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अनुज लगुन की नई कविताएँ : रोटी के रंग पर ईमान लिख कर चलेंगे

अनुज लुगुन ने जब हिंदी की युवा कविता में प्रवेश किया तो वह एक शोर-होड़, करियरिस्ट भावना की आपाधापी, सस्ती यशलिप्सा से बौराई और पुरस्कारों की चकाचौंध से जगमगाती युवा कवियों की दुनिया थी, वाचालता जिनका स्थायी भाव थी, कविता में चमत्कार पैदा करना जिनका कौशल और कुछ चुनिंदा कविताएँ लिख कर क्लासिक हो जाने का भ्रम पालना ही अंतिम लक्ष्य था। (तमाम अच्छे लेखन के बावजूद कमोबेश आज भी ऐसी स्थिति है) इन परिस्थितियों में एक अलग और नई आवाज़ के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराना किसी जोखिम से कम नहीं था। हालाँकि उन्होंने बहुत ही बेधक और मार्मिक राजनीतिक कविताएँ लिखी हैं लेकिन कविता की इस दुनिया में स्थापित होने के लिए वे स्वयं न तो किसी के पिछलग्गू बने और न ही किसी घटिया राजनीति की बाँहें थामी। इसलिए ऐसा कहने में कोई संकोच नहीं कि एक युवा कवि के रूप में अनुज लुगुन के कवि-कर्म और जीवन-कर्म में कभी कोई फाँक नहीं रही, उनके बीच हमेशा एक सहज साधर्म्य भाव ही रहा।

वे बहुत ही शालीन, शान्त और विनम्र मुद्रा में, लेकिन बहुधा असहज करने वाली तीखे तेवर की कविताओं के साथ इस दुनिया में दस्तक देते हैं। उनकी आहट से हिंदी की युवा कविता का ग्लोब पहले कुछ थरथराता है, फिर धीरे-धीरे उसका नक्शा ही बदलने लगता है। वे ज़ाहिर करते हैं कि बिना शोर मचाए, बिना बढ़-चढ़ कर बोले या चमत्कार दिखाए भी इस पूरी दुनिया को आंदोलित किया जा सकता है। तब इस दुनिया से उनका रिश्ता मांद और जोखिम का रिश्ता था। आज जबकि एक अरसे के बाद यह ऐतिहासिक तथ्य हो गया है, रिश्ते का यह मुहावरा भी जरा ढीला हो गया है, जरा परे खिसक गया है क्योंकि इस बीच उनकी कविताएँ मांद की सत्ता को लगातार दरकाती हुईं जोखिम का एक नया काव्यशास्त्र रचती गईं हैं।
यहीं से उनके ‘पोएटिक स्पेस’ का बढ़ना शुरू होना है। हालाँकि उनकी कविताओं का अपना एक विराट देशकाल है और यह भी सही है कि बहुधा उनका उद्गम आदिवासी समाज और संस्कृति की अकूत संपदा और उसके बहुमुखी जीवनानुभव हैं जो उनकी काव्यभाषा में भी प्रतिबिंबित हैं; लेकिन इसी कारण उन्हें केवल आदिवासी कविता या आदिवासी कवि के एक सुविधाजनक खाँचे में डाल देना हमारे तथाकथित बौद्धिकों के ‘कॉमन सेन्स’ पर ही एक प्रश्नचिह्न लगाता है। यह दयनीय विडंबना है कि एक ऐसे प्रतिभाशाली कवि को—जो लगातार एक हाशिए की, वंचित लेकिन सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध सभ्यता का आख्यान रच रहा हो, उसके बहुरंग से हिंदी कविता के फॉर्म और कंटेंट को संशोधित-संवर्द्धित कर रहा हो, उसे अर्थबहुल और संवेदनक्षम बनाते हुए काव्य-रचना की नई-नई चुनौतियाँ पेश कर रहा हो—एक रूढ़ वर्ग-विभाजन करते हुए हाशिए पर डालने की हिमाकत की जाए! यह स्वयं उन ‘बौद्धिकों’ के नैतिक स्खलन से अधिक कुछ नहीं है और अनुज लुगुन की कविताएँ ऐसे तमाम स्खलनों का—चाहे वे राजनैतिक हों, सामाजिक-आर्थिक हों या साहित्यिक—एक प्रतिपक्ष रचती हैं।

