19 जुलाई 2019 को बैंक राष्ट्रीयकरण का स्वर्ण जयंती दिवस था। 1969 के पहले केवल स्टेट बैंक आफ इंडिया राष्ट्रीयकृत बैंक था। 1 जुलाई 1955 को गोरेवाला समिति की सिफारिश पर इंपीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण किया गया और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की स्थापना हुई। यह जवाहरलाल नेहरू का समय था।
चीनी आक्रमण के बाद नेहरू की मनोदशा-भावदशा पहले की तरह नहीं रही थी। उनके समय में ही ‘आफ्टर नेहरू’ का सवाल उठने लगा था। मोरारजी देसाई प्रमुख नेता थे। साठ के दशक के आरंभ में कामराज ने यह महसूस किया कि कांग्रेस की पकड़ कम होती जा रही है। तीसरा लोकसभा चुनाव संपन्न हो चुका था। वे 9 अक्टूबर 1963 को कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। कामराज प्लान के तहत उन्होंने एक सिंडिकेट व्यवस्था आरंभ की। उद्देश्य कांग्रेस में नई जान फूंकनी थी। कई प्रमुख कांग्रेसी मंत्रियों ने इस्तीफा दिया। कामराज प्लान की बदौलत ही वह केंद्र की राजनीति में प्रमुख हुए।
नेहरू के निधन के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने और शास्त्री के निधन के बाद इंदिरा गांधी 24 जनवरी 1966 को प्रधानमंत्री बनी। लालबहादुर शास्त्री के निधन के बाद मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री पद के प्रमुख प्रतियोगी थे। 1966 में कांग्रेस के रूढ़िवादी धड़े के प्रत्याशी मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री न बनने देने में कामराज की प्रमुख भूमिका थी। चौथी लोकसभा चुनाव, 1967 में कांग्रेस को पहली बार बड़ा झटका लगा था। संसद में उसकी सीट घट गई थी और 8 राज्यों में वह चुनाव हार गई थी।
समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने संसद में कई बार इंदिरा गांधी को भी ‘गूंगी गुड़िया’ कहा था। कामराज, संजीव रेड्डी, निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष और एसके पाटिल सब एक साथ थे जिन्हें सिंडिकेट के नाम से जाना गया। इन सब ने यह सोचा कि ऐसा प्रधानमंत्री बने जो उनके नियंत्रण में हो। इंदिरा गांधी उन्हें ऐसी ही लगी। 1959 में इंदिरा ने केरल में ढाई वर्ष की पहली कम्युनिस्ट सरकार को पलट दिया था और 10 वर्ष बाद 1969 में वे अपना वामपंथी समाजवादी चेहरा लेकर उपस्थित हुई। 1969 में उन्होंने एक साथ कांग्रेस का विभाजन और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया।
राजा महाराजाओं को दिया जाने वाला प्रिवीपर्स समाप्त किया। 17 जुलाई 1969 को नई दिल्ली में कांग्रेस संसदीय समिति की बैठक हुई और 19 जुलाई को ‘बैंकिंग कंपनी ऑर्डिनेंस’ आया। 14 बैंकों – इलाहाबाद बैंक (1865), बैंक आफ बडौदा (1908) , बैंक ऑफ महाराष्ट्र (1935) , सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (1911) , कैनरा बैंक (1906) , देना बैंक (1938), इंडियन बैंक (1907) , इंडियन ओवरसीज बैंक (1937) , पंजाब नेशनल बैंक (1894) , सिंडिकेट बैंक (1925) , यूको बैंक (1943), यूनियन बैंक आफ इंडिया (1919) और यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया (1950) का राष्ट्रीयकरण से इंदिरा गांधी ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रमाण दिया। इन 14 बैंकों में देश की कुल राशि का 70 प्रतिशत जमा था।
बैंक राष्ट्रीयकरण के मात्र 15 दिन बाद 3 अगस्त 1969 को नागार्जुन ने कविता लिखी – ‘धूल चटाओ’ जो 11 अगस्त 1969 को ‘जनशक्ति’ में प्रकाशित हुई थी। नागार्जुन ने लिखा ‘नहीं चलेगी पांच सवारों की यह तिकड़म’। ‘विफल रहा है सिंडिकेट का रगड़ा रगड़म’ और ‘रेड्डी जैसे छिपे घाघ को सबक सिखाओ/आओ, आओ ! /निजलिंगी लिंगायत जी को चंदन वन की राह दिखाओ/सिंडिकेट के पहलवान को धूल चटाओ’।
इंदिरा गांधी का निर्णय सिंडिकेट पहलवानों – कामराज, संजीव रेड्डी, निजलिंगप्पा, अतुल्य घोष और एसके पाटिल के लिए एक बड़ा झटका था। नागार्जुन ने इन्हें ही ‘पांच सवार’ कहा है। बैंक राष्ट्रीयकरण के छह प्रमुख कारण थे – सामाजिक कल्याण, निजी अधिकारों पर नियंत्रण, बैंक विस्तार, सामाजिक क्षेत्रीय असंतुलन को कम करना, बैंकिंग आदतों का विकास और प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र का उद्धार।
