हसरत मोहानी की पुण्यतिथि पर विशेष
[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]लक्ष्मण यादव[/author_info] [/author]
जंगे-आज़ादी के एक मजबूत सिपाही होने के साथ-साथ एक अज़ीम शायर रहे हसरत मोहानी 13 मई 1951 को इस दुनिया से रुखसत कर गए. ‘ इंक़लाब ज़िंदाबाद ’ का नारा देने वाले हसरत मोहानी हमारे दौर के प्रतिरोध की आवाजों के लिए एक बेहद शानदार शख्सियत हैं.
भारतीय उपमहाद्वीप में आज भी कोई समय सजग युवा किसी छोटे-बड़े विरोध प्रदर्शन में भी शामिल हुआ होगा, एक बार भी किसी अन्याय के खिलाफ़ मुट्ठी तानी होगी, अपने लिए ही सही किसी तरह की सत्ता से टकराया होगा; शायद उसे पता न हो, इस सब में पहली कड़ी होंगे हसरत मोहानी. क्योंकि आज भी प्रतिरोध की सबसे बुलंद आवाज़ है- ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’.
हम सामाजिक-आर्थिक तौर पर आज भी एक गहरी विषमता लिए हुए समाज में रह रहे हैं, जहाँ सत्ता से लगातार टकराते रहना समय की माँग है. ऐसे में बदलाव की हर बयार में एक बुनियादी नारा बुलंद करने के लिए भी हसरत मोहानी हमेशा हमारे क़रीब महसूस होते रहेंगे.
हसरत मोहानी इस देश की साझा सांस्कृतिक विरासत के आकार लेते अध्यायों में एक अहम कड़ी रहे. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे मोहानी श्रीकृष्ण जन्मोत्सव में भाग लेने मथुरा भी जाया करते थे और प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य भी रहे. एक कम्युनिस्ट होकर भी कृष्ण के प्रति लगाव के कारण अक्सर लोग इन्हें दुविधा वाला इंसान समझते हैं.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए ही जंगे-आज़ादी में रूचि लेने वाले मोहानी को कई बार कॉलेज से निकाला गया. लेकिन वे आज़ादी के एक सच्चे सिपाही की तरह लगातार आंदोलनों में बढ़ चढ़कर भाग लिया करते थे. कॉलेज के बाद उन्होंने ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ नाम से एक उर्दू मैगजीन निकालना शुरू किया, जिसमें वे जंगे-आज़ादी की हिमायत में सियासी लेख लिखा करते थे.
अपने दौर की सियासत से गहरे तौर पर जुड़े रहने वाले हसरत मोहानी तबीयत से एक प्रगतिशील इंसान रहे. सीपीआई के संस्थापक सदस्य रहे मोहानी ने 1921 में अहमदाबाद में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा. गांधी तब तक पूर्ण स्वराज की माँग से सहमत नहीं थे, इसलिए मोहानी की यह माँग 1921 के कांग्रेस अधिवेशन में नामंजूर कर दी गई.
हसरत मोहानी के क्रांतिकारी शख्सियत के पीछे एक हरदिल अज़ीज़ शायर भी छुपा बैठा था. ‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाने’ वाले किसी भी मासूम दिल को हसरत मोहानी याद आयेंगे. हसरत ने तमाम युवा धड़कनों को अपनी शानदार भाषा व जुबां को भाने वाले अंदाज़ में पिरोकर तमाम गज़लें कहीं. ‘हसरत’ बहुत है मर्तबा-ए-आशिक़ी बुलंद; तुझ को तो मुफ़्त लोगों ने मशहूर कर दिया ’ या ‘ दिल में क्या क्या थे अर्ज़-ए-हाल के शौक़; उस ने पूछा तो कुछ बता न सके. हम तो क्या भूलते उन्हें ‘हसरत’, दिल से वो भी हमें भुला न सके’ जैसे तमाम शे’र लिखने वाले हसरत एक कोमल दिल रखने वाले युवा बनकर जब लिखते हैं, तब यह देखना कितना दिलचस्प हो जाता है कि एक भावुक मन कितना संवेदनशील भी हुआ करता है.
हसरत मोहानी को आज के दौर में कमोबेश बिसरा सा दिया गया है. हम अपने अतीत की उन कड़ियों को सहेजने में चूकते जा रहे हैं, जहाँ साझा सांस्कृतिक विरासतों के साथ एक समय सजग प्रगतिशील शख्सियत हमारे दौर की लड़ाइयों तक को धार दे सकता है. ऐसे में हसरत मोहानी एक अग्रणी नाम होंगे. सामाजिक-सांस्कृतिक विषमता वाले समाज में जब तक प्रतिरोध की आवाज़ें ज़िंदा हैं, तब तक इंक़लाब का ख्वाब भी देखा जाता रहेगा. जब जब इंक़लाब की बात होगी, हसरत मोहानी जिंदाबाद रहेंगे.
“ वो चुप हो गए मुझ से क्या कहते कहते
कि दिल रह गया मुद्दआ कहते कहते ”
[author] [author_image timthumb=’on’]http://samkaleenjanmat.in/wp-content/uploads/2018/05/Laxman-Yadav.jpg[/author_image] [author_info]लक्ष्मण यादव, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं और सामाजिक न्याय के मुद्दों से जुड़े कार्यकर्ता हैं।[/author_info] [/author]