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फैज की नज्म ‘इंतेसाब’ के गायन से शुरू हुआ पटना फिल्मोत्सव

पटना। मशहूर शायर फैज अहमद फैज की नज्म ‘इंतेसाब’  के गायन से 12 वें  पटना फिल्मोत्सव की शुरुआत हुई। हिरावल के कलाकारों ने इसे गाया। इस नज़्म की पंक्ति ‘बादशाह-ए-जहां…दहकां के नाम’ को 12वें फिल्मोत्सव का थीम बनाया गया है। सामाजिक कार्यकर्ता गालिब खान ने फिल्मोत्सव स्वागत समिति के अध्यक्ष के बतौर उपस्थित दर्शकों का स्वागत किया। उन्होंने शायर इकबाल के हवाले से कहा कि उठो मेरे दुनिया के गरीबों को जगा दो/ काख-ए-उमरा के दर ओ दीवार को हिला दो/ जिस खेत से दहकां को मयस्सर नहीं रोजी/ उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो। उन्होंने फिल्मोत्सव को एक वैकल्पिक हस्तक्षेप बताया।

12 वें पटना फिल्मोत्सव के उद्घाटन सत्र का संचालन करते हुए जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने कहा कि कोविड महामारी और उसकी आड़ में सत्ता जिस तरह सामूहिकता को नष्ट कर रही है, उसके प्रतिवाद की एक कोशिश है पटना फिल्मोत्सव। पिछले ग्यारह वर्षों में पटना फिल्मोत्सव में कारपोरेट पूंजी और भारत की सरकारों के गठजोड़ द्वारा आदिवासियों और किसानों को जल, जंगल, जमीन पर उनके अधिकार से वंचित किए जाने के खिलाफ लगातार फिल्में दिखाई है, श्रमिकों को उनके अधिकारों से वंचित किए जाने के प्रतिरोध में बनाई गई फिल्में प्रदर्शित की। आज जब हमारा देश एक ऐतिहासिक किसान आंदोलन और सरकार की अभूतपूर्व संवेदनहीनता के दौर से गुजर रहा है, तब कला के सारे औजारों को लेकर उनके पक्ष में खड़ा होने की जरूरत पिछले किसी दौर से अधिक है। फिल्मोत्सव का उद्घाटन ‘दो बीघा जमीन’ से हो रहा है, जो चैहत्तर साल पहले बनी थी, पर आज भी प्रासंगिक है। पूंजीवाद आज और अधिक निर्मम हुआ है और जमींदार की जगह सरकार ने ले ली है। ऐसे में फिल्मकारों, कलाकारों, साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों का दायित्व बढ़ गया है। खेती को बचाना सिर्फ किसान को ही बचाना नहीं है, बल्कि उन सबको बचाना है जिसे किसान की मेहनत से जीवन मिलता है, रोटी मिलती है, भूख मिटता है।

स्वतंत्रता सेनानी रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ के हवाले से उन्होंने कहा कि रोटी बढ़कर स्वर्गलोक से, रोटी जीवन प्राण/ रोटी से बढ़कर ना कोई देव-दनुज-भगवान/ सो रोटी उपजे खेती से, खेती करे किसान/ जो किसान का साथ निबाहे, सो सच्चा इंसान।

 

स्मारिका का लोकार्पण

उद्घाटन सत्र में ही गालिब खान, कथाकार अवधेश प्रीत, प्रो. भारती एस. कुमार, प्रो. संतोष कुमार, मधुबाला, रंजीव, सुमंत शरण और फिल्मोत्सव की संयोजक प्रीति प्रभा ने फिल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण किया। इस अवसर पर कालिदास रंगालय के प्रांगण में एक बुक स्टाॅल भी लगाया गया है।

पूंजीवादी शक्तियों द्वारा किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करने के यथार्थ को दिखाया ‘दो बीघा जमीन’ ने

12वें पटना फिल्मोत्सव का पर्दा विमल राय की बहुचर्चित फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ से उठा। यह फिल्म एक रिक्शाचालक के रूप में महान अभिनेता बलराज साहनी के जबर्दस्त यथार्थपरक अभिनय के लिए जानी जाती है। सलिल चैधरी द्वारा संगीतबद्ध इसके गीत अत्यंत लोकप्रिय रहे हैं। पूंजीवादी शक्तियां किस तरह सामंती शक्तियों के साथ मिलकर छोटे किसान को उनकी जमीन और गांव से उन्हें विस्थापित करती हैं और महानगर पहुंचकर वे किन जानलेवा त्रासदियों का शिकार बनते हैं, इस फिल्म का यही कथ्य है।