बैंक राष्ट्रीयकरण का दूसरा चरण 1980 है। 1969 में बैंक राष्ट्रीयकरण के समर्थक कई बड़े कांग्रेसी नेता नहीं थे। 1969 की इंदिरा गांधी 1967 की इंदिरा गांधी नहीं थी। 2 वर्ष में अधिक साहसी और निर्णयात्मक शक्ति से भरी हुई थी। बैंकों की कमान को अपने हाथ में लेने का निर्णय एक बड़ा निर्णय था। एस निजलिंगप्पा 1968 और 1969 में कांग्रेस के अध्यक्ष थे। कांग्रेस के फरीदाबाद अधिवेशन 24 से 28 अप्रैल 1969 में उन्होंने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया था। इंदिरा गांधी ने 7 जुलाई 1969 को कांग्रेस के बेगलोर अधिवेशन में तुरंत प्रभाव से बैंकों के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव पेश किया था।
मोरारजी देसाई वित्त मंत्री थे और वे भी इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे। वे बैंकों पर सरकार के नियंत्रण के पक्ष में थे ना कि राष्ट्रीयकरण के पक्ष में। 16 जुलाई को इंदिरा गांधी ने उन्हें मंत्री पद से हटा दिया और 19 जुलाई को एक ऑर्डिनेंस से बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इस ऑर्डिनेंस को बैंकिंग कंपनी ऑर्डिनेंस के नाम से जाना जाता है। अब बैंक की नई यात्रा शुरू हुई। बैंक शहर से निकलकर गांव देहात की ओर बढ़ा।
11 वर्ष बाद 15 अप्रैल 1980 को 6 और बैंक राष्ट्रीयकृत हुए। ये बैंक है – आंध्रा बैंक (1923) , कारपोरेशन बैंक (1996) , ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स (1943) , न्यू बैंक ऑफ इंडिया (1936) , विजया बैंक (1931) और पंजाब एंड सिंध बैंक (1908) । राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या 20 हो गई। राष्ट्रीयकृत बैंकों ने कतिपय खामियों के बाद भी देश के विकास में अहम योगदान दिया है। बैंक में पैसा इकट्ठा होता गया और कर्ज दिया जाने लगा। पहले देश की जनता कर्ज लेने के लिए या तो सूदखोरों के पास जाती थी या महाजनों के पास। अभी स्थिति उलट गई। प्राथमिक सेक्टर को विशेष लाभ पहुंचा। छोटे उद्योग, कृषि आदि के क्षेत्र में बैंकों की भूमिका बढ़ी। राष्ट्रीय कृत बैंकों को दिए गए 40 प्रतिशत कृषि ऋण थे।
एक आंकड़े के अनुसार जुलाई 1969 में देश में बैंकों की मात्र 8 हजार 322 शाखाएं थी जो 1994 के आरंभ में बढ़कर साठ हजार हो गई। डिजिटल बैंकिंग के बाद पिछले दो-तीन वर्ष में कुछ शाखाओं में कुछ कमी आई है पर अभी भी बैंक शाखाओं का विस्तार इतना अधिक व्यापक है कि देश का शायद ही कोई बड़ा गांव बैंक शाखा से वंचित हो। सरकारी योजनाओं को लागू कराने और आगे बढ़ाने में इसकी बड़ी भूमिका रही है।
बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद बैंक की भूमिका बदली। अब यह मात्र लेन देन, जमा या ऋण के माध्यम से मात्र लाभ अर्जित करने वाला उद्योग न रहकर समाज के गरीब, दलित तबकों की आर्थिक व सामाजिक उत्थान का एक सशक्त माध्यम भी बना। राष्ट्र के विकास में इसकी भूमिका रही पर इसके साथ ही बैंक भ्रष्टाचार आदि भी बढ़ा। राष्ट्रीयकरण से पहले वाणिज्यिक बैंकों की अपनी नीतियां थी जिनका उद्देश्य अधिकाधिक लाभ प्राप्त करना था। इसके शेयर धारक कुछ गिने-चुने पूंजीपति होते थे। अब स्थित भिन्न है। शेयर धारक कोई भी हो सकता है। आर्थिक विकास मूलक कार्यों में राष्ट्रीयकृत बैंकों की एक बड़ी भूमिका रही है। अब बैंक बड़े औद्योगिक घरानों के कब्जे से मुक्त हुए।
देश में यद्यपि निजी सेक्टर के पुराने और नए बैंक संख्या में इन से कम नहीं है फिर भी अभी तक इनसे सामान्य जनता का भरोसा नहीं उठा है। निजी सेक्टर के पुराने बैंक संख्या में 12 है जिनकी तुलना में नए निजी सेक्टर के बैंकों में लोगों का अधिक भरोसा बढ़ा है। नए निजी सेक्टर के बैंक देश में नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के बाद खुले हैं। 1993 से 2015 तक खुले इन बैंकों में आई सी आई सी आई (1994), एचडीएफसी बैंक (1994) , एक्सिस बैंक (1993), यस बैंक (2004) , इंडस लैंड बैंक आदि प्रमुख हैं।
