा कि यहाँ सिगरेट जैसी अनावश्यक और नुकसानदेह चीज़ गर्व से बेची जाती है और महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक सैनिटरी नैपकिन जैसी वस्तु छिपकर बेची जाती है। पीरियड्स को परिवारों में बहुत गोपनीय बनाकर रखा जाता है और लड़की के पिता या भाई के सामने इसका नाम भी नहीं लिया जा सकता जब कि यह एक बिल्कुल समान्य बात है और सबको इसके बारे में जानना चाहिए। उन्होंने परिचर्चा में शामिल लोगों से पूछा कि इस प्रकार के पाखंड का कारण क्या है। आरती के इन प्रश्नों से चर्चा को आगे बढ़ाते हुए लेखक-अनुवादक आलोक कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े किसी विषय पर बात नहीं करना चाहता क्योंकि स्त्री के स्वास्थ्य पर बात शुरू होते ही उसे मुफ़्त का श्रम मिलना रुक जाएगा। यदि स्त्री अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत होगी तो बीमार होने पर इलाज की माँग भी उठाएगी, इस प्रकार पूँजी का एक हिस्सा स्त्री के स्वास्थ्य पर भी व्यय करना होगा और स्त्री के श्रम की पूरी लूट नहीं हो सकेगी।

मेवालाल इंटर कॉलेज, सोरांव के अध्यापक राजकुमार ने परिचर्चा में भाग लेते हुए लैंगिक संवेदनशीलता और समानता में पारिवारिक पृष्ठभूमि की भूमिका की चर्चा की। उन्होंने समाज में इस संबंध में चेतना के निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया। ऐसी परिचर्चाओं से चेतना-निर्माण की प्रक्रिया को रेखांकित करते हुए उन्होंने विश्वास प्रकट किया कि मुक्तिबोध पुस्तकालय के इस प्रकार के आयोजन इस दिशा में सार्थक योगदान करेंगे।

परिचर्चा के बाद कविता-पाठ सत्र में प्रसिद्ध कवयित्री रूपम मिश्र ने स्त्री-जीवन की अनुभूतियों और चेतना से जुड़ी अपनी कुछ मार्मिक कविताओं का पाठ किया जिनमें ग्रामीण-जीवन के बिम्बों के माध्यम से स्त्रियों की कंडीशनिंग पर केंद्रित एक कविता से श्रोताओं को इस प्रक्रिया को समझने में बहुत मदद मिली। बाजार और पूँजी के दुश्चक्र में फँसायी जाती स्त्री की पहचान कराती उनकी एक अन्य कविता ने भी इस मसले पर श्रोताओं की चेतना को उन्नत बनाने का कार्य किया। इस सत्र में प्रतिष्ठा, आरती, सत्यम और कवि ने भी अपनी कविताएं सुनायीं। कार्यक्रम का सफल संचालन जसम इलाहाबाद इकाई की सचिव शिवानी ने किया। तीन घंटे से अधिक समय तक चले इस कार्यक्रम में उपर्युक्त प्रतिभागियों के साथ-साथ रेखारानी, सोनम श्रीवास्तव, संध्या द्विवेदी, अभिधा, सुनील मौर्य, धरमचंद, कवि धुरिया, भानु कुमार, अविकल्प, आर्यन, आयुष, राहुल आदि लोग भी उपस्थित रहे।

 

रिपोर्ट : कवि धुरिया

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