आलोक रंजन
राजकपूर और शैलेंद्र ये दो नाम केवल इसलिए साथ नहीं लिए जाते रहेंगे कि इन्होंने साथ काम किया और बहुत अच्छा काम किया बल्कि इसलिए भी कि जिस दिन राजकपूर अपना जन्मदिन मना रहे थे उसी दिन शैलेंद्र ने यह दुनिया छोड़ दी । एक जबर्दस्त जोड़ी का क्लाइमेक्स इससे बदलकर कुछ भी क्या ही किया जा सकता था । वह भी उस माहौल में जब शैलेंद्र तीसरी कसम को लेकर आकंठ कर्ज़ में डूबे हुए थे और राजकपूर उनसे नाराज़ ! शैलेंद्र इससे भी गीत निकाल सकते थे । फिल्म तीसरी कसम का वो गीत याद करिए जिसमें वे लिखते हैं – सजनवा बैरी हो गए हमार …।
तीसरी कसम ने शैलेंद्र का सबकुछ दांव पर ले लिया था यहाँ तक कि राजकपूर से दोस्ती तक । राज कपूर एक ही रुपैया एडवांस लेकर काम करने के लिए राजी हो गए थे लेकिन फिल्म की तमाम खूबियों के बीच उन्हें फिल्म के सुखांत न होने के कारण फिल्म के व्यापार न कर पाने की चिंता थी । सो वे और उनके वितरक (दोनों के बारे में शैलेंद्र मुतमइन थे कि ये कहीं नहीं जाने वाले ) शैलेंद्र पर दबाव डालने लगे थे फिल्म का अंत बदलने के लिए । पर शैलेंद्र तो ठहरे शैलेंद्र ! फिल्म उन्होने दिल से बनाई थी , दो और दो चार करने का उन्होने सोचा भी नही था । उन्होने अंत बदलने से साफ मना कर दिया । जब दबाव बहुत बढ़ गया तो उन्होने सभी वितरकों से कह दिया कि यदि आप मूल कथाकार को मना लें तो अंत बदल दिया जाएगा ।
इसके बाद फणीश्वर नाथ रेणु वितरकों से बात करने अंदर भेज दिए गए । मजा देखिए कि शैलेंद्र को व्यावसायिक दबाव में अपने कमजोर पड़ जाने का डर था इसलिए उन्होने रेणु को भेजा और रेणु ने उनकी भावनाओं की लाज रख ली वे किसी तरह अंत बदलने को राजी नहीं हुए । वितरक भड़क गए । फिल्म नहीं चली और बीमार शैलेंद्र को अपनी फिल्म का प्रिमियर भी देखना नसीब नहीं हुआ । राज कपूर नाराज हुए सो अलग । फिर वह दिन भी आया जब शैलेंद्र, राज साहब के जन्मदिन के ही दिन चल बसे !
शंकर दास शैलेंद्र , रेलवे वर्कशॉप में तकनीकी कर्मचारी रहे और वहीं के ट्रेड यूनियन में बेहद सक्रिय थे । एक बार एक काव्यपाठ में राजकपूर ने उन्हें सुना । तुरंत एक ओर ले जाकर अपने लिए गाने लिखने को कहा । पर जा रे जमाना , शैलेंद्र ने यह कह कर मना कर दिया कि मैं अपनी नौकरी में खुश हूँ । इतने साफ़ इंकार के बाद भी राज साहब ने उन्हें अपना कार्ड दिया और कहा कि जब भी जरूरत हो तब आ जाना । बात आई गयी हो गयी । कुछ दिनों बाद शैलेंद्र की पत्नी बीमार पड़ गयी । अपनी जमा पूंजी और दोस्तों से लिए गए उधार भी चुक गए तो शैलेंद्र को राज की याद आयी ।
राज कपूर उस समय बरसात बना रहे थे । उस फिल्म के सारे गाने हसरत जयपुरी ने लिखे थे और बड़ी बात ये थी कि वे गीत रिकॉर्ड हो चुके थे । राज हसरत के पास गए और उन्हें कहा कि मुझे इस नौजवान की मदद करनी है इसलिए मैं तुम्हारे दो गाने काट रहा हूँ । उस फिल्म से हसरत के दो गाने –‘प्रेम नगर में बसने वाले’ और ‘मैं जिंदगी में हरदम रोता ही रहूँगा’ कट गए । उन गीतों का स्थान लिया शैलेंद्र के लिखे ‘बरसात में हमसे मिले तुम सनम तुमसे मिले हम’ और ‘पतली कमर है तिरछी नज़र है’ गानों ने । हम सभी जानते हैं कि ये दोनों गीत कितने लोकप्रिय हुए । यह थी उस दोस्ती की शुरुआत जिसका अंत तीसरी कसम तक आते आते जिस दर्द के साथ हुआ वह किसी ने नहीं सोचा था ।
