समकालीन जनमत
संस्मरण

नागफ़नी का दोस्त (4)

( भानु कुमार दुबे ‘मुंतज़िर मिर्ज़ापुरी’ एक तरक्कीपसंद शायर रहे हैं। उनका जन्म 26 सितंबर 1953 को हुआ था। आज से दो साल पहले 28 जनवरी 2023 को उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली। अपने उतार-चढ़ाव भरे जीवन में उन्हें तीन बार मानसिक चिकित्सालय में भर्ती होना पड़ा था। एक बार वह टीबी में ऐसे मुब्तिला हुए कि सेकंड स्टेज तक पहुँच गए थे पर यह उनकी जिजीविषा ही थी जिसके चलते वह इन सारी बाधाओं को पार करते हुए अपना लेखन जारी रख सके। भाकपा(माले) के वह समर्पित कार्यकर्ता थे। छपने-छपाने के मामले में वह बेहद संकोची रहे इसलिए उनका केवल एक ग़ज़ल संग्रह ‘सांस्कृतिक संकुल’ से “क़तरे की रवानी” नाम से प्रकाशित हो सका। लेखक, अनुवादक  दिनेश अस्थाना ने  संस्मरण की इस शृंखला में बहुत डूब कर अपने यार ‘मुंतज़िर मिर्ज़ापुरी’ को याद किया है। )

मैं बी0एस0-सी0 कर रहा था और भानु बी0ए0। मुहल्ले का परिचय काॅलेज में दोस्ती में तब्दील हो गया। घरों में आना-जाना चालू हो गया। पढ़ने का शौक मुझे शुरू से था। उस जमाने के आम युवा की तरह मेरे भी पसन्दीदा उपन्यासकार गुलशन नन्दा, इब्ने सफी, शिवानी, आदि थे। बाद में थोड़ी एलीट पैठ बनाने के लिये मैंने इस सूची में शरद बाबू, बंकिम चन्द्र और शंकर को भी शामिल कर लिया। पत्रिकाओं में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सरिता, मुक्ता के साथ ही नवनीत, कादम्बिनी और रीडर्स डाजेस्ट भी मेरी पसन्दीदा लिस्ट में थे। उस दौर की वैज्ञानिक रुचि की पत्रिका- विज्ञान प्रगति-का मैं नियमित ग्राहक भी बन गया था। परन्तु भानु के घर में किताबों का संग्रह लाजवाब था। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस और रादुगा प्रकाशन से प्रकाशित साम्यवादी रुझान की ढेर सारी किताबें वहाँ थी, राहुल सांकृत्यायन की कृतियाँ थीं, भगवती चरण वर्मा, शंकर, विमल मित्र के कई उपन्यास थे, और भी बहुत कुछ था वहाँ।

उस दौर में मिर्जापुर तीन पुस्तकालय हुआ करते थे- घंटाघर के सामने एक मेयो मेमोरियल लाइब्रेरी थी, उसी बिल्डिंग में दूसरी ओर एक मसीही लाइब्रेरी थी और तीसरी थी नारघाट पर साहित्य सदन नाम से। मेयो मेमोरियल लाइब्रेरी सही अर्थों में एक वाचनालय था। वहाँ हिन्दी-अंग्रेजी के कई अखबार होते थे और उस समय की आम-अवाम में लोकप्रिय पत्रिकाएं  जैसे दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, इलस्ट्रेटेड वीकली। इसके अलावा वहाँ किताबें भी थीं पर न तो मैंने कभी पढ़ीं न किसी को वहाँ किताबें पढ़ते देखा।

मसीही लाइब्रेरी में केवल मसीही धर्म की किताबें हुआ करती थीं। तीसरा पुस्तकालय साहित्य सदन सही अर्थों में एक पुस्तकालय था, ढेर सारे अखबार, तरह तरह की पत्रिकायें तात्कालिक और पुराने सन्दर्भ-ग्रन्थों से लदी हुयी अलमारियाँ, करीने से लगायी गयी किताबें, हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं की किताबों के अलग-अलग कैटलाग और इन सबके अलावा पूर्ण समर्पित लाइब्रेरियन तिवारी जी। पूरा नाम तो उनका मुझे न तब मालूम था और न अभी मालूम है पर इन्सान वह बड़े प्यारे थे। भानु इस लाइब्रेरी का पंजीकृत सदस्य था। हम दोनों नियमित रूप से वहाँ जाया करते थे।

