2021 में हेमार्केट बुक्स से हर्षा वालिया की किताब ‘ बार्डर & रूल : ग्लोबल माइग्रेशन, कैपिटलिज्म, ऐंड द राइज आफ़ रेशियल नेशनलिज्म ’ का प्रकाशन हुआ। इसकी प्रस्तावना राबिन डी जी केल्ली ने और पश्चलेख निक एस्टेस ने लिखा है।
राबिन केल्ली का कहना है कि वर्तमान महामारी के समय खबरों में लोगों की तकलीफ और मृत्यु की छवियों की बाढ़ आयी हुई थी। इसके साथ ही स्वास्थ्यकर्मी महामारी से जूझने की कहानी या विशेषज्ञ अभिमत बता रहे थे। अक्सर ये स्वास्थ्यकर्मी प्रवासी या उनकी संतानें थे। ये सभी युद्ध में टूटे हुए सेनानी थे। उनका मुकाबला केवल कोरोना से नहीं था, वे निजीकरण की शिकार चिकित्सा व्यवस्था और जनता की जगह मुनाफ़े की चिंता करनेवाली सरकारी नीतियों से भी लड़ रहे थे। परदेशियों से नफ़रत फैलाने वाली और नस्लवादी राजनीतिक संस्कृति को झेलते हुए अपना जीवन दांव पर लगाना था। कोरोना संकट के चलते यह जो नया युद्धस्थल पैदा हुआ मीडिया ने आम तौर पर उसकी उपेक्षा ही की।
अमेरिकी सरकार ने सीमाओं को बंद करना शुरू किया, शरणार्थियों पर बंदिशें बढ़ा दीं और आप्रवासियों को नजरबंद कर लिया। जिन मजदूरों के काम की वजह से उन्हें संक्रमण की आशंका अधिक थी उनकी रक्षा संबंधी कानूनों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया गया। सरकारी उपेक्षा की वजह से मूलवासियों के इलाके कोरोना संक्रमण के केंद्र बन गये। कैदियों और जेल कर्मियों में संक्रमण तेजी से फैला। एशियाई बाशिंदों को नस्ली हमलों का शिकार बनाया गया। इस दौरान स्त्रियों को काम पर जाने की मनाही के चलते घर पर बैठना पड़ा और घरेलू हिंसा में काफी बढ़ोत्तरी देखने में आयी। दूसरी ओर दक्षिणपंथी ताकतों ने तमाम नियमों की धज्जी उड़ाते हुए रैलियां निकालीं।
इस किताब में हर्षा ने बताया है कि ये लड़ाई कोई नयी बात नहीं है। इस बार की महामारी में उसी हमले का ताजा रूप देखने को मिला जो विगत पांच सौ साल से पूंजीवाद धरती पर किये जा रहा है। इसके तहत उसने जमीनों को घेरा, उनके मालिकों को बेदखल किया, उन पर कब्जा जमाया, उनका दोहन किया, शोषण किया, उसे विक्रेय माल में बदला, उपभोग किया, बरबाद किया, प्रदूषण फैलाया, गरीबी पैदा की और उत्पीड़नकारी शासनतंत्र पैदा किया। जनता के विरुद्ध यह लड़ाई सैन्य हिंसा के जरिये सुरक्षा के नाम पर चलायी गयी। इन सब कदमों के फलस्वरूप धरती के अधिकांश बाशिंदों को विस्थापन, कैद, कर्ज, अस्थिरता, गरीबी और अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ रहा है। पिछले दशक में इस हमले के विरोध में अकुपाई, अरब वसंत, कटौती विरोधी आंदोलन, लैटिन अमेरिकी क्रांतियों और नस्ली राजकीय हिंसा के प्रतिरोध की शक्ल में तमाम विद्रोह उठ खड़े हुए थे। इसके साथ ही नस्ली राष्ट्रवाद, स्त्रीद्वेष, नारीहत्या और तानाशाहों की चुनावी जीतों में बढ़ोत्तरी भी नजर आयी। अगर इस समय को समझना है तो किताब इसमें मददगार हो सकती है । इसमें आसान समाधान या उदारवादी नुस्खों से परहेज किया गया है।
