एक दीये से काम नहीं चलेगा, सबके हाथों में दीया होना चाहिए: रणेंद्र
‘‘गूंगी रुलाई का कोरस’ हिन्दी आलोचकों के लिए एक चुनौती की तरह है। इसमें इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, समाज-वैज्ञानिकों के लिए भी गहरे संकेत है। जो संगीत से जुड़े हुए लोग हैं उन्हें भी इस उपन्यास को पढ़ना चाहिए। इस उपन्यास के शीर्षक में ही गहरा दर्द छिपा हुआ है। ‘गूंगी रुलाई’ पर ध्यान देने की जरूरत है। इस उपन्यास में गूंगी रुलाई किसी एक की नहीं है, यह रुलाई का कोरस है। सूक्ष्मता से देखिए तो पूरा लोकतंत्र और इसके सारे स्तंभों के ध्वस्त होने की सच्चाई इसमें दर्ज है। यह सामाजिक कंसर्न वाले दृष्टिसंपन्न, विवेकवान उपन्यासकार का शोधपरक और चिंतनपरक उपन्यास है।’’ आसनसोल के जिला ग्रंथागार में विगत 3 जुलाई को ‘सहयोग’ संस्था द्वारा आयोजित ‘बदलता समाज, संगीत और गूंगी रुलाई का कोरस’ विषय पर आयोजित परिचर्चा के मुख्य वक्ता प्रसिद्ध आलोचक रविभूषण ने ये विचार व्यक्त किये।
रविभूषण ने कहा कि पूरी प्रकृति ही संगीतमय है। लेकिन हमने प्रकृति को नष्ट कर दिया है। यह उपन्यास सुरों को लील जाने वाली शक्तियों के विरुद्ध है। हमारे समय में जो कर्कश ध्वनियाँ हैं, उसके बरअक्स रणेंद्र स्वरों की, ध्वनि की रक्षा करते हैं। हमारे समय में शब्दों के साथ दुराचार किया गया है, वास्तविक अर्थों को निचोड़कर गलत अर्थ डाल दिये गये हैं। आज के विभाजक समय में इस उपन्यास में शब्दों और भाषाओं का जो मिलन नजर आता है, वह भी इसका सामाजिक पक्ष है। 38 अध्यायों में बँटे 238 पृष्ठों के इस उपन्यास के हर अध्याय में जो शुरुआती पंक्तियाँ हैं, वे महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ भाषाएँ मिल रही हैं, शब्द और वाक्य मिल रहे हैं, और कुछ लोग अपने ही लोगों का कत्लेआम कर रहे हैं! इसके अतिरिक्त सामाजिक-लैंगिक विभेद को बढ़ाने वाली शक्तियों का भी उपन्यासकार विरोध करता है। यह ऐसा समय है कि जो भी सकारात्मक शक्तियाँ हैं, उनको साथ होना चाहिए।
रविभूषण के अनुसार ‘गूंगी रुलाई का कोरस’ सांप्रदायिक कट्टरता और वैमनस्य के विरुद्ध है तथा सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व का उपन्यास है। यह एक सजग, जागरूक, चिंतनशील और गंभीर पाठक की माँग करता है। पाठक को भी गंभीर अध्येता होना चाहिए। संगीत से जो ध्वनि निकलती है वह विभिन्न दिशाओं में संचरित होती है। स्वयं उपन्यासकार ने लिखा है कि ‘‘रूह से रूह तक उतरने वाली हिन्दुस्तानी मौसिकी, जो कभी इबादत होती थी अब डेसिबल युद्ध की रणभूमि में तब्दील होती जा रही है।’’ दरअसल यह उपन्यास पाठकों से अपनी रूह को बचाने का आग्रह करता है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायन में मुसलमान गायक बहुसंख्यक हैं, जबकि जो आज जो आबादी में बहुसंख्यक हैं वे विध्वंसकारी है। यह उपन्यास मौसिकी के खतरे में पड़ते जाने के बहाने हिन्दुस्तानी तहजीब की रक्षा के लिए लिखा जाने वाला उपन्यास है। उपन्यासकार ने अपनी संपूर्ण सृजनात्मक शक्ति के साथ अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप किया है। उपन्यासकार की चिंता मजहब और सियासत