समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

क्या पुरानी पेंशन व्यवस्था की वापसी की जमीन तैयार हो गई है?

शुरुआत राजस्थान से हुई है जहाँ मुख्यमंत्री (और वित्त मंत्री) अशोक गहलोत ने बीते महीने विधानसभा में अगले वित्तीय वर्ष का बजट पेश करते हुए 1 जनवरी 2004 के बाद भर्ती राज्य सरकार के कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन व्यवस्था को बहाल करने का एलान करके एक तरह से बर्र के छत्ते को छेड़ दिया. राज्य में अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनावों से पहले अपने आखिरी पूर्ण बजट में गहलोत के इस एलान को एक राजनीतिक “मास्टरस्ट्रोक” माना जा रहा है क्योंकि हिंदी पट्टी के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान की राजनीति में भी राज्य के लगभग 8 लाख सरकारी कर्मचारी बहुत निर्णायक भूमिका निभाते हैं.

यही नहीं, राजस्थान में कांग्रेस सरकार के इस फैसले ने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भी माहौल गर्म कर दिया जहाँ राज्य सरकार के 12 लाख से ज्यादा कर्मचारी पुरानी पेंशन व्यवस्था (ओपीएस) को बहाल करने के लिए लम्बे समय से आन्दोलन कर रहे हैं. इन चुनावों में समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में सरकार बनने पर ओपीएस को बहाल करने का वायदा किया था. इस मांग की लोकप्रियता का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि समाजवादी पार्टी के बाद बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस पार्टी ने भी ओपीएस को बहाल करने का वायदा किया.

 

इससे पहले पंजाब विधानसभा चुनावों में शिरोमणि अकाली दल ने भी सरकार बनने पर ओपीएस बहाल करने का वायदा किया था. हालाँकि सपा और अकाली दल में से कोई चुनाव नहीं जीत सका लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि सपा को राज्य सरकार के कर्मचारियों का अच्छा-ख़ासा समर्थन मिला. सपा पोस्टल बैलेट में भाजपा से आगे रही जिसमें सरकारी कर्मचारियों की उल्लेखनीय भूमिका थी.

इस बीच, छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने भी राज्य सरकार के कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन व्यवस्था को बहाल करने का एलान किया है. इसे देखते हुए ऐसा लगता है कि जल्दी ही और राज्यों और राजनीतिक दलों में इसे लपकने की होड़ लग सकती है.

ध्यान रहे कि इससे पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी और पिछले साल तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में डीएमके ने भी नई/राष्ट्रीय पेंशन व्यवस्था (एनपीएस) की जगह सरकारी कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन व्यवस्था को बहाल करने का वायदा किया था. हालाँकि दोनों ही राज्यों में (ओपीएस) को बहाल करने का फैसला नहीं हुआ है लेकिन राजस्थान सरकार के एलान के बाद कई और राज्यों और यहाँ तक कि केंद्र सरकार के कर्मचारियों में भी इस मांग के और जोर पकड़ने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.

हरियाणा में मुख्यमंत्री ने सरकारी कर्मचारियों को ओपीएस लागू करने की सम्भावना जांचने का आश्वासन दिया है. दूसरी ओर, राष्ट्रीय स्तर पर पिछले कई सालों से नेशनल मूवमेंट फार ओल्ड पेंशन स्कीम (एनएमओपीएस) केंद्र और राज्य सरकार के कर्मचारियों के बीच सक्रिय और आन्दोलनरत है.

साफ़ है कि 1 जनवरी 2004 से पहले लागू पुरानी पेंशन व्यवस्था की बहाली की मांग का जिन्न फिर से जिन्दा हो गया है. इसके साथ ही इस मांग और राजस्थान सरकार के फैसले के आर्थिक-वित्तीय औचित्य और उपयोगिता पर भी सवाल उठाये जाने लगे हैं. पुरानी पेंशन व्यवस्था के आलोचकों का मुख्य तर्क यह है कि इसे लागू करने से राज्य सरकारों के खजाने पर भारी बोझ पड़ेगा जिससे उनके दिवालिया होने का खतरा बढ़ जाएगा. उनके मुताबिक, यह फैसला “आर्थिक-वित्तीय दुर्घटना या बर्बादी” को निमंत्रण है.

उनके अनुसार इसकी वजह यह है कि ज्यादातर राज्य सरकारों के बजट का बड़ा हिस्सा सरकारी कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में ही खर्च हो जाता है. ऐसे में, वित्तीय रूप से खस्ताहाल ज्यादातर राज्य पुरानी पेंशन व्यवस्था का बोझ उठाने में न सिर्फ असमर्थ हैं बल्कि ओपीएस लागू करने के बाद उनके लिए विकास और सामाजिक सुरक्षा के दूसरे मदों पर खर्च के लिए पैसा नहीं बचेगा.

यही नहीं, ओपीएस के आलोचकों का यह भी कहना है कि जब देश में निजी क्षेत्र में काम करनेवाले 90 फीसदी कार्मिकों और श्रमिकों खासकर असंगठित क्षेत्र में काम करनेवालों को कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं हासिल है तो सिर्फ सरकारी कर्मचारियों को ही सरकारी खजाने से निश्चित पेंशन का विशेषाधिकार क्यों मिलना चाहिए? उनका यह भी तर्क है कि पुरानी पेंशन व्यवस्था की जगह पर लागू नई/राष्ट्रीय पेंशन व्यवस्था (एनपीएस) न सिर्फ सरकारी कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा और पेंशन की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त है बल्कि ज्यादा तार्किक, व्यावहारिक और सरकारी खजाने के अनुकूल है.

