मेंहदी हुसैन
तन्ज़, मज़ाह और ज़राफत की शायरी का मैदान कोई आसान मैदान नहीं है। इस मैदान में सिर्फ एक साहबे नज़र, साहबे मुशाहेदा, पुर हौरला और अपने अन्दर एहतेजाज की लतीफ सलाहियत रखने वाले शायर ही कामियाब होते हैं। अकबर अलाहाबादी तन्ज़ व मज़ाह के कामियाब शोअरा में से कामियाब तरीन शायर हैं।
अगर अकबर अलाहाबादी की शायरी का मुतालिया किया जाए तो ये बात साबित होने में देर नहीं लगेगी कि अकबर अलाहाबादी ने अपने आपको तन्ज़ व मज़ाह के बीचो-बीच मैदान में काएम करके चौतरफा एहतेजाजी हमले किये हैं।
इसकी वजह ये कि जिस अहद में अकबर अलाहाबादी नें आंखें खोलीं यानी सन 1846 में, उस दौर का हिन्दुस्तान एक बेहद अफरा-तफरी के आलम से गुज़र रहा था। बरतानिवी हुक़ूमत की बढ़ती ताक़त, उसके ज़ुल्म, अपनों की बदहाली और कुछ न कर सकने की छटपटाहट। अकबर साहब को बरतानिवी हुक़ूमत से ज़्यादा मग़रबी तहज़ीब से ख़तरा नज़र आ रहा था जो हमारी तहज़ीब पर यलग़ार किये जा रही थी। अकबर साहब के वो तन्ज़िया अशआर, जिसमें उन्होंनें कॉलेज और कॉलेज की ताअलीम के नक़ाएस पर निशाना साधा है, सरसरी नज़रिये से देखने पर कुछ पुराने ख़्याल से नज़र आते हैं। लेकिन अगर ग़ौर व फिक्र किया जाए तो अकबर साहब के यही अशआर हाल के एजुकेशन सिस्टम पर खरे उतरते हैं। जैसे उनका एक शेर है कि-
यूं क़त्ल से बच्चों के वो बदनाम न होता।
अफसोस कि फिरऔन को कॉलेज की न सूझी।।
अकबर के दौर में इस शेर ने एक बड़े तबके को ज़रुर परेशान किया होगा लेकिन वो एक सदी पहले ही इस एजुकेशन सिस्टम के मुस्तक़बिल को भांप चुके थे। क्या आज इस एजुकेशन सिस्टम में इतनी सक़त बाक़ी रह गयी कि वो मुआशरे के लिए एक रहनुमा पैदा कर सके, जो आज के फिरऔन के मद्दे मुक़ाबिल आए। इसी ज़ाविये में अकबर साहब का एक और शेर है कि-
हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले ज़ब्ती समझते हैं।
कि जिनको पढ़के बच्चे बाप को ख़ब्ती समझते हैं।।
अकबर के दौर ने उनके इस शेर को किस नज़रिये से लिया नहीं कह सकता, लेकिन हमारे दौर के एजुकेशन सिस्टम पर इससे ख़ूबसूरत तन्ज़ और क्या होगा, कि जब हम अपने गुज़रे हुए कल से कोई सरोकार रखना पसन्द ही नहीं करते और हर पुरानी शै को बेहूदी, बेतुकी और लाएक़े मज़ाक समझते हैं। जबकि ये एक तारीख़ी हक़ीक़त है कि बिना माज़ी से सबक़ लिये हाल व मुस्तक़बिल संवारा नहीं जा सकता। इस एजुकेशन सिस्टम से मुआशरे पर क्या असर पड़ेगा ये बात वो यूं कहते हैं कि-
क्या कहें अहबाब क्या कारे नुमायां कर गए।
बी. ए. किया, नौकर हुए, पेन्शन मिली और मर गए।।
उस दौर का बी.ए. आज के इन्जीनियर या डॉक्टर के बराबर होता था। इस शेर में अकबर उस ढर्रे वाली ज़िन्दगी पर तन्ज़ करते हुए नज़र आ रहे हैं जो हमारे मुआशरे का मेयार बन चुकी है। जब हम इस भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में ठहर कर अपने आस-पास देखना पसन्द नहीं करते और हम जी रहे हैं सिर्फ मरने के लिये।