लेखिका ने विश्वव्यापी समस्याओं की जड़ तलाशने का प्रयास किया है। वे जितनी गम्भीर विचारक हैं उससे उम्मीद भी उनसे ऐसे ही धारदार विश्लेषण की थी। विचार के साथ ही उन्होंने हमारे समाज में व्याप्त नस्ली पूंजीवाद, उपनिवेशवाद, पितृसत्ता, सैन्यवाद का विरोध करने तथा प्रवासियों, मूलवासियों, स्त्रियों और बेघरों के अधिकारों की रक्षा में जीवन खपाया है।
इसमें प्रस्तुत सबूतों से व्यवस्था को धक्का पहुंचेगा । शरणार्थी संकट की आसान व्याख्या खोजनेवालों को भी धक्का लगेगा। इस प्रचलित मान्यता को भी धक्का लगेगा कि अमेरिका और कनाडा आप्रवासियों के देश हैं। ट्रम्प शासन की आप्रवास नीतियों के विरोधी भी बहुधा यह मंत्र दुहराते हैं और कहते हैं कि आप्रवासियों के वंशज होने के नाते रोजगार की तलाश में अमेरिका आनेवालों को रोकने के लिए दीवार खड़ी करना अनैतिक है। सचाई यह है कि इस जगह के मूलवासियों को मिटाकर और काले लोगों को चूसकर यूरोप के इन आप्रवासियों ने अपना मुल्क बनाया है। सभी आधुनिक लोकतंत्र बहिष्करण और परदेशी से नफ़रत के आधार पर खड़े किये गये हैं। यूरोप से यहां आकर आजादी का स्वप्नलोक निर्मित करने की कथा में कोई सच नहीं है। अमेरिका, कनाडा और आस्ट्रेलिया मेहनती लोगों की लोकतांत्रिक चाहत का नतीजा नहीं हैं बल्कि वे पूंजीवादी प्रसार और नस्ली विचारधारा के हिंसक उत्पाद हैं। इन्हें बनानेवाले हथियारबंद उपनिवेशकों के साथ शेयरधारक कंपनियों की आमद हुई । उन्हें सहारा देने के लिए औपनिवेशिक राजकीय मशीनरी मिली और अपहृत श्रमिकों की शक्ल में पूंजी की ताकत हासिल थी ।
इसमें उपनिवेशवाद के इतिहास और उसके नस्ली, पितृसत्ताक और राष्ट्रवादी आधारों की चीरफाड़ तो की ही गयी है, साथ ही वर्तमान का संदर्भ भी स्पष्ट है। ट्रम्प, बोलनसारो, मोदी, ओर्बान या दुतेर्ते के मातहत दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद के उभार में इतिहास खुद को दुहरा नहीं रहा। न तो यह 1930 दशक के फ़ासीवाद की आवृत्ति है और न ही नवउदारवाद की समाप्ति है। इसमें नवउदारवादी तर्क की निरंतरता तो है ही, चरम दक्षिणपंथी कट्टरता और कारपोरेट हितों का मेल भी है। इनके साथ विक्षुब्ध कामगारों का एक हिस्सा भी आ जुड़ा है। इन सबको मिलाकर भय पर आधारित एक नवफ़ासीवादी, सर्वसत्तावादी आंदोलन खड़ा हुआ है जो अब भी नवउदारवादी तर्क से ही संचालित है। कल्याणकारी राज्य के अवशेष हटाकर ऐसा विस्तृत सैनिक-पुलिस राज्य खड़ा किया जा रहा है जो सीमाओं को सुरक्षित रखने के नाम पर पूंजी के लिए अनुकूल हालात पैदा कर रहा है। राष्ट्र-राज्य कारपोरेट घराना हो गया है और वर्तमान अस्थिर दुनिया में उसे सुरक्षित रखने के बहाने चंद धन्नासेठ उस पर कब्जा कर बैठे हैं। इसकी जगह वालिया ने राष्ट्रवाद, पूंजीवाद और निजीकरण को तथा आप्रवासी अल्पसंख्यक के राक्षसीकरण को सुरक्षा के लिए असली खतरा बताया है । सबको उदार अधिकार प्रदान करने की मौजूदा व्यवस्था को क्रांति के जरिए उलट देने की जरूरत उन्हें महसूस होती है। असल में वैश्विक मजदूर वर्ग की एकजुट ताकत आ/प्रवासी की धारणा के चलते कमजोर हुई है।