लेकिन सरकारी कर्मचारियों का बड़ा हिस्सा इन तर्कों और आलोचनाओं से सहमत नहीं है. उनका तर्क है कि नई/राष्ट्रीय पेंशन व्यवस्था कर्मचारियों के योगदान पर आधारित (डिफाइन्ड कंट्रीब्यूशन-डीसी) व्यवस्था है जिसमें उनके वेतन और महंगाई भत्ते से 10 फीसदी और सरकार की ओर से 14 फीसदी का योगदान किया जाता है. इस रकम को बाजार खासकर शेयर बाज़ार और सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश किया जाता है जिसे सरकार की ओर से नियुक्त फंड मैनेजर सँभालते हैं. कोई भी सरकारी कर्मचारी रिटायर्मेंट के समय इस निवेश से हासिल रिटर्न में से 60 फीसदी तक बिना टैक्स के निकाल सकते हैं लेकिन बाकी 40 फीसदी उन्हें किसी बीमा कंपनी के पेंशन स्कीम में जमा करना होगा जिससे उन्हें पेंशन मिलेगी.

कर्मचारियों का कहना है कि नई/राष्ट्रीय पेंशन व्यवस्था में उनका पेंशन उनके योगदान और सेवाकाल के साथ-साथ बाज़ार की परिस्थितियों और अपेक्षित रिटर्न पर निर्भर है जिसमें कोई निश्चितता नहीं है और वह बाज़ार के हाल और उतार-चढ़ाव पर निर्भर है. इसके बरक्स पुरानी पेंशन व्यवस्था पूर्व निश्चित लाभ (डिफाइन्ड बेनिफिट-डीबी) पर आधारित व्यवस्था है जिसमें सरकारी कर्मचारियों को रिटायर्मेंट के बाद सरकारी खजाने से उनके अंतिम वेतन का 50 फीसदी तक निश्चित पेंशन मिलता है जिसमें हर छह महीने पर महंगाई भत्ते की वृद्धि भी शामिल है.

दरअसल, यह एक-दूसरे से अलग दो पेंशन व्यवस्थाओं का ही नहीं, बल्कि उससे जुड़ी दो आर्थिक नीतियों और दृष्टियों का भी टकराव है जिसमें एक ओर कल्याणकारी राज्य के दौर में शुरू की गई पूर्व निश्चित लाभ (डिफाइन्ड बेनिफिट-डीबी) पर आधारित पुरानी पेंशन व्यवस्था है और दूसरी ओर, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के दौर में आर्थिक सुधारों के तहत शुरू की गई योगदान पर आधारित (डिफाइन्ड कंट्रीब्यूशन-डीसी) नई/राष्ट्रीय पेंशन व्यवस्था है जिसमें राज्य ने अपने हाथ पीछे खींच लिए हैं और सब कुछ बाज़ार के भरोसे है.

यह सच है कि पिछले कुछ दशकों में के तहत ज्यादातर देशों में भारत की एनपीएस जैसी यानी योगदान पर आधारित (डिफाइन्ड कंट्रीब्यूशन-डीसी) पेंशन व्यवस्था को ही आगे बढ़ाया गया है. लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के बीच तेजी से बढ़ती गैर-बराबरी और कमजोर होती सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था के कारण हाल के वर्षों में दुनिया के बहुतेरे देशों में ओपीएस जैसी पूर्व निश्चित लाभ (डिफाइन्ड बेनिफिट-डीबी) पर आधारित पुरानी पेंशन व्यवस्था की मांग फिर से जोर पकड़ने लगी है. दक्षिण अमेरिकी देश- चिली में हाल में हुए राष्ट्रपति चुनावों में जीते गैब्रियल बोरिच के एजेंडे में यह मुद्दा शामिल है.

असल में, पेंशन का मुद्दा व्यापक सामाजिक सुरक्षा और उसमें राज्य की भूमिका से जुड़ा सवाल है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसे सिर्फ सरकारी कर्मचारियों के विशेषाधिकार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. लेकिन यह कमजोर तर्क है कि चूँकि राज्य ज्यादातर नागरिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा के उपाय करने में नाकाम है या सक्षम नहीं है, इसलिए सरकारी कर्मचारियों को भी ऐसी व्यवस्था से वंचित कर दिया जाए.

दूसरे, रिटायर्मेंट के बाद एक गरिमापूर्ण जीवन के लिए जरूरी पेंशन जैसे जरूरी सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे को सिर्फ वित्तीय औचित्य के आधार पर देखना भी नैतिक दृष्टि से उचित नहीं है. सच्चाई यह है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो वित्तीय संसाधन भी आसानी से जुट जाते हैं.

याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि जब मनरेगा, स्कूलों में दोपहर भोजन और किसान सम्मान निधि जैसी योजनायें शुरू की गईं थीं तब भी यह तर्क दिया गया था कि इससे सरकारी खजाने का दीवाला निकल जाएगा, अर्थव्यवस्था डूब जायेगी या ये आर्थिक दुर्घटना साबित होंगी. सभी जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ और न सिर्फ इन योजनाओं के लिए संसाधन जुटाने में कोई परेशानी नहीं हुई बल्कि ये योजनाएं अपने सामाजिक उद्देश्यों को भी पूरा करने में कामयाब रही हैं.

वास्तव में, आज देश में सभी वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक गरिमापूर्ण जीवन सुनिश्चित करने के वास्ते पूर्व निश्चित लाभ (डिफाइन्ड बेनिफिट-डीबी) पर आधारित एक राष्ट्रीय पेंशन व्यवस्था शुरू करने पर विचार करने का वक्त आ गया है. आखिर दुनिया भर में और अपने देश में भी पिछले कुछ समय से यूनिवर्सल बेसिक इनकम की जरूरत पर चर्चा यूँ ही जोर नहीं पकड़ रही है.

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