चंडीगढ़, 27 फरवरी, 2019
अब थोड़े स्थूलकाय हो चले नाटे कद के घनी मूछों वाले 63 वर्षीय ज़हूर आलम नैनीताल के युगमंच थियेटर ग्रुप की जान हैं। वे स्कूली दिनों से ही नाटक की दुनिया से जुड़े हैं। युगमंच में सक्रिय रहते उन्हें कम से कम 45 साल बीत चुके है। आमतौर पर यात्रा भीरू ज़हूर भाई चंडीगढ़ में बीती 27 फरवरी को असग़र वजाहत के मशहूर नाटक ‘जिस लाहौर नही वेख्या वो जन्मया नही’ का शो करने युगमंच की 30 मेम्बरों वाली टीम के साथ बस का 18 घंटे का सफ़र कर चंडीगढ़ पहुंच गए। यात्राओं से थक जाने वाले ज़हूर भाई की बातचीत में अपने स्वास्थ्य की चिंता नही बल्कि शाम को शो से पहले एक रिहर्सल कर लेने की हड़बड़ी थी। उनकी चिंता यह भी थी कि अपेक्षाकृत युवाओं से बनी यह नई टीम अपनी ऊर्जा बचाने की बजाय हल्ले गुल्ले में अपनी एनर्जी जाया कर रही थी।
‘जिस लाहौर नईं देख्या’ की रिहर्सल (फ़ोटो : संजय जोशी )
एक चिंता और थी जो रह रहकर उन्हें परेशान कर रही थी। वह थी युद्ध के माहौल में लाहौर प्रेम वाले नाटक के प्रदर्शन का सम्भव होना। इस आशंका को भांपते हुए उन्होने नाटक के नाम को ‘वो जन्मया नही’ की तरह सुझाया नही जिसपर स्थानीय आयोजक सुदेश शर्मा ने मजबूती से कहा कि नाटक अपने मूल नाम के साथ ही होगा।
असग़र साहब का यह नाटक 47 के विभाजन के समय लाहौर में छूट गई जौहरी रतन लाल की मां के इर्द गिर्द बुनी कहानी है जो उनकी हवेली को लखनऊ से आये मिर्ज़ा साहब को अलाट करने से शुरू होती है। मिर्ज़ा साहब को हवेली तो अलाट होती है लेकिन साथ में हवेली में छूट गई माई भी। मिर्ज़ा चाहते हैं कि माई वापिस हिंदुस्तान चली जाय और माई किसी भी कीमत पर लाहौर नही छोड़ना चाहती है। कुछ ही दिनों में माई का लखनऊ से आये इस नये परिवार से नाता जुड़ जाता है और वह मिर्ज़ा साहब के बच्चों की लाडली दादी बन जाती है। माई तब बहुत ख़ुश होती है जब मिर्ज़ा साहब ख़ुशी से माई के साथ दीवाली मनाते हैं।
‘हवेली वाले दृश्य का रिहर्सल’ ( वीडियो : संजय जोशी )
उस समय लाहौर की क्या फ़िज़ा थी इसको दिखाने के लिए अलीम की चाय की दुकान का सीन बुना गया है जहां अच्छे बुरे हर तरह के लोग आते हैं। बुरे लोगों का प्रतिनिधित्व पहलवान करता है जिसे मजहब की बहुत मोटी समझ है उसके लिए पाकिस्तान एक इस्लामिक देश है जिसमे रतन लाल की मां के लिए कोई जगह नही। एक मौलाना हैं जो मजहब की मानवीय व्याख्या मजबूती से सामने रखते हैं। लखनऊ से आये एक शायर काज़मी भी हैं जो पहलवान के कुतर्कों का मजबूती से लोहा लेते हैं।
एक सीन कस्टोडियन वालों का भी है जिससे ब्यूरोक्रेसी पर चोट होती है।
‘कस्टोडियन वाले दृश्य का रिहर्सल’ (फ़ोटो: संजय जोशी)
पहलवान की हरकत से धर्म के गलत इस्तेमाल का बखूबी चित्रण होता है।
नाटक की जान दीवाली का सीन है जिसमे लाहौर में माई के घर में सब मिलकर दीवाली मनाते हैं। लाहौर में दीवाली मनना उसी तरह एक सहज बात रही है जैसे कि इस शहर के सबसे बड़े उत्सव के रूप में बसंत के त्योहार को धूमधाम से आयोजित करना।
नाटक का क्लाइमेक्स तब आता है जब माई का देहांत होता है और उसके अंतिम संस्कार की बात उठती है। पहलवान को छोड़कर सब लोग इस बात पर राज़ी हैं कि माई का अंतिम संस्कार पूरे सम्मान के साथ हिन्दू रीति रिवाज से किया जाय। बहुत लम्बी बहस के बाद यह तय होता है कि मिर्ज़ा ही माई का अंतिम संस्कार करेंगे। अंतिम संस्कार से पहले माई के सम्मान में मौलवी के नेतृत्व में कलमा पढ़ा जाता है और इस दौरान पहलवान मौलवी की हत्या कर देता। यहीं नाटक खत्म होता है और पीछे से माई ‘ये मेरा शहर है लाहौर, एक ऐसा शहर जो मेरी सांसो में बसता है, कहते हैं जिसने ये शहर नहीं देखा वो जन्मया नहीं’ वाले शुरुआती संवाद को फिर से दुहराते हुए प्रवेश करती है। असल में इन्ही संवादों से से नाटक की शुरुआत हुई थी.
‘नाटक की जान ज़हूर आलम उर्फ़ माई और जितेन्द्र बिष्ट उर्फ़ मिर्ज़ा’ ( फ़ोटो : संजय जोशी )
थियेटर फ़ॉर थियेटर यानि टीएफटी द्वारा आयोजित इस प्रदर्शन में चंडीगढ़ स्थित सेक्टर 23 बी के बाल भवन थियेटर की 250 सीटें पूरी तरह भरी थीं और एक भी दर्शक लगभग 2 घंटे चले नाटक के दौरान उठकर बाहर नही गया। सर्जिकल स्ट्राइक के आज के दौर में पूरे नाटक के दौरान हिंदुस्तान ज़िंदाबाद या पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा भी न लगा । ऐसा भी न था कि दर्शकों में ज्यादातर ऐसे बुज़ुर्ग हों जो लाहौर या पाकिस्तान से विस्थापित हों। फिर भी हर किसी ने एक शहर के वजूद, अपनी मिट्टी से बिछुड़ने के दर्द और आपसी प्रेम की गर्मी को खूब गहरे तक महसूस किया।
‘हाउसफुल’ ( फ़ोटो: संजय जोशी)
2 comments
Comments are closed.