समकालीन जनमत
चित्रकला

भारतीय चित्रकला परंपरा और अमृता शेरगिल  

(विश्वविख्यात चित्रकार अमृता शेरगिल की आज जयंती है। इस मौके पर समकालीन जनमत के पाठकों के लिए चित्रकार और लेखक अशोक भौमिक का विशेष लेख प्रस्तुत है)

 

अमृता शेरगिल के बारे में सभी जानते हैं कि  उन्होंने मुग़ल, पहाड़ी और अन्य भारतीय चित्रकला धाराओं का अध्ययन किया था। 1936 में अमृता शेरगिल अजंता गईं और 1937 में दक्षिण भारत का दौरा किया। 1937 में ही उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में अपनी एकल प्रदर्शनी की जो शायद भारत में उनकी पहली प्रदर्शनी थी।

1938 से अमृता शेरगिल गोरखपुर जिले के सरदार नगर तहसील के सरैया गाँव में अपने पैतृक निवास में रहने लगी थीं। सरैया प्रवास शायद उनके जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण अध्याय था। असली हिंदुस्तान के चेहरे को इतने करीब से देख पाने के इस अवसर ने ही उनके चित्रों को सही मायने  में भारतीय बनाया। सरैया प्रवास के दौरान अमृता शेरगिल ने अपने एक मित्र को खत में लिखा था, “मैं केवल हिन्दुस्तान में ही चित्र बना सकती हूँ। पिकासो, मातिस और ब्रॉक यूरोप के हैं .….पर हिंदुस्तान केवल मेरा है!”

 

यहाँ सवाल उठता है कि अमृता शेरगिल कौन से हिन्दुस्तान की बात कर रही थीं ? क्या वह उस भारत की बात कर रही थीं , जहाँ की चित्रकला अजंता, मुग़ल, कांगड़ा, पहाड़ी आदि महान कला धाराओं से समृद्ध थी ? हम जानते हैं कि तमाम विद्वान आलोचकों ने अमृता शेरगिल के चित्रों में अजंता के प्रभाव को चिन्हित कर अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं। कई कला इतिहासकारों ने भारतीय लघु चित्र (मिनिएचर) परंपरा को अमृता शेरगिल के चित्रों मे रेखांकित किया है। कई समीक्षक यूरोपीय कला और भारतीय कला का संश्लेषण भी अमृता शेरगिल की कला में देखा हैं। यह सभी स्थापनाएँ निश्चय ही सही हैं पर इनके आधार पर अमृता शेरगिल के चित्रों का मूल्यांकन अधूरा होगा, क्योंकि सच तो यह है कि उसी अजंता, मुग़ल और पहाड़ी कला को आधार मान कर ही सन 1900 के आस-पास नव भारतीय चित्रकला या बंगाल स्कूल ने अपने ‘भारतीय’ होने का दावा पेश किया था। यहाँ यह देखना जरूरी है कि अपनी प्रेरणा के समान स्रोतों के बावजूद बंगाल स्कूल या नव-भारतीय चित्रकला से अमृता शेरगिल के चित्र पूरी तरह भिन्न क्यों हैं ?

इसी प्रश्न के उत्तर में ही वास्तव में अमृता शेरगिल के चित्रों की ‘ भारतीयता ‘ छिपी हुई है।

अमृता शेरगिल ने अपनी कला को ‘ भारतीय ‘ स्वरूप देते समय ईसा से दो सौ साल पूर्व बने अजंता के भित्तिचित्रों से या चार-पाँच सौ साल पुरानी मुग़ल या अन्य भारतीय कला धाराओं से ग्रहण करते समय इन भारतीय कलाधाराओं से अनिवार्य रूप से जुड़े देवी देवताओं को नकारा । इन कला धाराओं के केंद्र में आसीन राजा महाराजा और बादशाहों को नकारा। उन्होंने आधुनिक भारतीय कला के महाराज बनते जा रहे राजा रवि वर्मा की कला को भी नकारा और भारतीय चित्रकला के ऊब भरे इतिहास के पन्नों पर भारत के गाँव देहातों के मलिन वस्त्रों में लिपटी ‘ भारतीयता ‘  को समकालीन सन्दर्भों के साथ प्रतिष्ठित किया।

उनकी भारतीयता भारत के किसी एक प्रान्त तक सीमित नहीं रही बल्कि उनके चित्रों में पंजाब, हिमाचल, पूर्वी उत्तरप्रदेश से लेकर दक्षिणी प्रदेशों के सामान्य जन भी आये हैं। कैनवास पर उनके रंग शायद भारतीय कला परंपरा की देन हैं, पर रूप उस भारत की हकीक़त से प्राप्त हुआ जिसे उन्होंने बेहद प्यार किया था। अमृता शेरगिल के चित्रों में हम प्रायः ग्रामीण महिलाओं की एक हमदर्द महिला चित्रकार को देखते हैं, जो संयोग से बिल्कुल दूसरे वर्ग और पृष्ठभूमि से आयी होती थीं। अमृता के चित्रों का मूल्यांकन करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय चित्रकला के इतिहास और तमाम चित्रों में (पूर्व परिचित/ प्रतिष्ठित) नायकों, पात्रों और संदर्भों का महत्त्व सर्वोपरि रहा है।