फिलहाल भारतीय बैंक संकट में है। आरंभ में इनकी भूमिका जनोन्मुखी थी जो बाद में घटती गई और बैंक बड़े उद्योगों और औद्योगिक घरानों के लिए लाभकारी बने। एनपीए के बढ़ने से बैंक में ऋण देने की क्षमता घटी है। मुनाफा कम हुआ है और नगदी के प्रवाह में भी कमी आई है। उद्योग जगत और बड़ी कंपनियों का एनपीए की वृद्धि में बड़ा योगदान है।
राष्ट्रीयकृत बैंकों के विरोधी और उद्योगपतियों के समर्थक यह तर्क देते हैं कि कृषि जैसे प्राथमिक क्षेत्र में दिए गए कर्ज एनपीए में बदल गए। सच्चाई यह है कि सरकारी बैंकों ने वस्त्र उद्योग, विमानन, खनिज, इंफ्रास्ट्रक्चर तथा सीमेंट में सर्वाधिक ऋण दिए, जिनमें एनपीए – गैर निष्पादित संपत्ति बढ़ा है। जिन 38 सूचीबद्ध कमर्शियल बैंकों का एनपीए 8.41 लाख करोड़ से अधिक है, उनमें से 90 प्रतिशत सरकारी बैंकों का है जो पूरी बैंकिंग व्यवस्था की 70 % संपत्ति का प्रतिनिधित्व करते है।
एक अनुमान यह है कि समय रहते अगर इसका कोई समाधान नहीं किया गया तो यह 20 लाख करोड़ तक पहुंच सकता है। केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का एनपीए 31 मार्च 2018 को 2.23 लाख करोड़ था। विगत 5 वर्ष में विलफुल डिफाल्टरों यानी क्षमतावान का कर्ज न चुकाना की संख्या 60 प्रतिशत बढ़ी है। सरकार इसे डूबा हुआ कर्ज मानती है। एनपीए यानी डूबा हुआ कर्ज के प्रति सरकारी रवैया अधिक सख्त व और निर्णायक नहीं रहा है। आंखों के सामने कई ऐसे ‘महापुरुष’ देश छोड़कर बाहर चले गए जिनमें से कुछ का ऊंचा संबंध सर्वविदित है।
बैंक राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी ने जिस नीयत से किया था और आरंभ में उसके जो कई सकारात्मक पक्ष दिखाई पड़े थे अब कमजोर हो रहे हैं। इसे ही ध्यान में रखकर बैंकों के निजीकरण की बात की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट के कहने के बाद भी 2015 में रिजर्व बैंक ने ऋण नहीं देने वालों के नाम नहीं बताए थे। 31 मार्च 2015 तक सरकारी बैंकों का एनपीए 2 लाख 67 हजार कराड़ था जो 30 जून 2017 तक बढ़कर छह लाख 89 हजार करोड़ रुपए हो गया। मार्च 2018 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए 15.6 प्रतिशत था। रघुराम राजन ने बुरे ऋण के बड़े हिस्से के बढ़ने की बात 2006-2008 में कही थी जब अर्थव्यवस्था में अधिक तेजी थी।
बैंकिंग संकट का समाधान बैंकों का निजीकरण नहीं है। क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार 2017-18 में एनपीए 11.2 प्रतिशत था जिसके वित्तीय वर्ष 2018-19 में 11.5 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान था। सरकार के पूर्व प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम एवं नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया बैंकों में की जाने वाली धोखाधड़ी के बाद बैंकों के निजीकरण के पक्ष में थे पर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मोहम्मद यूनुस ने निजी बैंकों के प्रदर्शन को भी बेहतर नहीं माना था।
बैंकों के निजीकरण के पक्ष में जो हैं उन्हें राज्यसभा के पूर्व सांसद, प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व अध्यक्ष एवं रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पूर्व गवर्नर 87 वर्षीय सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री श्रीरंगराजन एवं आई आई एम हैदराबाद के प्रोफेसर पीटी राम मोहन का लेख ‘रिजॉल्विंग बैंकिंग क्राइसिस’ अवश्य पढ़ना चाहिए जिसमें इस संकट के मूल, कसे मानदंड और ऐसे संकटों को रोकने की योजनाओं के साथ रिस्क मैनेजमेंट पर विचार किया गया है। दोनों लेखक इस तर्क को खारिज करते हैं कि सार्वजनिक स्वामित्व की समस्या है। उन्होंने बताया है कि 2018 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का एनपीए 10.9 प्रतिशत था और आईसीआईसीआई का 9.9 प्रतिशत था और विदेशी बैंक स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक का 11.7 प्रतिशत था अर्थात सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण बैंकों की इस जटिल समस्या का निदान नहीं है।
बैंकों के राष्ट्रीयकरण, सरकारीकरण और निजीकरण में तीन चरण है। बैंक राष्ट्रीयकरण की स्वर्णजयन्ती के अवसर पर बैंकों के निजीकरण के प्रयत्न का मुखर और सक्रिय विरोध किया जाना चाहिए।