के बीच पीस रही इंसानियत को बचाने की है। यह काम देश के सांस्कृतिक संगठनों का होना चाहिए। सांप्रदायिक घृणा और हिंसा के विरुद्ध लिखे गये इस उपन्यास की कथा पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की कथा बन जाती है, तीनों देशों में जो धर्मांधता और सांप्रदायिकता है उसे भी उपन्यास दर्शाता है। ‘मौसिकी मंजिल’ तो पूरे हिंदुस्तान का ही रूपक है। इस उपन्यास ने इतिहास के सामने भी कई सवाल रख दिये हैं।
आलोचक अरुण होता ने कहा कि रणेंद्र ने अपने हर उपन्यास में नया अनुसंधान किया है। उनके पिछले दोनों उपन्यास आदिवासी विमर्श से संबद्ध थे। ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ शास्त्रीय संगीत और इतिहास से रूबरू कराता है और सही मायने में यह इतिहास है। इस उपन्यास का व्यापक परिप्रेक्ष्य है। बाजारवादी राजनीति के छल-छद्म, सांप्रदायिक हिंसा की राजनीति और अंधराष्ट्रवाद के विरुद्ध यह उपन्यास पाठकों की आँखें खोलता है। इसका कथ्य लोकल ही नहीं, ग्लोबल भी है। आज जो समस्याएँ लोगों को त्रस्त कर रही हैं, उनको इस उपन्यास में देखा जा सकता है। यह मृत्यु का नहीं, जीवन की सोद्देश्यता को स्थापित करने वाला उपन्यास है।
कहानीकार सृंजय ने ग्रीक मिथकों की संगीत की देवियों के बारे में विस्तार से जिक्र करते हुए कहा कि समाज बदल गया है, पर संगीत का प्रभाव नहीं बदला है। यह उपन्यास किसी सायरन की तरह खतरे और संकट से आगाह करता उपन्यास है।
सुधीर सुमन ने कहा कि यह उपन्यास हिन्दुस्तानी तहजीब का आईना है, जिसे चकनाचूर कर देने की कोशिश की जा रही है। यह गूँगी रुलाई का कोरस है। यह किसी एक व्यक्ति की रुलाई नहीं है। एक मिलीजुली संस्कृति, समाज और देश के टूटने और उसे बचा न पाने की विवशता से भरे लोगों की यह रुलाई है, जो अभी भी उसे बचाने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं। इसी कोशिश का एक उदाहरण रणेंद्र का उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ है। उपन्यास के आरंभ के पूर्व ही नवारुण भट्टाचार्य की कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ की पंक्तियाँ किसी संकल्प की तरह आती हैं। ये पंक्तियाँ जल्लादों के चंगुल में फँस चुके अपने देश और समाज की मुक्ति की चाहत को व्यक्त करती हैं। यह उपन्यास गोविंद पानसरे, एम.एम.कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, गौरी लंकेश की स्मृति को समर्पित है। ये सारे लोग अंधआस्थाओं, जातिवाद-संप्रदायवाद और कारपोरेटपरस्त फासीवादी हिंदुत्ववादी राजनीति के खिलाफ थे। यह मॉब लिंचिंग में शहीद ‘बंधुओ’ को भी समर्पित है।
सुआर्यन जागरण सेना और भगवान कच्छप-रक्षा सेना, बीबी गुप्ता, डेली अखबार का संपादक श्रीवास्तव, सोशल मीडिया के ट्राल्स का जो गठजोड़ है, उनकी हिंसक नफरती-उन्मादी राजनीति का पर्दाफाश करते हुए उपन्यास दंगों और कत्लेआम के इतिहास से तो गुजरता ही है, वह दंगाई राजनीति के अनुयायियों के आर्थिक स्वार्थ को भी स्पष्ट करता है। इनके बरअक्स इसमें संगीत परंपराओं से जुड़े साधकों के परिवार की चार पीढ़ियों का जीवन-राग से भरा अद्भुत दास्तान है। स्त्री-पुरुष का प्रेम है, अध्यात्म की गहराई है, भाषा-खानपान-रिवाज और संस्कृतियों का मेलजोल है, जो आज के त्रासद समय में पाठकों को सुकून प्रदान करता है। अम्मू का खानदान हिन्दुस्तानी तहजीब का आईना है।
