समकालीन जनमत
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गज़ा की यह लड़ाई जिंदा रहने की जद्दोजहद है

फरहत मंटू

 ( मेडिसिन्स सैन्स फ़्रंटियर्स (डॉक्टर्स विदाउट बोर्डेर्स) की कार्यकारी निदेशक फरहत मंटू का यह लेख ‘ द हिन्दू ’ में पाँच अक्टूबर को प्रकाशित हुआ। समकालीन जनमत के पाठकों के लिए इस लेख का हिंदी अनुवाद दिनेश अस्थाना ने किया है। )

10 फरवरी 2024 की तारीख थी। दिनोंदिन खंडहर हो रहे उत्तरी गज़ा में अब्दुल अपने परिवार के लिए खाना जुटाने की उम्मीद में घर से बाहर निकला था। बाद में उसने पूरी घटना याद करते हुए मेरे सहयोगी को बताया था, “ मैं अपनी माँ को कुछ नमक या आटा ला कर चौंका देना चाहता था।“ पर ज्यों ही उस 15 साल के बालक ने खाली पड़े घरों के बीच से दौड़ लगाई, इसराइली हवाई हमले से वह बुरी तरह घायल हो गया। उसके पैर के चीथड़े उड़ गए थे। अब्दुल उसी अफरातफरी में अपने चारों तरफ मिसाइलों की बरसात के बीच एक घंटे से अधिक रेंगता रहा। एकदम तन्हा और खौफजदा, मदद के लिए उसकी चीख-पुकार किसी के कान तक नहीं पहुँच रही थी। अचानक किसी के कानों में उसकी चीख पड़ ही गई और उसने उसे नजदीक के फिलहाल काम करने वाले अस्पताल तक पहुंचा दिया। पर उस बालक की तकलीफ़ों में वहाँ भी कोई कमी नहीं आई, उसी की तरह के चीथड़े बदन लिए लोगों से अस्पताल भरा हुआ था, जरूरी सामानों की कमी के चलते डॉक्टरों को अब्दुल का ऑपरेशन बिना एनस्थेसिया के ही करना पड़ा।
गज़ा में आपात-सर्जरी करा लेने के बाद अब्दुल उन कुछ ख़ुशनसीब फिलिस्तीनियों में था जिन्हें बीमार होने के चलते पहले मिश्र में और उसके बाद अम्मान, जॉर्डन के एमएसएफ (डॉक्टर्स विदाउट बोर्डेर्स) के रिकन्स्ट्रक्टिव सर्जरी हॉस्पिटल में भेजा गया। सात महीने बाद अब वह बैसाखी के सहारे चलना सीख रहा है।

दुर्भाग्य यह है कि अब्दुल की कहानी हजारों में से सिर्फ एक की है। ‘ सेव द चिल्ड्रेन ’ के अनुसार गज़ा पर इस्राइली हमले के पहले तीन महीनों में ही रोजाना औसतन 10 से अधिक बच्चों ने अपने एक या दोनों पैर गँवाए हैं। जैसी हौलनाक और तकलीफदेह कहानी अब्दुल की है, वैसी बहुत कम कहानियाँ हैं जिनका अंत आशापूर्ण है; वह अभी भी जिंदा है और उसका इलाज़ चल रहा है।

गज़ा का डरावना सच

इस्राइली नाकाबंदी, जिसने 16 साल से गज़ा का दम घोंट रखा है, पिछले 12 महीनों में एकदम से भयानक दु:स्वप्न में बदल चुकी है। अक्तूबर 2023 से अब तक 41,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार 12,000 लोग ऐसे हैं जिन्हें इलाज़ के लिए तुरंत बाहर निकालना जरूरी है। पर विडम्बना यह है कि जितने मरीजों को बाहर निकालने का आवेदन किया गया था उसके सिर्फ 41% लोगों के लिए इस्राइल ने अपनी सहमति दी है। यह केवल बाहर निकालने की चुनौती नहीं है, वरन यह स्वास्थ्य के आधारभूत मानवाधिकार का उल्लंघन भी है। अब्दुल की तरह ही वो खुशनसीब लोग, जिन्हें बाहर निकाल लिया गया है, उनके भी जिंदा रहने का मतलब है महीनों का दर्दभरा इलाज़- यह एक ऐसी ऐय्याशी है जो गज़ा में अब भी फंसे लोगों को मयस्सर नहीं है। हजारों जलावतन लोगों को इलाज़ मुहैया नहीं है क्योंकि अस्पताल खंडहर हो चुके हैं, आमदरफ्त रुकी हुई है, और ज़मीन पर हालात बहुत ही खतरनाक हैं।