इस लाइब्रेरी के पिछले हिस्से में एक शहीद उद्यान था, छोटा सा, सिर्फ तीन संगमरमर की आवक्ष मूर्तियाँ थीं वहाँ- चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह और खुदीराम बोस की। मूर्तियों के नीचे उनके बारे में संक्षेप में लिखा था। इसके अलावा वहाँ दीवारों पर कई क्रांतिकारियों की फोटोप्लेट्स लगी हुयी थीं और उनपर भी उनके बारे में लिखा था। लाइब्रेरी से खाली हो जाने के बाद हमलोग कुछ देर वहीं लान में बैठकर बातें करते। जाहिर है कि उस माहौल में आजादी की लड़ाई के दौर की कहानियों और चरित्रों के बारे में ही बातें होती थीं। पढ़ाई तो जारी थी पर काफी कुछ मैंने उन्हीं बैठकों में भानु से सीखा था।

बाद के दिनों में उस उद्यान से सटा एक और प्लाॅट भी शहीद उद्यान की जद में आ गया। उस हिस्से में भी कई सारी मूर्तियाँ और प्लेटें लगायी गयीं। मिर्जापुर के ही एक दूसरे स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी बटुक नाथ अ्रग्रवाल पूरे उद्यान की देखभाल करते थे। हमलोग कभी-कभी उनके पास भी बैठ जाते थे।

वह अपने को हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी) के सदस्य और चन्द्रशेखर आजाद के करीबी बताते थे और यह भी बताते थे जिस समय आजाद को इलाहाबाद के कम्पनी बाग में शहीद किया गया, उसके ठीक पहले वह उनके साथ ही थे। उनके चारों ओर जब पुलिस का घेरा बढ़ने लगा तो आजाद ने ही उन्हें और दूसरे लोगों को डाँट कर वहाँ से भगा दिया था, वे लोग पीछे की दीवार ज्यों ही फाँदे वैसे ही गोलियाँ चलने की आवाजें आने लगी थीं।

बहरहाल, अग्रवाल जी ही पूरे शहीद उद्यान के सर्वे-सर्वा थे। उनका पूरा समय वहीं गुजरता था, सिर्फ रात में वह सोने के लिये अपने घर जाते थे।

साल तो अच्छी तरह नहीं याद है पर उसी दौर में मिर्जापुर में एक स्वतंत्रता-सेनानी सम्मेलन हुआ था। बहुत सारे लोग आये थे पर केवल तीन नाम मुझे याद हैं- यशपाल, शिव वर्मा और शचीन्द्र नाथ बख्शी, इसकी भी अपनी वज़हें हैं। मैं इन लोगो से मिलने के लिये भानु के साथ ही गया था। बिन्नानी डिग्री काॅलेज के प्रभु नारायण श्रीवास्तव ने यशपाल का साक्षात्कार लेना चाहा तो वह पूछ बैठे, ‘‘ साक्षात्कार का क्या करोगे ? ’’ ‘‘धर्मयुग में देंगे ,छपने के लिये ’’ जवाब था। ‘‘ पर वह छापेगा नहीं ’’ कहकर यशपाल ने साक्षात्कार देने से मना कर दिया था।

सबका बिस्तर फ़र्श पर ही लगा हुआ था। हमलोग शिव वर्मा के पास गये, उनसे बातें की। सरल हृदय शिववर्मा ने बहुत खुलकर हमें बहुत कुछ समझाया। उनसे हमलोगों ने पूछा कि ‘‘ हमलोग युवा हैं, आप हमारी प्रेरणा हैं। देश के लिये हमलोग भी कुछ करना चाहते हैं, क्या करें ?’ ’ ‘‘पढ़ो, खूब पढ़ो’’ उनकी बड़ी सधी हुयी सलाह थी। हमने गाँठ बाँध ली। सम्मेलन में जाने का समय हो रहा था। मैंने चाहा कि मैं उनका जो भी मामूली सा सामान है, उठा लूँ पर उन्होंने बहुत सख्ती से मना कर दिया।

शाम को शचीन्द्र नाथ बख्शी से ‘ शहीद उद्यान ’ में मुलाकात हुयी। जिन लोगों से हम मिल पाये उनमें से सबसे मुखर वही थे। उन्होंने राहुल सांकृत्यायन की ‘वोल्गा से गंगा’ का जिक्र करते हुये बताया कि वह भी एक किताब लिखना चाहते हैं- ‘गंगा से वोल्गा’। मुझे नहीं पता कि वह किताब कभी छपी या नहीं। यदि किसी को पता हो तो मुझे भी जरूर बताये, देखना चाहूँगा।

 

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