अपने और पराये की राजनीति दिलों के भीतर जहर भर रही है, इसलिए दिल के धरातल पर ही संगीत के सुरों को लेकर उनसे मुकाबले की कोशिश और जिद इस उपन्यास में दिखायी पड़ती है। लेकिन उपन्यासकार इस सच्चाई को नजरअंदाज नहीं करता कि शास्त्रीय संगीत से आम अवाम की दूरी है। उसकी सलाह है कि शास्त्रीय संगीतकारों और गायकों को आम लोगों- किसानों, मजदूरों, छात्रों के संघर्ष से जुड़ना चाहिए। इस एका की जरूरत आज बहुत ज्यादा है। उपन्यास में ऐसा एक प्रसंग है, जब सांप्रदायिक गिरोह के खिलाफ सारे छात्रावास, हॉस्टल, मठ-मठिया-मदरसे में रहने वाले, आसपास के गांव से कॉलेज जानेवाले, अभिभावकों, मजदूर कॉलोनियों के लोग आर-पार के मूड में आ जाते हैं। जैसे ही सुआर्यन और कच्छप सेना के बलवाई ‘मौसिकी मंजिल’ पर पेट्रोल बम फेंककर शुरुआत करते हैं, उनकी पिटाई शुरू हो जाती है। ‘ऐसी दमदार पिटाई कि पीढ़ियां याद रखेंगी। हिक्की से बम निकालने, कट्टे से फायर करने से पहले ही लाठी-हॉकी स्टिक्स की मार से हाथ बेकाम हो गए। सारे बम-कारतूस रखे रह गए। घंटे भर में तो सुआर्यन सेना की कमर ही तोड़ दी गई…।’’
जैसे संगीत की साझी परंपरा है, वैसे ही भाषा-साहित्य की भी है। उसे विभाजित करके देखना दरअसल समाज को विभाजित करने की तरह है। उपन्यास दिखाता है यह साझी संस्कृति कोई कोरा आदर्श नहीं है, बल्कि सच्चाई है। दरअसल शुद्धतावाद, संकीर्णतावाद और कट्टरता किसी भी समाज के लिए विनाशकारी है। बाबा उस्ताद अमीर खाँ के हवाले से कहते हैं कि जाति, मजहब, संप्रदाय की बुनियाद पर देश को टुकड़ों में बाँटने वाले संगीत को नहीं बाँट सके। मौसिकी हमारे जज्बाती एका को मजबूत करने वाली अनमोल संपदा है। हम बुनियादी तौर पर एक ही धागे से बंधे हैं। अब्बू चेताते हैं कि मजहब और सियासत की जुगलबंदी यू ही चलती रही, तो पूरी इनसानी नस्ल ही खात्मे के कगार पर पहुँच जाएगी। दिलो-दिमाग पर चढ़ी मैल की मोटी परत हटाने के लिए एक साथ कई कोशिशें करनी होंगी, जिनमें मौसिकी या कोई भी फनकारी और सृजनात्मकता की भी एक भूमिका होगी। उपन्यास पहचान की राजनीति और सूचना-समाज या सूचना-साम्राज्य के जनविरोधी चरित्र पर भी ऊंगली उठाता है।
डॉ. प्रतिमा प्रसाद ने कहा कि रणेंद्र का उपन्यास हम सबके अंतर्मन में छिपी पीड़ा को व्यक्त करता है। रणेंद्र ने एक लेखक के उत्तरदायित्व का बहुत ईमानदारी और निडरता से निर्वाह किया है। वे बड़ी सामाजिक चिंताओं को अपने उपन्यासों में दर्ज करते रहे हैं। इस उपन्यास में साझी संस्कृति को उन्होंने विषय बनाया है। मौसिकी, इबादत और इंसानियत का रिश्ता इस उपन्यास में चित्रित हुआ है। उन्होंने बंगाल की संस्कृति की बड़ी गहराई से चर्चा की है, जो इस उपन्यास की एक और खासियत है।
