अनुराग शुक्ला
वो लोग बहुत खुशकिस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा या
इश्क़ से काम उलझता रहा
आखिर में तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया।।
आज फ़ैज़ साहब की जयंती है सो हम रेडियो दिवस की बात को भी उनकी नज़्म से शुरू करते हैं। दुनिया में काम से आशिक़ी करने वाले कभी कम न थे और नौ साढ़े नौ बजते बजते वो गमे रोजगार पर निकल लेते थे। और हमारे जैसे जिनकी न काम करने की उम्र थी और न इश्क़ करने की वो रेडियो पर कान जमा देते थे जो बता रहा होता था झामू सुगंध पेश करते हैं….और फिर फ़िल्म के नाम के साथ गाना बजने लगता था। फिर भरतशाह कुछ पेश करते थे और फिर एक गाना।
हम इस चिंता में घुले जाते थे कि विविध भारती वाले अभी सभा समाप्त करके निकल लेंगे ।तभी चचा आ जाते थे और आवाज़ देते थे अरे यार मैच लगाओ….। उनका मैच के प्रति प्रेम भरा आग्रह देख रेडियो पर बज रहा -तुमको देखा तो ये जाना सनम,प्यार होता है दीवाना सनम, आत्महीनता का शिकार हो जाता था। चचा को शायद मालूम था कि यूनेस्को वाले एक दिन रेडियो और खेल को रेडियो दिवस की थीम बनाएंगे और उनका शाहरुख और काजोल के प्रति उपेक्षा का यह भाव कालजयी हो जाएगा।
तो यह उन दिनों की बात है जब सरदियाया हुआ दिन जैसे तैसे आंख मिचमिचाकर उठ बैठता था। और ऊन के गोलों की तरह खुलने लगता था। मोहल्ले की औरतों की सलाइयां सर्दी की ऊब को रचनात्मक बुनकरी देने लगती थीं और क्रिकेट के पुराने शौकीन चचा के साथ हमारे जैसे मैच के इंतज़ार में सुगम संगीत का भी आनंद लिया करते थे ताकि कॉमेंटेटर हमें यह कहकर नीचा न दिखा सके कि जिन श्रोताओं ने अपने रेडियो सेट देर से खोले हों….।
तब इमरान भी दुनिया के शायद सबसे बेहतरीन आलराउंडर थे और हम भी कुछ ज्यादा ही क्रिकेट के शौकीन थे। वसीम अकरम उनको इमरान भाई कहते थे और हम कहते थे इमरनवा। लेकिन वक्त के साथ हम दोनों ने अपने पेशे बदल दिए। वो सियासी हो गए और खबरनवीस हो गए। इमरान का रन-अप थोड़ा लंबा था,लेकिन हमें ये नहीं पता था ६० साल से ऊपर निकलने के बाद वे इतना लंबा रन अप लेंगे कि मंझे हुए सियासी बल्लेबाज नवाज शरीफ को स्टांस भी नहीं लेने देंगे।
खैर हम आपको इमरान के बारे में नहीं इमरान के बहाने याद आ गए रेडियो कमेंटरी वाले जमाने की बात बताना चाह रहे हैं। जैसे ही मीडियम वेव की फ्रीक्वेंसी पर सवार होकर महिला स्वर प्रकट होता था और बताता था कि अब हम आपको बंबई के वानखेड़े स्टेडियम ले चलते हैं जहां से आप सुनेंगे फलां-फलां देशों के बीच खेले जा रहे एक दिवसीय या पांच दिवसीय मैच का आंखों देखा हाल। वैसे ही बाराबंकी के उस मोहल्ले के लौंडे जा जी ले अपनी जिंदगी टाइप का महसूस करने लगते थे। इसके बाद कभी सुरेश सरैया बताने लगते थे -हेयर इजी सनी डे. तो कभी मुरली मनोहर मंजुल महाकवि माघ की तरह प्रभात वर्णन करने लगते थे। सुबह की गुलाबी धूप पूरे मैदान पर बिखरे हुई है। मैदान पर बिखरी हुई ओस की बूंदों से खेलती सूरज की किरण अद्भुत नजारा पैदा कर रही हैं। और फिर वही जिन श्रोताओं ने अपने रेडियो सेट देर से — इतना कहते ही चचा उखड़ जाते थे और कहते थे- अरे, यार इनकै मौसम के हाल खत्म होई की नाही,हम टाइम से पहिलेन से रेडियो खोले हन। और अगर अंग्रेजी चल रही हो तो वो ऊंघते रहते और उनकी तंद्रा तभी टूटती जब वे कुछ अंक वगैरह सुनते थे। उन्हें लगता कि शायद स्कोर बताया है।
