2017 में वर्सो से स्टेफान कोलिनी की किताब ‘स्पीकिंग आफ़ यूनिवर्सिटीज’ का प्रकाशन हुआ । आजकल विश्वविद्यालयों और उनके विद्यार्थियों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी आई है । इसमें विकसित और विकासशील दोनों ही देश शामिल हैं लेकिन चीन केवल पिछले बीस सालों में 1200 नए विश्वविद्यालय और कालेज स्थापित हुए हैं । बदलाव मात्रात्मक ही नहीं हुए हैं बल्कि कुल मिलाकर उच्च शिक्षा की समूची पारिस्थितिकी बदल गई है । अध्यापकों को अब अनुदान, मूल्यांकन, गुणवत्ता और इम्पैक्ट की चिंता अधिक सताती है । प्रशासन का भी तरीका बदल गया है । अब सरकारी फैसलों को लागू करने के लिए वरिष्ठ प्रबंधकों का दल होता है । पढ़ाए जाने वाले विषयों की संख्या भी बहुत हो चली है । पढ़ाई की प्रक्रिया में बुनियादी तरीकों के बदले नई तकनीकों का इस्तेमाल खूब होने लगा है । विद्यार्थियों में विदेश से आने वालों का अनुपात भी अधिक हो गया है । विभिन्न देशों में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के परिसर खुल रहे हैं । इनके अतिरिक्त पढ़ाई का खर्च विद्यार्थी से अधिकाधिक वसूला जा रहा है । इस तीव्र बदलाव के चलते दिशाहीनता पैदा हो रही है, समाज को विश्वविद्यालयों की नई भूमिका और प्रकृति आसानी से समझ नहीं आ रही । राजनीति और मीडिया में इन बदलावों के बारे में जिस शब्दावली में बात हो रही है उससे भ्रम और फैल रहा है । बातचीत की भाषा में व्यवसाय की शब्दावली आ गई है । कुछ लोग कहते हैं कि भाषा के मुकाबले यथार्थ का महत्व ज्यादा है लेकिन भाषा इतनी छिछली चीज नहीं होती कि उससे यथार्थ पर कोई असर न पड़े । वह ऐसा छिलका नहीं होती जिसमें यथार्थ लिपटा रहता है और जरूरत पड़ने पर उसे उतारकर यथार्थ को देख लिया जाए । जिस भाषा में इन शिक्षण संस्थानों के बारे में बातें हो रही हैं उसका इस्तेमाल एक पीढ़ी पहले भी नहीं होता था । इसलिए सोचने के तरीके से सोचने की शब्दावली गहरे जुड़ी होती है ।
अगर विश्वविद्यालयों के बारे में कुछ करना है तो उनके मकसद की समझदारी बनानी होगी । इसका मतलब यह नहीं कि बदलाव का प्रतिरोध किया जाए या पहले के जमाने में वापस लौट चला जाए । न ही इसका अर्थ दुनिया की उन बुनियादी ताकतों की मौजूदगी से इनकार करना है जो विश्वविद्यालयों की प्रकृति और उनके कामकाज को प्रभावित कर रही हैं । लेखक का कहना है कि यह किताब 2012 में प्रकाशित उनकी किताब ‘ह्वाट आर यूनिवर्सिटीज फ़ार?’ की निरंतरता में लिखी गई है । दोनों किताबों का बुनियादी तर्क समान होने के बावजूद इस किताब में समय के बदलाव को अधिक गहराई से समझने की कोशिश की गई है । लेखक को लगता है कि पहले वाली किताब के बारे में जो चर्चा हुई उससे इस किताब के तर्कों को विकसित करने में मदद मिली है । जिन लोगों की प्रतिक्रिया पहली किताब पर मिली थी उनमें सबसे पहले विद्यार्थी थे । चूंकि वे अध्यापकों के मुकाबले कम समय के लिए विश्वविद्यालय में रहते हैं इसलिए विश्वविद्यालय से उनकी मांगें भी अलग तरह की होती हैं । उनके बाद ऐसे पाठकों और श्रोताओं की प्रतिक्रियाएं मिलीं जिनका संबंध विश्वविद्यालयों से नहीं था लेकिन जो उनकी सेहत को लेकर चिंतित रहते हैं । वे विश्वविद्यालयों की गलत नीतियों के अनौचित्य के बारे में आश्चर्यजनक रूप से परिचित हुआ करते थे । तीसरा समूह समूचे यूरोप के पाठक और पत्रकार थे । इनमें से अधिकतर ऐसे थे जो विश्वविद्यालयों की पुरानी व्यवस्था की गुणवत्ता के प्रशंसक थे और महसूस करते थे कि इन्हें अब बाजार के हितों के लिए प्रयोगशालाओं में बदला जा रहा है । ज्यादातर यूरोपीय देशों में उच्च शिक्षा अब भी सरकारी खर्चे पर चल रही है और इन देशों को चिंता है कि उनके यहां भी आगामी दिनों में इसी तरह के बदलाव हो सकते हैं ।