कार्यक्रम में नीलोत्तमा झा, प्रीति सिंह, पूजा पाठक, विकास कुमार साव, सुनील नायक, अमित, पूनम भुइयाँ और एकता आदि ने उपन्यासकार से ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ के साथ-साथ पिछले उपन्यासों के संबंध में प्रश्न किये। कौन सी घटना ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ के लिए उत्प्रेरक बनी, इसके केंद्र में संगीत ही क्यों है, बांग्ला संस्कृति का इतना जीवंत वर्णन लेखक ने कैसे किया, इसे लिखने के दौरान कैसी चुनौतियाँ आयीं, नीचे तक एका की भावना को कैसे प्रसारित किया जाए, समस्या का समाधान क्या है?- मुख्य रूप से ये प्रश्न थे, जिनका जवाब देते हुए रणेंद्र ने कहा कि झारखंड में मॉब लिंचिंग की 24 घटनाएँ हुईं थीं। हावर्ड से पढ़ा-लिखा सांसद हत्यारों को माला पहना रहा था। उन्हें लगा कि एक क्रौंच पंछी की हत्या से रामायण लिखा जा सकता था, तो इतनी हत्याओं के बाद भी लेखक को क्यों चुप रहना चाहिए! उन्होंने बताया कि एक ऐसी ही घटना में मारे गये युवक की सास की रुलायी उन्हें सुनायी पड़ती थी, जो उन्हें कचोटती थी। गुजरात में वली दकनी की मजार को जिस तरह मटियामेट कर दिया गया था, उससे भी वे बेचैन हुए थे। इन्हीं सारी घटनाओं ने उन्हें ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ लिखने के लिए बाध्य किया।
रणेंद्र ने कहा कि अभी समस्या का समाधान नहीं दिख रहा है। जहाँ कोरोना से अधिक मौतें हुईं, गंगा में लाशें तैरती पायी गयीं, कफन तक नोच लिये गये, वहाँ वैसे ही लोग चुनाव जीत गये। संस्कृति को धर्म में रिड्यूस कर दिया गया है और धर्म को राष्ट्र में। अब यहाँ डेमोक्रेसी नहीं, कारपोरेटोक्रेसी स्थापित हो चुकी है। झारखंड में भी स्थिति बदल नहीं रही, अंधाधुंध माइनिंग को कोई रोकना नहीं चाहता। एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा कि रोजी-रोटी के लिए कुछ काम तो करना ही पड़ता है, पर लेखक को अपने विचारों से समझौता नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि उनकी तमन्ना है कि ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ का बांग्ला में रूपांतरण हो, ‘ग्लोबल गाँव का देवता’ के अंशों का नाट्य रूपांतरण हो। रणेंद्र ने अपनी लेखन प्रक्रिया के बारे में बताते हुए कहा कि उनका लेखन एक किस्म का सामूहिक लेखन है। उनके उपन्यासों के पीछे विभिन्न मित्रों और परिचितों के रचनात्मक सहयोग की भी अहम भूमिका रही है। अंत में उन्होंने कहा कि आज का समय सबसे भयावह और अंधेरा समय है। आज एक दीये से काम नहीं चलेगा, सबके हाथों में दिया होना चाहिए।
मंच का संचालन कर रहे आलोचक के. के. श्रीवास्तव ने कहा कि आज समाज बारूद की ढेर पर खड़ा है। यह रक्तरंजित समय है, जिसमें रणेंद्र का उपन्यास भाईचारे की तलाश करता है। ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ यह उम्मीद बंधाता है कि साहित्य-संगीत और कलाएँ ही मनुष्यता को बचाएँगी। अतिथियों और श्रोताओं का स्वागत कवि निशांत ने किया और धन्यवाद ज्ञापन कथाकार शिवकुमार यादव ने किया। इस मौके पर बीबी कॉलेज के अवकाश प्राप्त विभागाध्यक्ष राजेंद्र शर्मा का नागरिक अभिनंदन किया गया। उनके सहकर्मी अरुण पांडेय और निशांत ने उनके गुणों की चर्चा की। इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी, लेखक, बुद्धिजीवी, छात्र, शिक्षक और संस्कृतिकर्मी मौजूद थे। कार्यक्रम लगभग चार घंटे चला।