मुग़ल कालीन चित्रों और नामों (बाबरनामा, अकबरनामा, हम्ज़ानामा आदि) को देखने से (देखें- चित्र 1; जहाँगीरनामा, सन 1620 ) या अन्य भारतीय कला शैलियों में देवी देवताओं के लीला प्रसंगों पर आधारित चित्रों (देखें- चित्र 2; काँगड़ा शैली, शिव-पार्वती-गणेश अट्ठारहवीं सदी) को देखने से इस बात को बेहतर समझा जा सकता है। अमृता शेरगिल के चित्रों में कहीं किसी पूर्व परिचित नायक, पात्र या सन्दर्भ को चित्रित होते नहीं देखते। उदाहरण के लिए हम ‘आदिवासी औरतें’ (चित्र-3) को देख सकते हैं। इस चित्र के केंद्र में लाल फूल लिए एक मासूम सी बच्ची है और उसे घेरे तीन महिलाएँ हैं। यह चारों पात्र किसी परिचित कथा से नहीं जुड़े हैं और अगर इस चित्र के शीर्षक की जानकारी न हो, तो भी इसे अनुभव करने में दर्शक को कोई कठिनाई नहीं होती। दरअसल चित्र में परिचित सन्दर्भ या कथा की अनुपस्थिति में ही चित्र के वे सभी गुण हमारे सामने स्पष्ट हो पाते हैं, जो सैकड़ों वर्षों से कथा और संदर्भों की चादर के नीचे भारतीय कला में गुम रहे हैं।

 

अमृता शेरगिल का भारतीय कला इतिहास में सबसे बड़ा अवदान यही है कि उन्होंने पहली बार आम जन को चित्र में स्थान देते हुए चित्रों को पूर्व प्रचलित कथा के बोझ से मुक्त किया था। उनके चित्रों की ‘कथा’ बाहर से आयातित/ आरोपित न होकर चित्र से ही विकसित होती है और दर्शक अपने व्यक्तिगत अनुभव और संवेदना के आधार पर उसे स्वतन्त्र रूप से ग्रहण करता है।

भारतीय चित्रकला में ‘कथा-चित्रण’ की यह परंपरा राजा महाराजाओं और धर्म प्रचारकों द्वारा विकसित हुई जो सैकड़ों वर्षों तक इस कला का इस्तेमाल अपने स्वार्थ के लिए करते रहे। आधुनिक काल में भी एक ओर जहाँ दक्षिण के चित्रकार राजा रवि वर्मा (1848-1906) ने अपने  चित्रों में धार्मिक लीला कथाओं को चित्रित किया (देखें- चित्र 4; ‘सरस्वती’ ), वहीं दूसरी तरफ़ बंगाल के हेमेन मजूमदार (1894-1948) धर्म और राज सत्ता के समान प्रभावी पुरुष सत्ता के मनोरंजन के लिए नारी शरीर के मोहक  चित्र बना रहे थे (देखें- चित्र 5; प्रसाधन करती महिला)। मुंबई के सर जे जे स्कूल ऑफ़ आर्ट के यशस्वी चित्रकार महादेव विश्वनाथ धुरंधर (1867–1944) भी वही कर रहे थे जो भारत के अन्य प्रांतों में उनके समकालीन चित्रकार कर रहे थे और प्रसिद्घ हो रहे थे (देखें चित्र- 6; राधा और कृष्ण)। अमृता शेरगिल का इन महान भारतीय चित्रकारों से प्रेरित न होना चित्रकला की उनकी स्पष्ट समझ को दर्शाता है।

यहाँ यह भी जान लेना जरूरी होगा कि अमृता शेरगिल के चित्रों से कहीं ज्यादा माँग इन कलाकारों की थी और जहाँ इन चित्रकारों के चित्रों को मुँहमांगा दाम मिल रहा था, वहीं अमृता शेरगिल के चित्रों की कोई माँग न थी। पर बावजूद इन सबके अमृता शेरगिल ने अपनी कला समझ पर भरोसा रखा और बीसवीं सदी की भारतीय चित्रकला को एक सर्वथा भिन्न पहचान देने में सफल रहीं।

 

अमृता शेरगिल के हिस्से में सिर्फ़ 28 बरसों का जीवन ही आया था। अपने जीवन के अंतिम छः वर्षों के दौरान बनाये गए चित्रों में उन्होंने केवल आम लोगों को चित्रित किया और भारतीय चित्रकला के इतिहास को सर्वथा नयी दिशा की ओर ले गईं। यह सदियों से राज सत्ता-धर्मसत्ता-पुरुष सत्ता की मुट्ठियों में कैद ‘चित्रकला की मुक्ति’ थी।  अपने चित्रों में आम जन को चित्रित करते हुए उन्होंने यह संभव कर दिखाया कि भारतीय चित्रकला का परिसर राजा रानियों और देवी देवताओं के लिए आरक्षित कोई पवित्र स्थल नहीं है। यही वह दिशा थी, जिस पर उनकी मृत्यु (1941) के बाद भारतीय चित्रकला की प्रगतिशील धारा का विकास संभव हुआ और 1943 के आसपास चित्तप्रसाद, सोमनाथ होर, जैनुल आबेदिन और कमरुल हसन आदि ने ‘ मुक्ति की चित्रकला ‘ की नींव रखी।

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