1953 में निर्मित इस फिल्म में बलराज साहनी ने एक सीधे-साधे किसान शंभू महतो की भूमिका की है, जिसकी दो बीघे जमीन पर जमींदार ठाकुर हरनाम सिंह की नजर है। वह शहर के एक कारोबारी के साथ मिलकर गांव में मिल लगाना चाहता है, जिसके लिए उसे शंभू महतो के जमीन की जरूरत है। शंभू उसे बेचना नहीं चाहता, पर अकाल के दौरान दिए गए कर्ज की आड़ में जमींदार उस पर कब्जा कर लेना चाहता है। शंभू कोर्ट में भी जाता है, लेकिन अदालत जमींदार के पक्ष में फैसला सुनाता है। तीन महीने में उसे 235 रुपये चुकाना है, वर्ना उसका घर और उसकी जमीन नीलाम हो जाने की नौबत है। तब वह कर्ज चुकाने के लिए मजदूरी करने कलकत्ता जाता है। उसके साथ उसका बेटा कन्हैया भी ट्रेन में छुपकर कलकत्ता जाता है।

 

कर्ज चुकाने के दिन जैसे-जैसे करीब आते जाते हैं, शंभू ज्यादा कमाई के लिए तेजी से रिक्शा खींचता है। इसी में एक दिन रिक्शे का पहिया निकल जाता है। शंभू दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। कन्हैया पिता की हालत देखकर चोरी करने लगता है। इसी बीच शंभू की पत्नी अपने पति और बेटे को खोजते हुए कलकत्ता पहुंच जाती है, जहां कार से उसकी दुर्घटना हो जाती है। शंभू के सारे पैसे उसके इलाज में खर्च हो जाते हैं। आखिरकार जमीन की नीलामी हो जाती है और मिल चालू हो जाता है। शंभू अपने परिवार के साथ अपनी जमीन देखने गांव आता है और वहां कारखाना देखकर बहुत दुखी होता है। वह मुट्ठी भर गंदगी कारखाने की ओर फेंकता है। सुरक्षाकर्मी उसे बाहर निकाल देते हैं। फिल्म यहीं खत्म हो जाती है।

आज के समय में कारपोरेट कंपनियां जिस तरह जबरन किसानों को उनको जमीन से बेदखल कर रही हैं और सरकारें तथा उनके अंधभक्त जिस तरह किसानों को विस्थापित करने के अभियान में लगे हैं, उसे देखते हुए किसानों पर केंद्रित इस फिल्मोत्सव की शुरुआत के लिए ‘दो बीघा जमीन’ एक अत्यंत प्रासंगिक फिल्म लगी।

कुंभ : दी अदर स्टोरी

2020 में पवन श्रीवास्तव द्वारा बनाई गई इस डाक्यूमेंट्री ने अर्धकुंभ के शर्मनाक राजनैतिक उपयोग के यथार्थ को दर्शाया। अपनी फिल्म के बारे में भेजे गए वीडियो संदेश में पवन श्रीवास्तव ने बताया कि अर्द्धकुंभ का बजट तीनगुना कर दिया गया था, पर उसकी तैयारी में लगे श्रमिकों को उनका हक नहीं दिया गया। उन्होंने अपना उचित मेहनताना माना तो उन पर दमन ढाया गया। यहां तक कि श्रद्धालुओं के साथ भी छल किया गया। उनके लिए भी बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं। अर्द्धकुंभ को पूरी तरह भाजपा के राजनैतिक प्रचार का अवसर बना दिया गया था। वहां मोदी के बड़े-बड़े कट आउट और बैनर लगे हुए थे। मौजूदा सरकार किस तरह लोगों की धार्मिक और भक्ति भावना का राजनैतिक दोहन करती है, किस तरह बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को प्रश्रय दिया जाता है, उसी यथार्थ को इस डाक्यूमेंट्री में दर्शाया गया था।

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