इन समूहों से जिस तरह की प्रतिक्रिया सुनने को मिली वह बाजारोन्मुखी तर्कों से अलग थी । एक तो यह कि उनमें अध्यापकीय दुनिया में प्रचलित पदानुक्रम का आभास नहीं था । दूसरे यह कि स्वप्नजीवी ‘आदर्शवाद’ की निंदा और ‘व्यावहारिक’ होने में उन्हें गर्व नहीं महसूस होता था । इस प्रजाति के लोग बौद्धिकों में प्रचुर संख्या में पाए जाते हैं और निर्णायक सवालों को ‘व्यावहारिक’ और अनुभवी लोगों के लिए छोड़ देने की वकालत करते हैं । ऊपर गिनाई गई समीक्षाओं के अतिरिक्त किसी भी लेखक को ढेर सारे अनौपचारिक संवादों से भी दो चार होना पड़ता है । इस तरह के संवादों में सुनने को मिला कि जो बात कही जा रही है वह सही तो है लेकिन इससे कोई खास अंतर नहीं पड़ेगा । कहा गया कि यह सब अरण्य रोदन बनकर रह जाएगा । ऐसे लोग न तो ‘व्यावहारिक’ थे न ही उन्हें इससे खुशी मिल रही थी । वे लोग बस हताश हो चुके लगते थे । ऐसे लोग संख्या में कम भले हों लेकिन थे जरूर जो मानते थे कि बदलाव की कोशिश के लिहाज से काफी देर हो चुकी है । असल में इस दौरान जो बदलाव थोपे गए हैं उनके पीछे ऐसी विजयी शक्तिशाली राजनीतिक विचारधारा है जो वापसी को असंभव मनवा ले गई है । लेखक ने इस हताशा के समक्ष हथियार तो नहीं डाले हैं लेकिन उन्हें भी भविष्य की ओर ले जाने वाली कोई रोशनी दिखाई नहीं देती ।
कुछ अन्य लोग कहते थे कि बात सही होने के बावजूद वे अपने खुद के विश्वविद्यालय में ये बातें नहीं बोल सकते । यकीन नहीं कि उनकी संस्थाओं में ऐसा माहौल बन चुका है । इससे लेखक को अपनी मान्यता को बार बार दुहराने की प्रेरणा मिली । कुछ प्रतिक्रियाएं कानोकान लेखक के पास पहुंचीं । कुछ लोग लेखक को लेकर शर्मिंदा थे कि परेशानी पैदा करने वाला यह आदमी हमारा सहकर्मी है । लेखक को संतोष है कि उनकी किताब ने शांति में खलल तो डाली । कुछ लोगों को लेखक की व्यंग्यात्मक शैली से आपत्ति थी । उन्हें लगा कि इससे मामला बिगड़ सकता है । लेकिन लेखक का कहना है कि बुनियादी आलोचना से मामला बनता नहीं, बिगड़ता ही है । दूसरी बात कि उद्देश्यपरक लेखन अपने पाठक की रुचि बनाए रखना चाहता है और इसमें हास्य व्यंग्य से मदद मिलती है । गंभीर मंतव्य को प्रकट करने के लिए निर्वैयक्तिक शैली का महत्व हो सकता है लेकिन लाभ क्या जब उसे कोई पढ़े ही नहीं ! व्यापक पाठक समुदाय तक अपनी राय पहुंचाने के लिए लेखक को यही चुटीली शैली उचित लगी ।
लेखक का कहना है कि सार्वजनिक बहस मुबाहिसे में प्रदत्त समझ और अभिव्यक्ति की प्रचलित शैली से बहुत फायदा होता है । इस तरह कही गई बातें सांस्कृतिक माहौल का अंग होकर स्वाभाविक हो जाती हैं और उन्हें चुनौती देना मुश्किल हो जाता है । इस किताब के जरिए लेखक ने ऐसी ही सहमति की भाषा पर सवाल उठाना चाहा है ताकि कुछ बेहतर करने के लिए स्पष्ट तरीके से सोचा जा सके ।
(प्रो. गोपाल प्रधान अम्बेडकर विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं ।)
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