अब जब मैच शुरु हो जाता था और मंजुल जी बताते थे कि दर्शकों की करतल ध्वनि के बीच श्रीकांत और अरुण लाल पैवेलियन से मैदान की ओर आ रहे। भारत के दोनों सलामी बल्लेबाजी ने दर्शकों का अभिवादन किया। और हमसे दूर वाले छोर से अपने लंबे रन अप पर भागते बालर फलां…इतने देर तक चचा अपनी सारी इनि्द्रयों की ताकत कानों में भर लेते थे और बीच में जब मंजुल बोलते थे और पगबाधा की जोरदार अपील, लेकिन अंपायर पर कोई फर्क नहीं,गेंद विकेटकीपर के सुरक्षित हाथों में। ऐसा लगता था बाकी खिलाड़ी गेंद के दुश्मन हैं और विकेट कीपर के हाथों में ही जाकर वो सुरक्षित महसूस करती है। चचा तत्काल ही अवधी में विश्लेषण करते थे- अरे,यार, अरुण ललवा बहुत बैकफुट पर खेलत है यार ई एलबीडब्लू होई या तो काट बिहाइंड जाए। जैफ डुजोनवा कैच थोरो छोड़ि।
अंग्रेजी आते ही चचा अपनी सारी कान वाली ताकत को ट्रांसफर कर आंखों में कर लेते थे औऱ ऊंघने लगते। हमसे कहते थे -अरे यार थोड़ा आवाज बढाव। दरअसल इसके बाद वो शोर के सहारे कमेंटरी सुनते थे। जैसे ही कमेंटेटर साहब तेजी से बोलने लगते। चचा कहते-का,भा। हम कहते श्रीकांत चौव्वा जड़िस। चचा कहते-अच्छा। कितने पे पहुंचे श्रीकांत २३,दुई चौव्वा। औ अरुण लाल। ०७ रन। अरे यार बहुत धीमे खेलत है अरुण ललवा। का, स्कोर भा। चौतीस। अरे यार इक्सट्रव नहीं मिल रहे हैं। तभी आवाज़ आतीअंपायर डिक्लेयर्ड नौ बाल। चचा एकदम से जाग उठते और कहते अरे एक ओवर मा नौ बाल। हम कहते अरे नहीं कहि रहा है नो बाल। अंग्रेजी मा उच्चारण ऐसेन होत है। चचा कहते- कटहर ऐसन होत है अरे नो बाल तो नो बाल, उमा नौबाल का मतलब। अंग्रेजी कमेन्ट्री का कुछ मतलब बता हम चचा से कपिल देव या इमरान में से किसी एक का पोस्टर मांगा करते थे जो उन्होंने किसी दूसरे की क्रिकेट सम्राट से उड़ाए होते थे। वो हमें फुसला देते थे-तुमका हम वसीम अकरम का बढ़िया पोस्टर देब। वैसे अकरम का एक पोस्टर हमारे पास था जिसे हम कभी दीवार पर लगा न पाए क्योंकि पोस्टर चिपकाना कुछ बिगड़ सिगड जाने में शुमार किया जाता था।
जब वेस्टइंडीज से मैच होता था। और हेंस और ग्रीनिज विधाता से यह लिखवाकर आते थे कि हम ऑउट नहीं होंगे। तो जैसे एक अकेले गान्ही जी वैसे हम भी एक अकेले कपिल देव…की गुहार लगाया करते थे। जब बहुत देर हो जाती थी तब मोहल्ले का कोई लड़का भद्दी सी गाली देकर कहता…..ई साला…ग्रीनिज आउट हो जाए तो 51 रुपये की डाली धनोखर के हनुमान जी पर चढ़ाई। 