अनुज लुगुन की कविताएँ प्रतिपक्ष की कविताएँ हैं, और जो प्रतिपक्ष का कवि होगा वह किसी न किसी का पक्षधर भी होगा। छोटी कविताओं के अलावा अपनी लंबी कविताओं में भी उन्होंने सहजीविता के व्यावहारिक दर्शन को आख्यान की खूबियों के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश की है। ‘एकलव्य से संवाद’ और ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ जैसी लंबी कविताओं को तो मिसाल के तौर पर रखा जा सकता है। जैसे ‘धूमिल’ ने संसद के सामने सड़क का प्रस्ताव रखा था उसी तरह अनुज लुगुन सत्ता के सामने सहजीविता का प्रस्ताव रखते हैं, दोनों यह जानते हुए कि यह प्रस्ताव आसानी से स्वीकृत नहीं होने वाला। अपनी कविता में वे जल, जंगल और जमीन का पक्ष लेते हुए सत्ता के कई रूपों (राजनीति से लेकर पितृसत्ता तक) की सूक्ष्म समीक्षा करते हैं और उसकी विध्वंसक भूमिका को उजागर करते हैं। समय के साथ उनकी कविताओं में यह बोध और भी अधिक तीखा और मर्मभेदी होता गया है।- पंकज कुमार बोस 

 

अनुज लुगुन की नयी कविताएँ-

इन्द्रावती

यह कहना आज गुनाह होगा कि
इन्द्रावती में तैर रही लाशों का अपना पक्ष है
चूँकि यह समय ही ऐसा है कि
आप नदी में डूबते रहें और आपके जीवित होने का भ्रम बना रहे
नदी में हर कोई तैर नहीं सकता
तैरने के लिए कला नहीं साहस चाहिए
जिन्हें साहस नहीं होता वे लाइफ जैकेट का सहारा लेते हैं
इस तरह धीरे-धीरे हाथ पैर सिकुड़ते हैं और आवाज भी दब जाती है
इन्द्रावती में तो तैरना आसान नहीं है
यह जंगल पहाड़ों की नदी है
और ऐसी नदियों का रास्ता आदिवासियों के घरों तक जाता है
कवि केदारनाथ सिंह कह गए कि
नदियाँ शहरों का आरंभ होती हैं और शहर नदियों का अंत
तो क्या पानी में तैरती लाशें नदियों के पक्ष में शहर के खिलाफ़ थीं?
क्या उनका यही पक्ष है?
या, इसका कोई दूसरा अर्थ भी है
जिसे अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक संगठन तय करते हैं?
यह बहुत कठिन समय है कहने के लिए कि
नदियों को बचाना है तो शहादत के रास्ते चलना होगा
जो चलेंगे वे मारे जाएँगे अपने ही वंशसूत्रों के द्वारा
और उनकी लाश भी एक दिन नदियों में तैर रही होगी
इन्द्रावती में तैर रही लाशें उसका शोक नहीं हैं
वे अपराधी नहीं थे कि उसके लिए वह शर्मिंदा हो
यह इतिहास की अधूरी व्याख्या है कि जो विपक्ष में गए वे देशद्रोही कहलाए
आंतरिक सुरक्षा का मतलब यह तो नहीं कि
इतिहास की गलत व्याख्या बढ़ती जाए और दफ़न कर दिया जाए जिन्दा सबूतों को
इन्द्रावती से खतरा है उन लोगों को जो राष्ट्रीय अपराध में शामिल हैं
जिन्होंने पानी की आजादी सेंसेक्स के साँड़ के आगे गिरवी रख दी है
(वही तो है हत्याओं और फर्जी मुठभेड़ों का सरगना
अक्सर वह लाल रंग देख कर भड़क उठता है)
और कितनी लाशें तैर सकती हैं इन्द्रावती में
और कितनी पीढ़ी शामिल होगी राष्ट्रीय अपराध में
इन्द्रावती के लोगों के सवाल पुराने हैं
उनकी उम्र शेयर मार्केट से ज्यादा है
नदियों के नाम पर वे कहीं भी फिर से पैदा हो सकते हैं।

किसान का रहस्य

एक किसान बीज बोता है
अंकुए फूटते हैं और आँखें फटती हैं
सूखी धरती और बंजर आसमान को देखकर
एक किसान क्यों रोता है यह रहस्य नहीं
एक किसान कब रोता है यह रहस्य है
रहस्य हैं ओस की बूँदें
कोई नहीं जानता सिवाय ओस की बूँदों के
जो रात-विरात चुपके से उससे मिलने क्यों आती हैं?