अकबर अलाहाबादी जिस दौर में मग़रिबी ताअलीम पर ऐसे चुभते और गहरे तन्ज़ कर रहे थे उसी दौर में सर सयद अहमद ख़ां इंगलिश ताअलीम का प्रचार कर रहे थे और मोआशरे में एक नई जोत जलाने की सई कर रहे थे। सर सयद की फिक्र यक़ीनन लाएक़े ताज़ीम है। लेकिन अकबर की जो पैनी नज़र देख रही थी उसे समझने के लिए अकबर सी फहम का होना ज़रुरी था। दरअसल अकबर जिन नका़एस की तरफ इशारा कर रहे थे ख़ुद मग़रिबी तालीम भी तो उससे दो-चार हो रही थी।
अकबर को मग़रिबी ताअलीम से कोई बैर नहीं था, बल्कि उस एजुकेशन सिस्टम से था कि जिसकी चपेट में ख़ुद मग़रबी ताअलीम भी थी। शायद अकबर अलाहाबादी इस एजुकेशन सिस्टम के जो नक़ाएस देख रहे थे उसे मग़रिबी तालीम का एक जुज़ मान बैठे थे। इसीलिये वो सर सयद से किसी भी हाल में इत्तेफाक़ नहीं रखते थे। अकबर का शेर है कि-
सयद उट्ठे जो गज़ट लेके तो लाखों लाए।
शेख़ कुरआन दिखाता फिरा पैसा न मिला।।
इस शेर में अकबर कुछ पुराने ख़्याल के ज़रुर नज़र आते हैं। लेकिन अकबर हरगिज़ दकियानूसी ख़्याल के नहीं थे, और न ही उन पर कभी मुल्लाओं का असर हुआ, बल्कि वो इस क़ौम को किस नज़रिये से देखते थे, उन्ही के एक शेर में देखें कि-
उफ ये अय्यारियां उफ ये मक्कारियां।
लोमड़ी न हुई मोलिवी हो गयी।।
अकबर अलाहाबादी ने मदरसे की तालीम ली, मुख़तारकार हुए, वकालत पास किया और अलाहाबाद हाई कोर्ट में जज के उहदे पर फाएज़ भी हुए, ख़ान बहादुर और लिसानुल अस्र के खि़ताब से नवाज़े गए। अकबर अलाहाबादी को सिर्फ अपनी तहज़ीब और समाज से मोहब्बत ही नहीं थी बल्कि वो इसकी बक़ा व बहबूदी के लिये फिक्रमन्द भी रहते थे। वो जानते थे कि हमारे समाज का अगर कोई सबसे बड़ा फितना है तो वो है फिरक़ावाराना सोच। इसीलिये वो किसी एक मज़हबी फिक्र के साचे में न फंसकर हर मज़हबी फिक्र को एक नज़र से देखा और बराबर की अहमियत दी। वो अपने बारे में कहते हैं कि-
अकबर का दीन व मज़हब क्या पूछती हो मुन्नी।
शीया के साथ शीया सुन्नी के साथ सुन्नी।।
अपने मोआशरे की इस ख़ामी को अकबर अच्छे से समझते थे कि अपने को बेहतर और दूसरों को बदतर साबित करना ही हमारे मुआशरे का अहम मशग़ला है-
अपनी ख़राबियों को पसे पुश्त डालकर।
हर शख्श कह रहा है ज़माना ख़राब है।।
अकबर एक दीनी फिक्र के इन्सान ज़रुर थे लेकिन मज़हबी हरगिज़ नहीं और न ही वो मज़हबी बहस को पसन्द करते थे। वो एक शेर में कहते हैं कि-
मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं।
फालतू अक़्ल मुझमें थी ही नहीं।।
अगर मैं ये कहूं तो बेजा होगा कि अकबर उन्नीसवीं सदी में इक्कीसिवीं सदी के शायर थे। लेकिन ये भी हक़ीक़त है कि इस सदी ने अकबर को वो मुक़ाम नहीं दिया है जो उनका हक़ है। और दे भी कैसे कि जिस दौर में हैवानियत वतन परस्ती का सबूत हो, उस दौर में भला अकबर अलाहाबादी को कौन याद करे।
[author] [author_image timthumb=’on’]http://samkaleenjanmat.in/wp-content/uploads/2018/02/menhdi-hasan.jpg[/author_image] [author_info]मेंहदी हुसैन कहानीकार, रंगकर्मी और मर्सियाखान हैं. यूपी के अमेठी जिले के जायस में रहते हैं. उनसे 7084604301, 9918912367 संपर्क किया जा सकता है. [/author_info] [/author]
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