51 रुपये तब बड़ी रकम होती थी । सारे हंस देते तो लड़का समझ जाता लंबी फेंक दी। बचाव में कहता पैसा चचा देंगे। चचा तुरंत राष्ट्रभावना और खेल भावना में संतुलन साधते और कहते खेल में हनुमान जी का न घुसेडो। तभी हेंस बोल्ड हो गए और मैच से ऊब पतंग उड़ाने में लग गए एक लड़के ने मारे खुशी के चरखी ही फेंक दी। जैसे उसी की अपील पर अंपायर को आउट देना है। पतंग चरखी जिसकी थी उसने ठीक ठाक गालियां दी लेकिन फेंकने वाले ने हेंस की तरह एकाग्रता नहीं खोई और मुरली मनोहर मंजुल की बात ध्यान से सुनता रहा-विंडीज को बड़ा झटका। भारतीय खेमे में उत्साह। स्टैंड्स में भी एक तरंग का संचार हुआ है।जब गलियों का लंबा स्पेल खत्म हुआ तो एक्सपर्ट प्रतिक्रिया आई। ग्रीनिज और निकल जाये बस। चाचा ने लंबी सांस ली और बोले-हां ग्रीनिज हलवा आय।
ये तो शहरी चुड़क्कापन। गांव की टिमटिमाती लालटेनो और ढिबरियों कि रोशनी में भी खेल जगत में पता चल जाता था कि इवान लेंडल के सारे तीर निशाने पर लग रहे हैं। तब अख़बारों में भी टेनिस की कवरेज कम होती थी । हमने तो सेंट्रल कोर्ट का फोटो भी नहीं देखा था लेकिन खेल जगत की बातों को थोड़ा काल्पनिक विस्तार दे लोगों को बताया करते थे कि लेंडल ने विम्बलण्डन कैसे उठा लिया। फैन नहीं थे, फैन होने की कोई उम्र भी नहीं थी लेकिन हम स्टेफी ग्राफ के तरफदार थे। चचा को चूंकि हमारी उल्टी बात करनी थी सो वो मोनिका सलेस के तरफदार हो जाते थे। फिर केवल रेडियो पर सुनी बातों के सहारे दोनों के खेलने के स्टाइल पर बहस भी कर लेते थे। रेडियो कमेन्ट्री इतनी सुरीली लगती थी कि उसे ऐसे ही स्कूल में भी दोहराया करते थे। और अब गेंद परगट के पास। एक को डॉज किया,दो को डॉज किया। परगट तेजी से आगे बढ़ रहे हैं …। अंतर्मुखी टाइप के हम जैसे में साथियों को यही गुण दिखता था। एक बार कमेन्ट्री के फरमाइशी कार्यक्रम में गुरुजी ने धर लिया। गुरुजी अवगुण चित्त न धरते थे। सो माफ किया और कहा बस कमेन्ट्री सुना दो..हम शुरू हो गए।
कपिल एक बार फिर अपने लंबे बॉलिंग रन अप पर । रिवर एन्ड से उनका दूसरा स्पेल। कपिल…गुड लेंथ स्पॉट पर टप्पा खाने के बाद गेंद अंदर की तरफ घूमी। बल्लेबाज़ ने बैट पैड को साथ ला गेंद को पूरा सम्मान दिया।
तो रेडियो का ये सम्मान बना रहे।
जय रेडियो। जय खेल।
[author] [author_image timthumb=’on’]http://samkaleenjanmat.in/wp-content/uploads/2018/02/anurag-shukl.jpg[/author_image] [author_info]पत्रकार अनुराग शुक्ल की स्कूली शिक्षा बाराबंकी और पत्रकारिता की पढ़ाई इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से हुई . अनुराग ने साहित्य की कथा विधा में भी कोशिश की है और उन्हें 2007 में कथादेश पत्रिका द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कहानी लेखन में द्वितीय पुरुस्कार भी हासिल हुआ . अनुराग फ़िलहाल मेरठ शहर में रहते हैं . संपर्क : anurag9feb@gmail.com और 9756217911.[/author_info] [/author]
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