आप्रवासी की पहचान तो राज्य की थोपी हुई पहचान है। इसी पहचान के आधार पर नागरिकता से जुड़े अधिकार तय होते हैं, मजदूरों को आपस में बांटा जाता है, ठेका मजदूरों की भारी फौज तैयार की जाती है और विद्रोही तथा खतरनाक मजदूरों को निर्वासन के जरिए हटा देने की ताकत राज्य को मिलती है। राष्ट्र-राज्य के निर्माण, सरहद खड़ी करने तथा उनकी रक्षा और स्पष्टता के लिए सरंजाम बनाने और समेकन, बहिष्करण तथा अपराधीकरण की विचारधारा के पुनरुत्पादन के लिए यह पहचान जरूरी है ।
नस्ली राष्ट्रवाद ने पर्यावरणिक खतरे के लिए आप्रवासियों के साथ ही देश के गरीब बाशिंदों को जिम्मेदार ठहराया है। जलवायु संकट के बहाने इनको खदेड़ा जा रहा है और तापवृद्धि, दावानल तथा विकराल विषमता की जिम्मेदारी से पूंजीवाद मुक्त हो गया है। इस आधुनिक नस्लभेद को बनाने में उदारवादी भी मौन सहायक हो जा रहे हैं। वे भी पर्यावरण की समस्या को हल करने के लिए कारपोरेट घरानों के सुझाये नुस्खों की वकालत करते हैं तथा शरणार्थी समस्या को राहत आदि से ही हल करना चाहते हैं। जब तक आप्रवासी के बारे में यह नजरिया रहेगा तब तक उनकी असलियत नजर नहीं आयेगी। वे तो वैश्विक श्रम शक्ति की जान हैं और उनकी भटकन का स्रोत युद्ध, पूंजी प्रवाह, सरकारों और वित्तीय/आर्थिक संस्थानों की नीतियों, नस्ली और पितृसत्ताक सुरक्षा तंत्र तथा सरहदों के आर पार के कामगारों के संघर्षों में निहित हैं । जो लोग उनके सही समेकन को इस समस्या का समाधान समझते हैं वे आप्रवासी को पैदा करने वाली ऐतिहासिक ताकतों पर परदा डालना चाहते हैं । वे मानव आपदा को समाप्त करने और धरती को बचाने की अपनी ताकत को भी जाहिर नहीं होने देना चाहते।
मतलब कि जिसे आम तौर पर आप्रवासियों का संघर्ष कहा जाता है वह असल में वर्ग संघर्ष है। संयोग नहीं कि आप्रवासी विरोधी कानूनों के साथ ही देशद्रोह संबंधी कानून भी बनाये जा रहे हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में अमेरिका से अक्सर समाजवादियों, कम्युनिस्टों और ट्रेड यूनियन नेताओं को निकाल बाहर किया जाता था। इसीलिए मजदूर नेताओं ने जोर देकर देश निकाले की इस व्यवस्था की मुखालफ़त की थी क्योंकि किसी एक पर भी हमला सब पर हमला मानना होगा । इसके चलते ही वालिया इसे आप्रवासी समस्या या आप्रवासी अधिकार की लड़ाई मानने की जगह पूंजी और साम्राज्य की नस्लभेदी और पितृसत्ताक व्यवस्था के विरुद्ध वैश्विक संघर्ष मानती हैं ।