खनन अपराध है

जो हरियाली से मुँह मोड़ चुके हैं
वे सभी इस अपराध में संलिप्त हैं
जो जीडीपी वाले हैं
जो सेंसेक्स के साथ उछल रहे हैं
उन पर मुकदमा दर्ज किया जाए
अर्थशास्त्रियों से पूछा जाए कि
वे गिलहरी की कितनी प्रजातियों के बारे में जानते हैं
उनकी परीक्षा हो समुद्र में तैरने की बिना ऑक्सीजन के
या, उनसे कहा जाए कि वे बिना छाँव के कितनी दूर चल सकते हैं
राजनेताओं से पूछा जाए
कि वे होराल और डोल्फिन के बिना कितने युगों तक चुनाव जीत सकते हैं
सवाल तो उन नागरिकों से भी बनता है जो
बिना समझे वोट डालने चले जाते हैं
और नंगे होकर बाजार में कथकली करते हैं
अब कोई खूंख्वार जानवर नहीं है धरती पर
न ही उनके पास कोई विनाशक हथियार है
आदमी से ज्यादा क्रूर अब कोई नहीं रहा
कविता में वह शांति का दूत है
और खाने की थाली पर अणुओं से लैस हमलावर
एक जीव आणविक हथियार नहीं चाहता
वह शेल्टर होम नहीं चाहता
उसकी आँखें बारिश बोती हैं
वह अपने खेतों में खनन नहीं चाहता
वह नहीं चाहता अपने परिवार में अपराधियों का प्रवेश।

मेरे नास्तिक होने का ब्यौरा

इसे हमारे समय में ही होना था
धर्म अपने निराकार रूप को छोड़ रहा था
जो निराकार थे वे दाढ़ियों, टीकों और जुबानों से अपना आकार गढ़ रहे थे
ईश्वर ने सबको अपनी-अपनी मर्जी पर छोड़ दिया था
विज्ञान ने विनाश के सबसे घातक हथियार बना लिए थे
एक धर्म के लोग दूसरों धर्मों पर उन्हीं हथियारों से हमले भी कर रहे थे
यह प्रेमचंद का समय नहीं था
नहीं तो हामिद मेले से चिमटा की जगह रायफल क्यों खरीद लाता
शंकर किसान के यहाँ पंडित तलवार लेकर क्यों पहुँचता
यह पहले से और निर्दयी होता समय था
गरीबों को धर्म ने बाँट लिया था
गरीबी धर्मशास्त्र में कहीं उद्धृत नहीं था
और जानवर ईश्वर तक पहुँचने के सबसे आसान प्रतीक बन गये थे
यह समय था विज्ञान से धर्म को व्याख्यायित करने का
फिर से पृथ्वी को सूरज से परिक्रमा कराने का
वैज्ञानिकों से पुष्पक विमान को प्रामाणित करने को कहा जा रहा था
विश्वविद्यालयों को कहा गया था धर्म रक्षकों की सेना तैयार करने के लिए
कहीं कोई रंग उभरता था और धर्म रक्षक कब्ज़ा करने के लिए एक दूसरे पर टूट पड़ते थे
कलाकारों के कैनवास को बदरंग कह दिया गया
यह बच्चों के तुतलाने का सबसे भयावह समय था
उन्हें रंगों से खेलने की पाबंदी थी
वे अपने मन की भाषा नहीं बोल सकते थे
उनका ईश्वर पहले से तय कर दिया गया था
यह मेरे नास्तिक होने का ब्यौरा था
मुझे न श्लोक चाहिए थे, न मन्त्र, न आयतें
मुझे कविता की ओर बढ़ना था
और कविता ने कहा—
‘आओ, फिर से चलें उल्टी धारा में।’
(मार्क्स की 200वीं और राहुल की 125वीं जयंती पर पटना में
आयोजित प्रलेस के कार्यक्रम से लौटने के बाद।)

