( भानु कुमार दुबे ‘मुंतज़िर मिर्ज़ापुरी’ एक तरक्कीपसंद शायर रहे हैं। उनका जन्म 26 सितंबर 1953 को हुआ था। आज से दो साल पहले 28 जनवरी 2023 को उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली। अपने उतार-चढ़ाव भरे जीवन में उन्हें तीन बार मानसिक चिकित्सालय में भर्ती होना पड़ा था। एक बार वह टीबी में ऐसे मुब्तिला हुए कि सेकंड स्टेज तक पहुँच गए थे पर यह उनकी जिजीविषा ही थी जिसके चलते वह इन सारी बाधाओं को पार करते हुए अपना लेखन जारी रख सके। भाकपा(माले) के वह समर्पित कार्यकर्ता थे। छपने-छपाने के मामले में वह बेहद संकोची रहे इसलिए उनका केवल एक ग़ज़ल संग्रह ‘सांस्कृतिक संकुल’ से “क़तरे की रवानी” नाम से प्रकाशित हो सका। लेखक, अनुवादक दिनेश अस्थाना ने संस्मरण की इस शृंखला में बहुत डूब कर अपने यार ‘मुंतज़िर मिर्ज़ापुरी’ को याद किया है। )
बी0एस0-सी0 के बाद विज्ञान-वर्ग में आगे की पढ़ाई की सुविधा उन दिनों मिर्जापुर में नहीं थी, और सम्भवतः आज भी नहीं है। इसलिये मुझे एम0एस0-सी0 करने के लिये ज्ञानपुर जाना पड़ा। ज्ञानपुर, मिर्जापुर से मात्र 17 किमी की दूरी पर है पर उन दिनों 17 किमी की यह यात्रा पाँच घंटे से अधिक का समय ले लेती थी। गंगा नदी पर शास्त्री सेतु तब तक नहीं बना था। गंगा पार करने के लिये आमतौर पर पीपे के पुल का सहारा हुआ करता था। बरसात के दिनों में इस पुल के बह जाने का ख़तरा रहता था इसलिये हर साल 16 जून को उसे हटा कर स्टीमर सेवा प्रारम्भ कर दी जाती थी।
मिर्जापुर में उन दिनों 2 स्टीमर हुआ करती थी, एक तो बड़ी थी और दूसरी अपेक्षाकृत छोटी। ख़ास बात यह थी पुल या स्टीमर दोनों सुविधायें निःशुल्क थीं। शायद सरकारी महकमों को इस बात का इल्म ही नहीं था कि इस सेवा से भी कमाई की जा सकती है, सेवा का पीपीपी माॅडल तब तक नहीं आया था। सरकार ‘वेलफेयर स्टेट’ हुआ करती थी।
गंगापार, चील्ह घाट से सुबह 5.30 बजे खमरिया, गोपीगंज, ज्ञानपुर होते हुये भदोही के लिये पहली बस रवाना होती थी। मुँह अँधेरे घर से निकलना होता था। साइकिल मेरे पास थी नहीं, रिक्शे का किराया भी भारी लगता था। लिहाज़ा पैदल ही 3 किमी दूर स्टीमर घाट तक जाना पड़ता था। पहली बस मिल गयी तो भी पहली पीरियड में मैं कक्षा में नहीं पहुँच पाता था क्योंकि बस प्रायः 10.30 पर वहाँ पहुँचती थी और पीरियड 10.00 बजे से शुरू हो जाती थी।
मेरी दीदी मुझसे पढ़ाई में एक साल आगे थीं, 1970 में जब वह इंटर की फाइनल परीक्षा दे रही थीं तब मैं ग्यारहवीं में था। कुछ ऐसा संयोग रहा कि उस साल उनके सेंटर की फाइनल परीक्षा की भौतिक विज्ञान-द्वितीय प्रश्नपत्र की उत्तर-पुस्तिका कहीं खो गयी थी इसलिये परीशार्थियों को प्रथम प्रश्नपत्र में प्राप्त अंकों के आधार पर ही द्वितीय प्रश्नपत्र में भी अंक दे दिये गये थे, और उनका प्रथम प्रश्नपत्र ही ख़राब हो गया था। नतीज़ा यह रहा कि वह उस साल फेल हो गयीं और मैं उनके बराबर आ गया।
डिग्री काॅलेज में दोनों का दाखिला बी0एस0-सी0 में कराना बाबूजी के लिये लगभग असम्भव था, उस समय (1971 में) बी0एस0-सी0 में प्रति छात्र प्रवेश शुल्क रु0 217.00 था यानी दोनों लोगों का मिलाकर रु0 434.00 होता जबकि बाबूजी का वेतन मात्र रु0 300.00 था और हमदोनों के अलावा चार और भाई-बहन भी लाइन में लगे थे। सबको प्रवेश शुल्क चाहिये था और घर-खर्च अलग से। सारी जरूरतों के लिये वह हमेशा ही अपने ट्यूशन से एडवांस में पैसे ले लेते थे और फिर उसे पूरा करने के लिये सुबह पाँच बजे से रात के नौ बजे तक लगे रहते थे।
‘ संडे वाले पापा ’ का काॅन्सेप्ट तो बहुत बाद में आया, हम लोगों की भी बाबूजी से मुलाकात संडे के संडे ही होती थी। बी0ए0 का प्रवेश शुल्क रु0 147.00 था। तो हुआ यह कि रु0 364.00 में हम दोनों का प्रवेश डिग्री काॅलेज़ में हो गया, उनका बी0ए0 में और मेरा बी0एस0-सी0 में। डिग्री के बाद मैं ज्ञानपुर आ गया और दीदी का प्रवेश बी0एड0 में कराने का प्रयास चलने लगा। अब अगर मैं अपने घर के बारे में ही बातें करता रहूँगा तो यह विषयान्तर हो जायेगा इसलिये सीधे भानु के कनेक्शन पर आते हैं।
तो भानु ने एम0ए0 में संस्कृत लिया। हम दोनों अलग नहीं हुये क्योंकि मैं हर शनिवार को मिर्जापुर वापस आ जाता था। दोनों लोगों का घर चूँकि एक ही गली में था इसलिये पूरे डेढ़ दिन हमलोग साथ-साथ ही रहते थे। उस दौरान मैंने भानु से बहुत कुछ सीखा। मुझे शतरंज सीखने का शौक चढ़ा, पर बोर्ड और मोहरे खरीदने के लिये बाबूजी से कह नहीं सकता था। तो मैंने एक दफ्ती को चौकोर काट कर उसपर कागज चिपकाया, काले-सफेद 64 खाने खींचे और दफ्ती के ही विभिन्न आकार के मोहरे बना लिये। भानु ने मुझे बड़ी लगन से एक-एक चालें समझायीं और अच्छी शतरंज सीखने के लिये एक किताब भी दी ‘हाऊ टृ प्ले चेस’, उसके घर में पड़ी थी, शायद किसी रूसी प्रकाशन की थी।