( तस्वीरनामा की दूसरी कड़ी में पूरी जिंदगी जनता के सुख-दुःख, जय-पराजय और श्रम-संघर्ष को अपने चित्रों से चित्रित करने वाले चित्रकार चित्तप्रसाद द्वारा बाल श्रमिकों पर बनाये गए चित्र श्रृंखला ‘ जिन फरिश्तों की कोईं परिकथा नहीं ‘ से हमें परिचित करा रहे हैं प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक )
चित्तप्रसाद (1915 -1978) एक ऐसे विरल चित्रकार थे जो पूरी जिंदगी जनता के सुख-दुःख, जय-पराजय और श्रम-संघर्ष को अपने चित्र में चित्रित करते रहे. बंगाल के महा अकाल के समय (1943), उनके मार्मिक चित्रों ने पूरे देश को अकाल की भयावहता से परिचित कराया था. आज़ादी के पहले जहाँ उन्होंने मूलतः किसान , मज़दूर और छात्रों के आन्दोलनों के प्रचार-प्रसार के लिए असंख्य चित्र बनाये, वहीं 1950 के बाद उनके द्वारा बनाये गये चित्रों ने उन्हें भारत के सबसे महत्वपूर्ण मानवतावादी चित्रकार के रूप में स्थापित किया.
इस दौर में,’ जिन फरिश्तों की कोईं परिकथा नहीं ‘ शीर्षक से उनकी चित्र श्रृंखला में उन्होंने बाल श्रमिकों और समाज के उपेक्षित मासूम बच्चों के जीवन पर अनेक चित्र बनाये. इस श्रृंखला के सभी चित्र लीनोकट माध्यम से बने छापा चित्र हैं।
‘ जिन फरिश्तों की कोई परिकथा नहीं ‘ के सभी चित्रों में हम चित्रकार को श्रम में डूबे बच्चों के बहुत करीब पाते हैं. इस श्रृंखला के एक चित्र ‘ बीड़ी-मज़दूर ‘ (चित्र 1) में एक छोटे से कमरे के अंदर हम तीन बच्चों को बीड़ी बनाते हुए देखते हैं. ये तीनों मज़बूर बच्चे न केवल कम उम्र के ही हैं बल्कि लम्बे समय से काम करते हुए उनमें से एक के पीठ पर कूब निकल आयी है.
चित्तप्रसाद ने इस कमरे को एक कम रौशन कमरे के रूप में चित्रित किया है, जहाँ हवा के आने जाने के लिए बस एक ही छोटी खिड़की है. इस कमरे के छोटी से छोटी चीज़ों को चित्तप्रसाद ने अपने ‘ विवरण ‘ में शामिल करते हुए ऐसे घुटन भरे कमरे में बीड़ी सेंकने के लिए अंगीठी को भी चित्रित किया है जिस पर बीड़ी के कई बंडलों को सेंका जा रहा है. इस चित्र में तीनों बच्चें अपने नन्हे-नन्हे हाथों से बीड़ी बना कर अपने गोद पर रखे सूपों पर बीड़ियों को बाँध कर कतार में रख रहे हैं. फर्श पर, बीड़ी के निश्चित और समान आकार के लिए , कुछ फर्मों के साथ साथ फर्श पर एक कैंची को भी हम देख पाते हैं. कमरे के घुटन के साथ साथ बच्चों की एकाग्रता के चलते, दर्शक पूरे चित्र में एक ठहरी हुई ख़ामोशी को महसूस कर पाता है.
इन तीन बाल श्रमिकों के प्रति अपने सघन प्रेम और सहानुभूति के चलते चित्तप्रसाद इस साधारण से लगने वाले काले-सफ़ेद चित्र को एक असाधारण कृति की ऊँचाई तक ले जा पाते हैं , जहाँ उन बच्चों की मेहनत से कमाई हुई रोटी पर वे एक चूहा अपना दाँत गड़ाते हुए दिखाते हैं (चित्र 2).
चित्तप्रसाद के इस दौर के चित्रों में बार बार उन विषयों और परीस्थितियों को चित्रित करते हैं, जिसे हम प्रायः देख कर भी नहीं देख पाते हैं. हममें से तमाम लोग नहीं जानते कि रात को जब सड़क किनारे के होटल का चूल्हा बुझा कर, होटल मालिक अपनी दुकान बढ़ा लेता हैं तब सारे दिन के जूठे बर्तनों के ढेर को धोये बगैर उस होटल में काम करने वाले बच्चे को छुट्टी नहीं मिलती. चित्तप्रसाद ने बेहद मार्मिक ढंग से उस अकेले बच्चे को , गहराते रात में जब कुत्ते भौकते हैं और जब हवा के झोंके कुर्सी पर धरी ढिबरी की तिरछी लौ को बुझाने पर तुल जाती हैं ; होटल के जूठे बर्तनों के अम्बार के बीच बैठे दिखाया है (चित्र 3).
इस चित्र में बच्चा धुले हुए बर्तनों को धो कर उन्हें पोंछ कर एक किनारे करीने से रख रहा है पर अभी भी बहुत बर्तन धोने बाक़ी रह गए हैं , अभी भी इस बच्चे को देर तक काम करना होगा.
चित्तप्रसाद ने इस चित्र में इस अकेले बच्चे के एकाकीपन को लगभग डरवाना बना दिया है. इस चित्र के विभिन्न पहलुओं को गौर से देखने से यह साफ़ पता चलता है कि यह चित्र, किसी चित्रकार की महज कल्पना से रचना शायद संभव नहीं हैं. चित्तप्रसाद इस दौर में मुंबई में अपने घर के आस पास की बस्तियों के बच्चों के साथ कठपुतली और नाटकों पर काम कर रहे थे और जिसके कारण इस चित्र में चित्रित होटल वाले बच्चों जैसे पात्र उनके अपरिचित नहीं थे. चित्तप्रसाद एक बार फिर इस चित्र में अपनी ममता और पैनी नज़र का परिचय देते हुए होटल के फर्श पर रेंगते तिलचट्टों को दिखाते है (चित्र 4), जो इस चित्र को और भी ज्यादा मार्मिक बनाता है.
चित्तप्रसाद ने बच्चों पर अपने ऐसे चित्रों के ज़रिये, भारतीय चित्रकला में एक अछूते और अँधेरे में डूबे हुए पक्ष को रौशन किया। देवी-देवताओं और राजा-रानियों सें भरे हमारी कला के इतिहास में पहली बार चित्तप्रसाद छोटे छोटे बच्चों की उपस्थिति दर्ज़ करते हैं. और ऐसा करते हुए वे कतई उनकी बेहतर जिंदगी की काल्पनिक चित्र नहीं रचते बल्कि उनके दुःख-दर्द के यथार्थ चित्रण के जरिये उनकी बदहाली और शोषण के इस हालात को बदलने के लिए आह्वान करते हैं.
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