पत्थलगड़ी

हिंदी में लोगों ने एक मुहावरा बनाया—पत्थर फेंकना
हिंदी के एक कवि ने लिखा ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’
लोगों ने एक फिलिस्तीनी बच्चे को
टैंक के सामने खड़े होकर पत्थर फेंकते हुए देखा
यानी आप अपनी असहमति जता सकते हैं
या, दमन तेज हो तो प्रतिरोध स्वाभाविक है
लेकिन हिंदी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है
और न ही वे पत्थरबाज हैं
उन्होंने तो सिर्फ इतना ही कहा कि
पत्थर उनकी पहचान का प्रतीक है
यह उन्हें उनके पूर्वजों से विरासत में मिला है
उनके लिए पत्थर ही पट्टा है
जो न धूप में पिघलता है और न बरसात में गलता है
वे पत्थर गाड़ेंगे और अपने होने का दावा करते रहेंगे
वे कहते हैं कि पत्थरों पर निषेध लगा कर ही
सरकारें उनकी जमीन पर सेंध लगाती हैं
आदिवासियों का यह कथन हिंसक माना गया
सरकार ने कहा यह बगावत है
और जेल में डाले जाने लगे आदिवासी
कितनी अजीब बात है कि
हिंदी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं है
न ही वे पत्थर फेंकने का मुहावरा जानते हैं
वे तो सिर्फ पत्थर गाड़ना जानते हैं
फिर भी वे पत्थर फेंकने के दोषी माने गए
भाषा का यह फेर पुराना है
सरकार आदिवासियों की भाषा नहीं समझती है
वह उन पर अपनी भाषा थोपती है
आदिवासी पत्थलगड़ी करते हैं
और सरकार को लगता है कि वे बगावत कर रहे हैं।

पर्यावरण

कुछ दुःख हैं जो अब भी जड़ों में हैं
कुछ भाव हैं जो अब भी टहनियों पर टंगे हैं
कुछ आशीष हैं जो अब भी फुनगियों में हैं
कुछ प्रार्थनाएँ हैं जो अब भी शाखाओं में हैं
कुछ लोग हैं जो अब भी पेड़ों की पूजा करते हैं।

प्रकृति

इच्छाएँ कभी नहीं मरतीं वे तैरती रहती हैं हवाओं में
साँस लेते नवजात बच्चे के अंदर वह ऐसे ही घुस जाती है और बच्चा रोने लगता है
बच्चे का दुःख जनम लेते ही शुरू हो जाता है
और उम्र के एक पड़ाव के बाद जब वह मरता है तो इच्छाएँ जीवित रहती हैं
हम कह सकते हैं हमारा इतिहास ऐसे ही बनता है
एक शासक मर जाता है और शासन करने की इच्छा बची रह जाती है।
एक आदमी मर जाता है और उसके लड़ने की ताकत बची रह जाती है।

यह राष्ट्रगान का समय है

यह राष्ट्रगान का समय है
चुपचाप खड़े रहे हो
बोलना मत
हिलना मत
केवल भक्ति गीत गाए जाओ
सवाल-बवाल मत करो
यह राष्ट्रगान का समय है
अगल बगल न देखो
अपना काम है सामने देखो
सीधा देखो
गलत-वलत कुछ भी नहीं है
देशहित में में लगे रहो
यह राष्ट्रगान का समय हैं
ऊँगली न उठाओ
हत्या, बलात्कार, लूट-पाट कुछ तो नहीं हुआ है तुम साजिश-वाजिश मत करो
यह सबसे पवित्र समय है
भक्ति करो
भक्ति करो
भक्ति करो।

यात्रा

हम जो यहाँ तक पहुँचे हैं
उड़ते हुए छलांग लगाकर नहीं पहुँचे हैं
हम अपने तलवों को देखें
इनमें पुरखों के घाव हैं
हम अपने रास्ते को देखें
लहू रिस कर चले हैं
हमने स्कूलों की चौखट पर निषेध सहा है
स्लेट पर हम ‘मजदूरी’ लिख कर बढ़े हैं
रेंग रेंग कर हमने चलना सीखा है
गिर गिर कर खड़ा होना सीखा है
बंदर से इन्सान होने की प्रक्रिया में नहीं
इंसान से इंसान होने के लिए हर जुलुम सहा है
हम जो यहाँ तक पहुँचे हैं
इतिहास की गर्दिश लेकर पहुँचे हैं
हम जो यहाँ से चलेंगे इतिहास बदल कर चलेंगे
रोटी के रंग पर ईमान लिख कर चलेंगे।

(कवि अनुज लुगुन समकालीन जनमत पर पहले भी प्रकशित हो चुके हैं, आज हम उनकी कुछ हालिया अप्रकाशित कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं. अनुज कविता ले लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित हैं. वह बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया, बिहार के हिंदी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं, लगभग सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित चुकी हैं. टिपण्णीकार पंकज कुमार बोस दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं. )

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