इस हिंसा से गज़ा में लोगों के स्वास्थ्य और वहाँ की आधारभूत संरचना का जो हश्र हुआ है उसे हम लोग जन्म से ही देख रहे हैं। वहाँ के 36 अस्पतालों में से 17 बर्बाद हो चुके हैं। 500 से ज्यादा हमले स्वास्थ्य सुविधाओं पर ही हुए हैं जिनके चलते बहुत जरूरी सेवाएँ देना भी संभव नहीं हो पा रहा है। हमारी टीमों ने मरीजों को अस्पतालों के फर्श पर मरते देखा है क्योंकि जी-जान से जुटे कर्मचारी भी घायलों की उमड़ती भीड़ को संभालने में हांफ रहे हैं। जरूरी सामान जैसे कि एनेस्थीशिया के लिए ऑक्सीज़न कनसेंट्रेटर, सर्जरी के लिए जरूरी सामान और जेनेरटर या तो देर से मिल रहे हैं या इस्राइली अधिकारी बार-बार उनकी आपूर्ति रोक दे रहे हैं। इन जरूरी सामानों के बिना जान बचाने की सर्जरी लगभग असंभव हो गई है, नतीजतन हजारों लोगों की मौत हो चुकी है।

ज़ेहनी ज़ख्म

जंग का असर सिर्फ जिस्मानी नहीं हुआ है- बल्कि गज़ा के लोगों के ज़ेहन भी बहुत गहरे तक बिंध चुके हैं। अब्दुल और 17 साला करीम, जिसके परिवार के 13 लोग हवाई हमले में मौत के घाट उतर गए थे और वह खुद बुरी तरह जल गया था, जैसे बच्चे ज़ेहनी तौर पर और जिस्मानी तौर पर भी खौफजदा हैं। यूनिसेफ की मानें तो गज़ा के दस लाख से ज्यादे बच्चों को फौरी तौर पर ज़ेहनी सहारे की जरूरत है। हांलाकि इन बच्चों की मदद करने और उनकी स्वास्थ्य संबंधी देखभाल के लिए लोग रात दिन लगे हुए हैं, फिर भी लगातार जारी बमबारी, उनसे होने वाली मौतें, बरबादी, लोगों का घर छोड़कर भागते फिरना, यह सब देखने के बाद भी वे बच्चे जो इन हमलों की क्रूरता से अपनी किस्मत से बच जाएंगे, कई दहाइयों तक इसके असर में मुब्तिला रहेंगे।

अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी क़ानूनों का उल्लंघन

गज़ा में जारी हिंसा और इस्राइली नाकाबंदी अंतर्राष्ट्रीय मानवतावादी क़ानूनों का खुला उल्लंघन है, इसके सिद्धांतों का पूर्ण नकार और हनन है। फौरी और आगे भी जारी रहनेवाली युद्धबंदी ही गज़ा की दम तोड़ती चिकित्सा व्यवस्था और मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति का एकमात्र समाधान है। अन्यथा और भी जानें जाएंगी और यह युद्ध हमारे सामूहिक विवेक पर एक और अमिट दाग छोड़ जाएगा।

सभी पक्षों को गज़ा में मानवीय सहायता पहुँचाने के लिए सुरक्षित मार्ग देने की गारंटी देनी होगी, इसके लिए जरूरी है कि रफ़ाह समेत सारी जमीनी सीमाएं खोल दी जाएँ। इसी प्रकार यह भी जरूरी है कि जिन मरीजों का जीवन इसी सहायता पर निर्भर है उन्हें और उनके तीमारदारों को तुरंत वहाँ से निकाला जाय। सारे मरीजों और उनके तीमारदारों की गज़ा में सुरक्षित और सम्माननीय वापसी सुनिश्चित की जाय।
अब्दुल की कहानी केवल एक आंकड़ा है- इस युद्ध के वास्तविक मानवीय मूल्य की यह एक खौफनाक याददिहानी है। किसी भी बच्चे को अपनी जान बचाने के लिए खंडहरों में रेंगने के लिए मजबूर नहीं होना चाहिए, लेकिन हजारों फिलिस्तीनी बच्चों को इस अकल्पनीय खौफ से गुजरना ही पड़ रहा है। गज़ा की पीड़ा खत्म होना लाज़मी है। विस्थापित लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच बहुत जरूरी है, जिंदा रहने और अपने जीवन का पुनर्निर्माण करने के लिए उन्हें इसकी सख्त जरूरत है। यह केवल एक मानवीय मुद्दा नहीं है। पूरी दुनिया यही चाहती है।

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