राजकपूर और शैलेंद्र का ही उदाहरण लें तो भी यह दिखता है कि एक निर्देशक गीतकार को कुछ खास नहीं दे पाता लेकिन गीतकार निर्देशक को बहुत कुछ देता है । उस पर यदि फिल्म निर्देशक खुद ही अभिनेता भी हो तो यह अवदान बहुत अहम हो जाता है । याद करिए शैलेंद्र के लिखे वे गीत जिसने राजकपूर की शख्शियत गढ़ी । यह कल्पना से ही परे लगता है कि यदि शैलेंद्र के गीत – मेरा जूता है जापानी , प्यार हुआ इकरार हुआ , होठों पे सच्चाई रहती है , जीना यहाँ मरना यहाँ आदि नहीं होते तो राजकपूर की जो छवि आज हमारे सामने है वह कितनी खंडित सी रही होती । शैलेंद्र के गीतों ने राजकपूर के अभिनय को भावप्रवण और मासूमियत भरे गानों से लोकप्रिय किया ।
शैलेंद्र बहुत भावुक इंसान थे । इस बात की तसदीक फणीश्वर नाथ रेणु करते हैं । वे अपनी किताब ‘ऋणजल धनजल’ में लिखते हैं कि शैलेंद्र महुआ घटवारिन का किस्सा सुनकर बहुत भावुक हो गए थे । फिर बंदिनी फिल्म आई उसमें उन्होने वह प्रसिद्ध गीत लिखा था – अबके बरस भेजो । रेणु लिखते हैं कि वह गीत रिकॉर्ड होकर आया ही था । शैलेंद्र और रेणु दोनों ही पहली बार सुन रहे थे । गीत कब का खत्म हो चुका था फिर भी रेणु और शैलेंद्र गले लगे हुए हिचकियाँ ले लेकर रो रहे थे । बाद में शैलेंद्र के ड्राइवर ने दोनों को अलग कराया ।
शैलेंद्र गहरे भावबोध के गीतकार रहे । उनके गीतों में व्यर्थ का बिम्ब निर्माण नहीं है न ही अनावश्यक कलाकारी । उनके गीत हमें एक साथ सपाट और अर्थपूर्ण दोनों लगते हैं और दोनों में कोई विरोध भी नहीं रहता । ऐसा बहुत कम गीतकारों के साथ हुआ है । यहाँ तक कि गुलजार के गीतों में भी अनावश्यक बिम्ब विधान भाव को बहुत पीछे धकेलते रहे हैं जिससे गीत का सारा दारोमदार धुन पर आ जाता है । शैलेंद्र किसी भी हालत में गीत का भाव बचाए रखते हैं । जीवन दर्शन से भरा हुआ झूठ न बोलने की हिदायत देता हुआ गीत – सजन रे झूठ मत बोलो कभी बोझिल नहीं लगता ।
शैलेंद्र ने एक ही फिल्म बनाई और उनके पूरे फिल्मी जीवन पर यह फिल्म हावी है । कई बार उनके मूल्यांकन पर भी तीसरी कसम ही छाई रहती है । पर हम कभी भी दो शैलेंद्र नहीं देखते । तीसरी कसम वाला शैलेंद्र और गीतकार शैलेंद्र दोनों एक ही रहते हैं । तभी तो दोस्त की नाराजगी लेकर भी फिल्म का अंत नहीं बदलते , शंकर जयकिशन जैसे संगीतकारों की आपत्ति के बाद भी – ‘रात दसों दिशाओं से कहेगी अपनी कहानियाँ’ में दस के बजाय चार दिशाएँ नहीं करते ।
जब शैलेंद्र का ड्रीम प्रोजेक्ट तीसरी कसम ही सुखांत नहीं थी तो उससे जुड़कर शैलेंद्र का जीवन कैसे सुखद रह सकता था ।
(आलोक रंजन,केरल में अध्यापन, यात्रा की किताब ‘सियाहत’ के लिए भरतीय ज्ञानपीठ का 2017 का नवलेखन पुरस्कार ।)